मानव अधिकार और गिरफ्तारी

Human Rights and Arrest

केरल हाई कोर्ट ने हाल ही में अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि प्रशासन द्वारा किसी शख्स को सिर्फ इसलिए प्रताड़ित नहीं किया जा सकता कि उसने माओवादी विचारधारा को अपना लिया है। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ऋषिकेश रॉय और जस्टिस एके जयशंकरण नांबियार की खंडपीठ ने एकल पीठ के आदेश को बरकरार रखते हुए स्पष्ट तौर पर कहा, ‘‘हमारे संविधान की प्रस्तावना घोषित करती है कि हम भारत के लोगों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा की स्वतंत्रता की गारंटी है।’’ अदालत यहीं नहीं रुक गई, बल्कि उसने इससे और भी आगे जाते हुए कहा, ‘‘किसी खास राजनीतिक विचारधारा को अपनाने की आजादी व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हिस्सा है।

साल 2014 में केरल पुलिस के विशेष दस्ते ने एक लेखक, शोधार्थी श्याम बालाकृष्णन को माओवादी होने के शक में पहले तो गैरकानूनी तरीके से गिरफ्तार किया, फिर हिरासत में रखकर उसे प्रताड़ित किया। मामला जब अदालत पहुंचा, तो केरल हाई कोर्ट की एकल पीठ ने इस मामले पर संजीदगी से विचार करते हुए कहा, माओवादी होना कोई अपराध नहीं है, यद्यपि कि माओवादियों की राजनीतिक विचारधारा हमारी संवैधानिक व्यवस्था से मेल नहीं खाती है। पुलिस किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए हिरासत में नहीं ले सकती है कि वह माओवादी है, जब तक कि उसकी गतिविधियां गैरकानूनी न हों।

यानी सिर्फ विचारधारा के आधार पर किसी की गिरफ्तारी गैरकानूनी है। अगर पुलिस किसी को गैरकानूनी तरीके से गिरफ्तार करती है, तो यह न सिर्फ भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता का उल्लंघन है, बल्कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20, 21 और 22 में दिए गए मौलिक अधिकारों के भी खिलाफ है। मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर पीड़ित पक्ष, संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सीधे सुप्रीम कोर्ट जा सकता है। अदालत ने इसके साथ ही फरियादी को एक लाख रुपये मुआवजा देने का भी आदेश दिया। एकल पीठ के इस आदेश के बाद भी राज्य सरकार ने कोई सबक नहीं सीखा, और उसने केरल हाई कोर्ट की खंडपीठ में इस फैसले के खिलाफ याचिका दायर कर दी। लेकिन यहां भी उसे मुंह की खाना पड़ी।

याचिका को खारिज करते हुए खंडपीठ ने यह तल्ख टिप्पणी की, ‘‘सिर्फ इस संदेह पर कि याचिकाकर्ता ने माओवादी विचारधारा को अपना लिया है, राज्य प्रशासन उसे यातना नहीं दे सकता।’’ अदालत ने अपना फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय के साल 1997 में डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल सरकार मामले का हवाला दिया, जिसमें अदालत ने पुलिस और जांच एजंसियों को आपराधिक प्रक्रिया संहिता और गिरफ्तारी के दिशानिदेर्शों के तहत कुछ जरूरी प्रक्रियाओं का पालन करने का आदेश दिया था, लेकिन पुलिस ने इस मामले में इन सभी चीजों का उल्लंघन करते हुए, श्याम बालाकृष्णन की गिरफ्तारी की और उनका उत्पीड़न किया। एक लिहाज से देखें, तो ये गैर कानूनी गिरफ्तारी सीधे-सीधे अदालत की अवमानना है।

एकल पीठ ने अपने फैसले में यदि मुल्जिम को मुआवजा देने की पैरवी की थी, तो वह तर्कसंगत है। मुल्जिम बेकसूर था और उसे अनावश्यक गिरफ्तार किया गया। यह पहली मर्तबा नहीं है, जब किसी शख्स को माओवादी विचारधारा में यकीन होने की वजह से गिरफ्तार किया गया हो, बल्कि इससे पहले भी ऐसे कई मामले सामने आये हैं, जिसमें पुलिस ने पहले माओवादी विचारधारा के नाम पर बेगुनाहों की गैरकानूनी गिरफ्तारी की और बाद में ये लोग अदालत से बाइज्जत बरी हुए। पुलिस, अदालत में उनके खिलाफ कोई इल्जाम साबित नहीं कर पाई।

डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल सरकार मामले में दिए अपने ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने गिरफ्तारी और हिरासत में हिंसा रोकने के लिए विस्तृत दिशानिर्देश जारी किए थे। इन दिशानिदेर्शों में पुलिस गिरफ्तारी से संबंधित कानूनों का विस्तार से वर्णन किया है। मसलन सीआरपीसी की धारा 50 (1) के तहत पुलिस को गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को गिरफ्तारी का कारण बताना होगा।

अगर उक्त किसी भी कानून का पुलिस पालन नहीं करती है, तो उसकी गिरफ्तारी गैरकानूनी होगी और इसके लिए पुलिस के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। बावजूद इसके पुलिस और जांच एजंसियां इन कानूनों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन करती हैं और उनके खिलाफ कोई कार्यवाही भी नहीं होती। पुलिस अधिकारी ऐसी गलती ना दोहराएं, इसके लिए अदालतों ने अपने फैसलों में कई बार इन दिशानिर्देश को पालन करने की नसीहत देते हुए, देश के प्रत्येक थाने में इन दिशा निदेर्शों को लिपिबद्ध करने का निर्देश देने के अलावा, आला पुलिस अधिकारियों और गृह सचिव को इसका अनुपालन सुनिश्चित करने को कहा है।

लेकिन हकीकत में कुछ नहीं हो पाता। जिसका खामियाजा निर्दोष नागरिकों को भुगतना पड़ता है। श्याम बालाकृष्णन मामले में केरल पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी दिशानिदेर्शों की स्पष्ट अवहेलना की है। लिहाजा संबंधित पुलिस अफसरों के खिलाफ ना सिर्फ विभागीय जांच हो, बल्कि अदालत की अवमानना का दोषी ठहराते हुए उन्हें उचित सजा भी दी जाए। ताकि फिर कोई बेगुनाह, पुलिस की ज्यादतियों का शिकार ना हो।