कोई-कोई नेता ही पार्टी लाइट से हटकर सही को सही कहने की हिम्मत दिखाता है। ऐसी ही एक आवाज कांग्रेस से उठी है जिसने पार्टी को नकारात्मक रुझान त्यागने के लिए कहा है। सबसे पहले कांग्रेसी नेता एवम् पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हर बात को गलत कहने से बात नहीं बनेगी, अच्छे को अच्छा कहना पड़ेगा। इसके बाद अभिषेक मनु सिंघवी व शशि थरूर ने कहा कि हमें अगर विरोधी की हर बात की निंदा करेंगे तो हम अपनी विश्वसनियता खो देंगे और विरोधी पार्टी के गलत कार्यों की निंदा का भी जनता पर प्रभाव नहीं पड़ेगा।
इसीलिए सही को सही और गलत काम को गलत कहना चाहिए। कभी राजनीति में ज्ञान, बोलने का तरीका, मौके की समझ, मेहनत व जनता के प्रति समर्पण को योग्यता माना जाता था लेकिन धीरे-धीरे उपरोक्त तत्व राजनीति से गायब होते जा रहे हैं। पैसा और नेता शब्दों में हेर-फेर करने वाले नेता को ही सफल राजनेता समझा जाने लगा है। इसी परिवर्तन का ही परिणाम था कि विधान सभाओं व संसद में सार्थक बहस की बजाए हंगामे ने जगह ले ली। केवल विरोध करने की ही प्रथा चल पड़ी। जो नेता दूसरी पार्टी के खिलाफ बोलेगा, ज्यादा आरोप लगाएगा, उसे काबिल नेता समझा जाने लगा है।
पार्टियों ने यह अनिवार्य शर्त ही बना दी कि पार्टी के प्रति वफदारी का मतलब है विरोधी पार्टी को किसी न किसी तरह कोसा जाए। पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र इस हद तक खत्म हो गया कि विरोधी पार्टी के बेहतर कार्य को अच्छा कहने वाले नेता की शामत आ जाती है। स्वतंत्र बोलने वाले को अनुशासन के नाम पर पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। ज्यादा बयानबाजी करना और बेतुके विरोध के कारण सार्वजनिक मुद्दों को नजरअंदाज कर दिया जाता है।
इस परंपरा ने राजनीति को विद्वत्ता से हीन कर केवल टकराव का विषय बना दिया है। किसी मुद्दे पर विरोध करना जायज है लेकिन केवल विरोध करना भी जनता को भी पसंद नहीं। जनता मुद्दों की राजनीति चाहती है। बेतुके विरोध से जनता का दिल नहीं जीता जा सकता। अच्छी बात है कि कांग्रेस के कुछ नेताओं ने सकारात्मक सोच का प्रमाण दिया है। जयराम रमेश ने तो 2014 में भी कांग्रेस को सतर्क किया था। दरअसल हमारी राजनीतिक विरासत मुद्दों की विरासत थी जिसे फिर स्थापित करने की आवश्यकता है। नि:संदेह यह सोच न केवल कांग्रेस को बल्कि सभी पार्टियों के लिए ही जरूरी है।