न केवल विरोध अपितु स्वस्थ चर्चा और वार्ता लोकतंत्र की मुख्य विशेषताएं हैं। प्रत्येक नागरिक को सत्तारूढ़ पार्टी और उसके राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक कार्यों की आलोचना करने का अधिकार है। अन्य राजनीतिक दलों के कार्यों के लिए आलोचना की जा सकती है किंतु दुर्भाग्यवश यह आलोचना रचनात्मक नहीं है जोकि किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए अच्छी होती। किसी भी लोकतांत्रिक प्रणाली में सत्तारूढ़ दल मात्र एक राजनीतिक दल है और उसके कार्यों पर प्रश्न उठाना या उसकी आलोचना करने से कोई व्यक्ति राष्ट्र विरोधी नहीं हो जाता है जैसा कि भारत में किया जा रहा है।
आलोचना का तात्पर्य यह नहीं है कि कोई व्यक्ति या समूह राष्ट्रीय मूल्यों के विरुद्ध है अपितु इसका तात्पर्य राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दों में अलग-अलग दृष्टिकोण है। इस संबंध में हाल ही में कुछ लोगों द्वारा भीड़ द्वारा हिंसा के विरुद्ध प्रधानमंत्री को खुला-पत्र लिखना और उसके बाद दूसरे समूह द्वारा यह पत्र लिखना कि यह आलोचना एकपक्षीय है और ये दोनों पत्र अलग-अलग दृष्टिकोणों को दर्शाते हैं। पिछले माह सरकार के आलोचक 49 प्रसिद्ध व्यक्तियों ने प्रधानमंत्री मोदी को एक खुला पत्र लिखा। इन व्यक्तियों में फिल्म निर्माता, इतिहासकार, बुद्धिजीवी आदि शामिल थे और उन्होंने पत्र में लिखा मुस्लिम, दलितों और अन्य अल्पसंख्यकों के विरुद्ध भीड़ द्वारा हिंसा पर तुरंत रोक लगाई जानी चाहिए और इस बात पर बल दिया कि कोई भी लोकतंत्र विरोध के बिना नहीं रह सकता है और उन्होंने कुछ तथ्य भी पेश किए।
इन लोगों ने फेसचेकर इन डाटाबेस और सिटीजन्स रिलीजियस हेट क्राइम वॉच का उल्लेख किया जिसमें कहा गया कि पिछले नौ सालों में धार्मिक पहचान के आधार पर अपराध बढेÞ हैं और इनमें 62 प्रतिशत पीड़ित मुस्लिम समुदाय के हैं। 2009 और 2018 के बीच 254 धार्मिक पहचान आधारित अपराध हुए हैं जिनमें से लगभग 90 प्रतिशत मई 2014 के बाद हुए। उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया कि जब तक लोग देश के नियम कानूनों का उल्लंघन नहीं करते उन्हें अपनी मनमर्जी से जीने दिया जाए। दूसरी ओर 62 अन्य हस्तियों ने इस पत्र का जवाब देते हुए खुला पत्र लिखा और इन 49 हस्तियों को राष्ट्र का स्वयंभू अभिरक्षक बताया और उन पर आरोप लगाया कि वे राजनीति प्रेरित हैं और इसके चलते उन्होंने यह चिंता व्यक्त की है। उन्होंने मोदी सरकार का बचाव करने का प्रयास किया।
इन दोनों समूहों के तर्कों से पता चलता है कि इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि मीडिया रिपोर्टों के अनुसार अल्पसंख्यकों के प्रति वर्तमान सरकार के दृष्टिकोण में सुधार की गुंजाइश है। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में भी बढ़ते घृणा अपराधों की बात कही गई है और ऐसी खबरें छप रही हैं कि मुस्लमानों को भीड़ द्वारा मारा जा रहा है, उन पर अत्याचार किया जा रहा है। यही नहीं हाल ही में जय श्री राम का नारा लगाना राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया है और यह भड़काऊ नारा बन गया है जिसके चलते अल्पंख्यक अपने धार्मिक विश्वासों का पालन नहीं कर पा रहे हैं। यही नहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने के लिए औपनिवेशिक कानूनों का उपयोग किया जा रहा है। महात्मा गांधी को भी दंड संहिता की धारा-124 क अर्थात देशद्रोह में गिरफ्तार किया गया था जिस पर उन्होंने कहा था यदि किसी व्यक्ति को किसी व्यवस्था के प्रति प्रेम नहीं है तो वह अपने असंतोष को अभिव्यक्त करने के लिए तब तक पूर्णत: स्वतंत्र है जब तक वह हिंसा को बढ़ावा नहीं देता है।
वर्तमान में सरकार या राज्य या सत्तारूढ़ पार्टी की आलोचना की तुलना राष्ट्र विरोध से करना राष्ट्रवाद की महत्ता कम करने जैसा है। भारत जैसे परिपक्व गणराज्य में लोकतंत्र और राष्ट्रवाद के बीच टकराव नहीं होना चाहिए। सत्तारूढ़ दल को संविधान के अनुच्छेद-19 को नहीं भूलना चाहिए जिसमें भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है। सरकार को इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि हमारे जैसे विविधतापूर्ण देश में जहां पर अनेक जातियां, पंथ और धार्मिक पहचान हैं लोगों को अपने धर्म और आस्था का अनुसरण करने तथा देश के कानून का उल्लंघन किए बिना अपने जीवन को जीने की अनुमति दी जानी चाहिए।
किंतु दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो रहा है। देश की धर्मनिरपेक्ष भावना कमजोर हो रही है और तथाकथित हिंदूत्व की धार्मिक भावना के विरुद्ध जो भी बोलता है उसे धमकी दी जाती है। हमारे देश में रामकृष्ण और विवेकानंद जैसे धार्मिक संतों ने धार्मिक एकता पर बल दिया और उनका मानना था कि सभी धर्मों का मूल एक ही है। वर्तमान प्रवृति से स्पष्ट होता है कि आक्रामक राजनीतिक समाज ने आज जीवन को असुरक्षित बना दिया है। कानून का पालन करने वाले नागरिक के रूप में हम अपनी फरियाद कहां करें क्योंकि अल्पसंख्यक आज तथाकथित बहुसंख्यक के भय के वातावरण में रह रहे हैं।
जहां एक ओर सरदार पटेल की विशाल प्रतिमा बनाई गई है और दूसरी ओर महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मनाई जा रही है तो दूसरी ओर समानता और न्याय के बुनियादी सिद्धान्तों का उल्लंघन हो रहा है। जैसा कि सभी जानते हैं कि अपने राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष में गांधी जी हिन्दू, इसाई और इस्लाम के मूल्यों से प्रभावित रहे हैं। अत: क्या हम यह नहीं कह सकते कि सरकार द्वारा प्रत्येक कदम पर जीवन के अधिकार का हनन किया जा रहा है?
विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अलावा संघर्षरत जनता के अधिकारों को बहाल किया जाना चाहिए ताकि वे गरिमापूर्ण जीवन जी सके। इसीलिए सरकार को धर्म के साथ राजनीति का घालमेल नहीं करना चाहिए और ग्रामीण क्षेत्रों के उत्थान, रोजगार सृजन, उद्यमिता विकास आदि के माध्यम से गरीबों का कल्याण करना चाहिए। साथ ही वास्तविक लोकतंत्र को सुचारू बनाने के लिए पंचायतों को अधिक शक्तियां दी जानी चाहिए। लोग अब यह समझने लग गए हैं कि बहुसंख्यकवाद महत्वपूर्ण आर्थिक और सामाजिक मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाने का बहाना है। इसलिए वर्तमान सरकार अपनी अकुशलता को छिपाने के लिए धर्म और राष्ट्रवाद की आड़ लेना बंद करे। आज अशिक्षित व्यक्ति भी यह समझता है कि हमें समाज में सौहादूर्पूर्ण ढंग से रहना चाहिए और स्वयं महात्मा गांधी तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर इस बात पर बल देते रहे हैं।
डॉ. ओईशी मुखर्जी