मनु के घर को बचाने की एनजीटी की पहल

NGT initiated to save Manu's house

देवभूमि हिमाचल के दो पर्यटक स्थलों मनाली और मकलोड़गंज में राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल यानी एनजीटी ने व्यापारिक व व्यावसायिक दृष्टि से हो रहे निर्माण पर रोक लगा दी है। फैसले का सीधा मतलब है कि पर्यटन स्थल कुल्लू और मनाली में अब क्षमता के मुताबिक ही भवन निर्माण से संबंधित कार्य करना होगा। देर से ही सही, एनजीटी ने पहाड़ी राज्य के पर्यावरण एवं इकोलॉजी के हिसाब से सही फैसला लिया है। पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड समेत पहाड़ी राज्य अनियोजित विकास की मार झेलने को मजबूर हैं।

मनुआलय यानि मनु के घर के रूप में पहचान रखने वाली सौंदर्य की पर्याय पर्यटन नगरी मनाली देश का पंसदीदा पर्यटन स्थल है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले दो दशकों में कुल्लू-मनाली में व्यावसायिक दृष्टि से अंधाधुंध निर्माण कार्य हुए हैं। कई होटलों की जरूरत से ज्यादा मंजिलों का निर्माण किया गया है। इसके अलावा कई होटल ऐसे हैं, जिन्होंने बिना नक्शा पास कराए ही निर्माण कार्य किया है। जानकारों के मुताबिक मनाली-मकलोडगंज पर एनजीटी का प्रहार अप्रत्याशित नहीं, बल्कि यह दशकों पहले बने ग्राम एवं नगर योजना कानून की हार है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अंगे्रजी हुकूमत की बदौलत हिमाचल को लेकर जो आकर्षण पैदा हुआ, उसी का दोहन आज तक हो रहा है। नए हिल स्टेशन अतिव्यस्त हो चुके हैं। एनजीटी के फैसले से होटल व पर्यटन से जुड़े लोगों में निराशा और गुस्सा दोनों हैं। वर्ष 2015 में हाईकोर्ट ने मनाली में पर्यटन गतिविधियों पर रोक लगायी थी। उस समय खूब हो-हल्ला मचा, राजनीति हुई। बस जो होना चाहिए था वो नहीं हुआ। नतीजा अब एनजीटी के आदेश के तौर पर सामने है।

1992 में रियो डी जेनेरो में हुए संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन में कार्य सूची 21 के अध्याय-13 में पर्वत श्रेणियों पर ध्यान केन्द्रित किया गया था और उन्हें स्थाई विकास का आधार बताया गया था। इससे पर्वतीय मुद्दों के समाधान के लिये एक पर्वतीय संस्कृति का विकास हुआ। पर्वतीय पारिस्थितिकी प्रणाली के विश्वव्यापी महत्व के प्रति जागरुकता बढ़ाने और पर्वतीय लोगों की कठिनाइयों एवं चुनौतियों को उजागर करने तथा दीर्घावधि ठोस उपाय करने के बड़े अभियान के तहत संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2002 को अन्तरराष्ट्रीय पर्वत वर्ष घोषित किया।

हिमाचल प्रदेश की पर्यटन नगरी मनाली में गर्मियों के दिनों में घूमना तो बहुत अच्छा लगता है। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक इस साल पिछले करीब तीन महीने के अंदर पर्यटकों ने मनाली में दो हजार टन कूड़ा छोड़ा है। रोहतांग दर्रे और सोलंग से मनाली शहर और इसके आसपास के होटलों के पास बहुतायत मात्रा में कचरा इकठ्ठा हुआ है। इस कचरे का अधिकांश हिस्सा प्लास्टिक युक्त मिला है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने मनाली और कुल्लू महापालिका को निर्देश दिए हैं कि कचरे को डिस्पोज किया जाए ताकि हिमाचल प्रदेश के पर्यावरण पर कोई प्रभाव ना पड़े। आंकड़ों की बात करें तो अप्रैल में 3,25,567, मई में 4,01,620 पर्यटक मनाली पहुंचे। वहीं जून महीने में पर्यटकों की संख्या 414841 थी। इसी से स्थिति की गंभीरता को समझा जा सकता है।

पिछले दिनों प्रदेश सरकार ने पर्यावरण को दूषित करने वाले उद्योगों की स्थापना पर रोक का आदेश दिया है। उद्योग विभाग द्वारा तैयार की गई नई नीति के तहत ऐसे उद्योगपति प्रदेश में निवेश नहीं कर सकेंगे जिनकी औद्योगिक इकाई से प्रदूषण फैलता हो। यदि कोई ऐसा उद्योगपति निवेश के लिए आवेदन करता है तो उसे पहले ही चरण में बाहर कर दिया जाएगा। गौरतलब है कि आगामी नवबंर में धर्मशाला में होने वाली इन्वेस्टर मीट से हिमाचल में औद्योगिक निवेश को बढ़ाया जाना है। इससे प्रदेश में नई औद्योगिक इकाइयां स्थापित होंगी। लेकिन ऐसे उद्योग या कंपनियां प्रदेश में न आ जाएं जिनसे पर्यावरण दूषित होता हो, इसे ध्यान में रखते हुए नई उद्योग नीति में ऐसे 12 प्रकार के उद्योगों की नेगेटिव लिस्ट तैयार की गई है।

एनजीटी के ताजा आदेश में मनाली-मकलोडगंज की पहल पर मिली जुली प्रतिक्रिया मिल रही है। जानकारों के मुताबिक मनाली-मकलोडगंज को बचाने के लिए यह जरूरी है कि सामान्य वाहनों को हटाकर यहां से दस-बीस किलोमीटर पहले ही बस स्टैंड के साथ-साथ महापार्किंग विकसित की जाए। वहीं पर्यटक स्थलों को व्यवस्थित ढांचे में परिपूर्ण करने की जरूरत है। खासतौर पर एरियल ट्रांसपोर्ट नेटवर्क तथा खुले स्थानों में बढ़ोतरी करके ऐसे स्थानों को बचाना होगा।
पर्यावरणविदें का मानना है कि हिमाचल में पर्यटक, धार्मिक या अन्य शहरों को बचाने के लिए सामुदायिक मैदान निर्धारित करने होंगे, जबकि बस स्टैंड परिसर को पर्यटन सुविधाओं से लैस करते हुए वहीं से एरियल नेटवर्क के जरिए जोड़ना होगा। टीसीपी विभाग को सशक्त करने के बजाय हिमाचल की राजनीतिक इच्छाशक्ति आज भी अपना दीवालियापन उस सोच में दर्शा रही है, जहां विकास योजनाओं से गांवों को हटाकर सरकार मनमर्जी से निर्माण करने की छूट देने पर आमादा है। कल यही गांव मकलोडगंज-मनाली की तर्ज पर बर्बाद होकर न ग्रामीण रहेंगे और न ही शहरी परिवेश के काबिल बनेंगे।

पर्यटन से जुड़े व्यावसायियों का पर्यावरणीय पहलुओं के प्रति संवेदनशील होना नितांत आवश्यक है तभी पर्यटन स्थलों की खूबसूरती एवं आकर्षण बरकरार रह सकेगा। सरकार को चाहिए कि एनजीटी के समक्ष मनाली के पर्यटन स्थलों में सुव्यवस्थित पर्यटन गतिविधियों के संचालन के लिए कोई ठोस एवं पुख्ता योजना रखे तथा पर्यटन स्थलों पर कारोबार करने वाले स्थानीय निवासियों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता, प्रदूषण से पर्यटन स्थलों को बचाने के उपाय व पर्यटकों से सौहार्द पूर्ण व्यवहार के प्रशिक्षण की व्यवस्था करे। इसके अतिरिक्त पर्यटन स्थलों पर सुव्यवस्थित पर्यटन गतिविधियों के संचालन के लिए मानीटरिंग दल तैनात किए जाएं जो कि तमाम पर्यावरणीय पहलुओं के मद्देनजर तमाम गतिविधियों के संचालन के लिए उत्तरदायी हों। प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्तियों को ही पर्यटन स्थलों पर व्यवसाय चलाने की अनुमति दी जाए तथा नियमों की उल्लंघना करने पर लाइसेंस रद्द करने का विधान हो।

वैज्ञानिकों का कहना है कि स्थानीय प्रशासन एनजीटी की कार्रवाई से पहले ही प्रभावी कदम उठाकर इस रोक को टाल सकता था। स्थानीय पर्यटन व्यावसायियों को पर्यावरणीय पहलुओं का प्रशिक्षण देकर पर्यटन स्थलों पर किसी भी प्रकार के प्रदूषण से पूरी तरह बचा जा सकता है। एनजीटी पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की कीमत पर पर्यटन के स्वछंद संचालन पर रोक लगाना चाहता है जिसकी दिशा में उसने कदम बढ़ा दिया है।

नतीजतन यहां भवन निर्माण पर रोक लगा दी गई है। किंतु एनजीटी की पर्यावरणीय पहलुओं पर संवेदनशीलता एवं सरकार की उदासीनता के चलते सुव्यवस्थित पर्यटन गतिविधियों के संचालन का अभाव यहां लोगों के जी का जंजाल बन चुका है। वास्तव में, पर्यावरण के प्रति संवेदना तथा जिम्मेदारी हर नागरिक से जुड़नी चाहिए, लेकिन यहां समस्या को समझने के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक तथा आर्थिक दृष्टि भी चाहिए। भवन निर्माण की रोक लगाना अंतिम चारा हो सकता है, लेकिन सूबे की संभावनाओं को कुंद करके तो रास्ता नहीं निकलेगा।
आशीष वशिष्ठ

 

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