पुलिस में सुधार समय की दरकार

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क्या देश में कानून का इकबाल कम हो गया है? कहीं न कहीं हमारे यहाँ राज्य कमजोर पड़ता जा रहा है। एक तरफ दुनिया में राष्ट्र सर्वोपरि की भावना परवान पर है और राष्ट्रीय हितों के लिए व्यक्तिगत हितों के त्याग की बात हो रही है वहीं यहां राज्य को कमजोर करने की कोशिशें की जा रही है।

हाल की कुछ घटनाएं जैसे सब इंस्पेक्टर की घर मे घुसकर हत्या, डॉक्टरों के साथ आये दिन होने वाली मारपीट, मॉब लिंचिंग तथा तथाकथित नेताओं द्वारा सरेआम पुलिस व अधिकारियों की पिटाई जैसी घटनाएं राज्य को चुनौती देने वाली है जिसका सीधा सम्बन्ध कहीं न कहीं पुलिस व्यवस्था से है। इसी तरह हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र व गुजरात में हुए आरक्षण आंदोलनों में भी पुलिस की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगाए जाते रहे है। पराधीन भारत में पुलिस अंग्रेजों की कठपुतली थी। अंग्रेजी प्रशासन के हितों की किसी भी कीमत पर हिफाजत करना पुलिस के अस्तित्व का आधार था।

स्वतन्त्र भारत में भी ऐसी ही स्थिति बनी रही तथा अंग्रेजी शासन की जगह सत्ता पक्ष के राजनेताओं ने ले ली। परिणामस्वरूप कानून लागू करने वाली एक निष्पक्ष और स्वतंत्र संस्था के रूप में पुलिस कभी विकसित नहीं हो पाई। आज लोगों में यह धारणा घर कर गई है कि पुलिस प्रशासन सत्ताधारियों के इशारे पर नाचता है। रिश्वत लेकर अपराधियों को बचाता है। सही लोगों को झूठे मुकदमे में फंसाता है। आज आम आदमी को अपराधी से जितना डर लगता है, उतना ही डर पुलिस से भी है। इससे प्रतीत होता है कि पुलिस ने जनता का सहयोगी होने के अपने दायित्व को भुला दिया है।

जैसे-जैसे हमारी अर्थव्यवस्था विकसित हो रही है उसमें साइबर अपराध और धोखाधड़ी जैसे अपराधों की संख्या में भी वृद्धि होना स्वाभाविक है। वरिष्ठ अधिकारी जो कि भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये कृतसंकल्प हो, वह जैसे ही सुधारों की प्रक्रिया आरम्भ करता है उसका तबादला कर दिया जाता है। दरअसल, पुलिस व्यवस्था में सुधार के जो पहलू हम फिल्मों में देखते हैं, व्यवहारिक तौर पर सम्भव नहीं है।पुलिस व्यवस्था में बदलाव एक संगठन में लाए जाने वाले बदलावों की तर्ज पर ही लाया जा सकता है और कोई भी वरिष्ठ अधिकारी, अधिकारियों व कर्मचारियों की प्रवृत्ति में रातोंरात बदलाव नहीं ला सकता है।

पुलिस की भूमिका विभिन्न वर्गों, समूहों और सामाजिक स्तर के साथ बदल जाती है। विद्यार्थी, श्रमिक, पत्रकार, वकील, जन-प्रतिनिधि, प्रतिष्ठित व्यक्ति आदि सभी पुलिस से अपनी सोच के अनुरूप अपेक्षाएँ रखते हैं। इसके परिणामस्वरूप पुलिस को अपनी भूमिका-निर्वाह में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। एक तरफ अपराध की विविधता और जटिलता बढ़ रही है तो दूसरी तरफ लोगों की अपेक्षाएँ बढ़ रही हैं। इस वजह से पुलिस के सामने चुनौतियाँ भी अलग-अलग अंदाज में और बदलाव के साथ आ रही हैं। वैश्विक आतंकवाद के अलावा इंटरनेट और सोशल मीडिया के जरिये भी पुलिस के सामने चुनौतियां पेश आ रही हैं।

यह सच्चाई है कि राज्य सरकारें कई बार पुलिस प्रशासन का दुरुपयोग भी करती हैं। कभी अपने राजनीतिक विरोधियों से निपटने के लिये तो कभी अपनी किसी नाकामी को छिपाने के लिये। संभवत: यही मुख्य कारण है कि राज्य सरकारें पुलिस सुधार के लिये तैयार नहीं हैं। प्रधानमंत्री का स्मार्ट पुलिस का सपना तब तक पूरा नहीं हो सकता, जब तक कि राज्यों को सुधारों को अपनाने के लिए तैयार न किया जाए। पुलिस सुधारों का मूल उद्देश्य, पुलिस की शोभा बढ़ाना नहीं है। इसका लक्ष्य तो जनता की सुरक्षा बढ़ाना, कानून-व्यवस्था को कायम रखना एवं सुशासन की स्थापना करना है।

राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2016 में राज्य के खिलाफ अपराधों की संख्या 6986 थी। तथा सार्वजनिक शांति भंग के वर्ष 2016 में 72 ,829 मामले आये थे। इनमें अधिकांश मामले राजकार्य में बाधा पहुंचाने वाले थे। कानून व्यवस्था की किसी भी स्थिति के लिए पुलिस को दोष देने का चलन पुराना है और इसमें कोई खराबी भी नहीं है क्योंकि असल में कानून व्यवस्था को बनाये रखने के लिए ही पुलिस व्यवस्था को बनाया गया था। अगर देश की पुलिस पूरी तरह से सक्षम होगी, तो राष्ट्र की माओवादी, कश्मीरी आतंकवाद तथा उत्तरपूर्वी राज्यों के अलगाववादी आंदोलन से आसानी से निपटा जा सकेगा।

पुलिस सुधार, केवल 21वीं सदी की जरूरत नहीं है बल्कि आजादी के बाद से ही इसमें सुधार की गुंजाइश थी जो समय के साथ और बढ़ती चली गई। लोग अपने को सुरक्षित महसूस करेंगे। भारत की तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था को भी तभी सही सफलता मिल सकती है। पुलिस के आधुनिकीकरण में लोकतंत्र और मानवाधिकारों की हिफाजत का सबक अंतर्निहित होना चाहिए. उन्हें हथियारों, ट्रेनिंग से और अन्य साजोसामान से तो आधुनिकतम बना सकते हैं लेकिन उन्हें उतना ही आधुनिक- मानवीय और नैतिक तौर पर भी होना होगा।
नरेन्द्र जांगिड़

 

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