गत दिवस पंजाब में बेसहारा पशुओं के कारण कई सड़क हादसे हुए, जिनमें चार-पांच दिनों में 10 व्यक्तियों की मौत हो गई। यह समस्या पंजाब सहित पूरे उत्तरी भारत की है। देश भर में हजारों मौतें बेसहारा पशुओं के कारण होती है, अधिकतर हादसे गऊधन के बेसहारा होने के कारण हो रहे हैं। प्रशासन कुछ हद तक प्रयास किए जाते हैं लेकिन अधिकतर प्रयास शुरूआती तौर पर ही होते हैं। धीरे-धीरे इस समस्या से ध्यान हटता जाता है। भले ही प्रशासन के सहयोग से बेसहारा गऊधन को गऊशालाओं में भेजा जाता है लेकिन वहां सामर्थ्य से अधिक गऊओं को रखा जाता है।
हरियाणा की 6 हजार की क्षमता वाली 4 गऊशालाओं में 9 हजार गाय रखने की भी चर्चा है। आवश्यकता अनुसार गऊशालाओं की अभी भी कमी है। पंजाब में गाय आयोग भी बनाया गया है लेकिन सरकार बदलने पर राजनीतिक दाव-पेचों के कारण गऊशाओं को फंड नहीं दिए गए। वैसे गऊ सैस के नाम पर सरकार करोड़ों रुपए इकठ्ठा कर लेती है। सरकार इस मामले में पंचायतों का सहयोग लेकर अन्य गौशालाओं का निर्माण और विस्तार कर सकती है। सामाजिक स्तर पर मुहिम चलाई जा सकती है। यह भी जरूरी है कि जब तक पशुओं की संभाल का कोई प्रबंध नहीं होता तब तक पशुओं के गलों में रिफ्लैक्टर लटकाए जाएं, ताकि रात के समय पर सड़क हादसे से बचाव हो सके।
डेरा सच्चा सौदा की साध-संगत ने अपने स्तर पर प्रयास करते हुए हजारों पशुओं के गलों में रिफ्लैक्टर लगाकर इस दिशा में सराहनीय कदम उठाया है। हैरानी की बात यह है कि एक तरफ देश में दूध उत्पादन की भारी कमी है और दूसरी तरफ कीमती गऊधन सड़कों पर बेसहारा घूम रहा है। उपयोगी पशु भी गऊशालाओं के लिए आय का स्त्रोत बन सकते हैं और अनुपयोगी पशुओं की संभाल करना भी इंसानियत का कर्तव्य है।
सरकारों के पास सैकड़ों करोड़ों का बजट है और हमारे समाज में पशुओं के लिए दान करने की एक परंपरा रही है। पशुपालकों का नैतिक कर्तव्य बनता है कि वह अनुपयोगी होने पर भी पशुओं की संभाल करें, उसे आवारा छोड़कर उसका अपमान न करें। पशुओं की बेहतरी के लिए सरकार के साथ-साथ किसान-कारोबारियों और आमजन को भी पहल करनी चाहिए। जनसंख्या और उपजाऊ जमीन के क्षेत्रफल के सामने बेसहारा पशु कोई बड़ी समस्या नहीं। बस जरूरत है हिम्मत और पहल करने की।