जब् सोना खनकता है तो जुबान बंद हो जाती है। पिछले पखवाडेÞ से देश में इस घूमती कुर्सी की राजनीति बखूबी देखने को मिल रही है। नई दिल्ली से लेकर कर्नाटक और आंध्र, तेलंगाना से लेकर गोवा तक इस तरह की राजनीति देखने को मिली। वास्तव में आजकल दल-बदलुओं का जमाना है क्योंकि अब राजनीतिक नैतिकता में हर कीमत पर सत्ता एक नया मानदंड बन गई है। पैसा है तो सत्ता है। इस तथ्य पर बंगलौर के विधान सभा में कुमारास्वामी के नेतृत्व में जद (एस)-कांग्रेस सरकार और भाजपा के बीच चल रही रस्साकस्सी बखूबी प्रकाश डालती है।
कुमारास्वामी ने भाजपा पर आरोप लगाया है कि उसने उसके 15 फरार विधायकों को रिश्वत दी है और उन्हें मुंबई के एक होटल में बंद रखा है जिसके चलते 224 सदस्यीय सदन में सत्तारूढ़ गठबंधन की सदस्य संख्या 117 से घटकर 102 रह गयी है और भाजपा इसका फायदा उठाने के लिए तैयार बैठी है। इस घटनाक्रम में किसी को इस बात की परवाह नहीं है कि इससे हमारे लोकतांत्रिक मानंदडों और कार्यकरण को और नुकसान पहुंचेगा। इसी तरह पिछले सप्ताह नई दिल्ली में भी एक राजनीतिक खेल खेला गया जब तेदेपा के चार राज्य सभा सांसद भाजपा में शामिल हो गए। गोवा में 10 कांग्रेसी विधायक भाजपा में शामिल हो गए और उनमें से तीन विधायकों को मंत्री बना दिया गया जिससे 40 सदस्यीय विधान सभा में भाजपा की सदस्य संख्या 27 तक पहुंच गयी। आंध्र प्रदेश में तेदेपा के विधायक भाजपा में शामिल होने के लिए तैयार बैठे हैं। आज भाजपा अपने दल-बदलुओं के महागठबंधन के माध्यम से देश के बडेÞ भूभाग पर सत्ता में है और कांग्रेस गिने-चुने राज्यों तक सिमट गयी है।
भाजपा उत्तर, पूर्व, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में अपनी पैठ बनाने का प्रयास कर रही है और इसके लिए वह दूसरे दलों में सेंध लगा रही है जिससे स्पष्ट होता है कि आज राजनीति प्रतिद्वंदियों की ताकत कम करना बन गयी है और उद्देश्य पूरा होने के बाद वे आपको भी छोड़ देंगे। आज स्थिति 1967 की आया राम, गया राम संस्कृति की तरह बन गयी है जब हरियाणा में निर्दलीय विधायक गया लाल ने 15 दिनों में तीन पार्टियां बदल दी थी। उसके बाद भजन लाल ने अपनी जनता पार्टी सरकार को कांग्रेस में शामिल कर दिया था जिसके बाद 1960 से 1980 के दशक तक बड़े पैमाने पर दल-बदल होता रहा। इस बारे में 1993 में झामुमो सांसद सूरज मंडल ने लोक सभा में कहा था पैसो बोरियों में आता है। दो सांडों के बीच एक बेचारा क्या करे?
दल बदल करने वाले और इसके नए लाभार्थियों को संरक्षण और सत्ता में हिस्सा दिया जाता है जिसके चलते अलग-अलग विचारधारा वाली पार्टी एकजुट हो जाती है और विधायकों की सेंधमारी को स्मार्ट राजनीतिक प्रबंधन कहा जाता है। चौंकाने वाली बात यह है कि 1967 और 1983 के बीच संसद में 162 दल बदल हुए और विधान सभाओं में 2700 दल-बदल हुए जिसमें से 212 दल बदलुओं को मंत्री बनाया गया और 15 दल-बदलू मुख्यमंत्री बने। राजनेताओं ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इनका किसी खास पार्टी की ओर कोई झुकाव नहीं है और वे उसके साथ मिल जाएंगे जो उनकी सबसे बडी बोली लगाएगा और उन्हें पैसा और कुर्सी देगा। 1985 में दल बदल रोधी कानून बनने से इस पर अस्थायी रूप से रोक लगी किंतु सत्तारूढ पार्टी ने अपने सांसदों या विधायकों को लोक सभा और राज्य विधान सभाओं के अध्यक्ष बनाकर इस कानून का उल्लंघन किया।
कानून कहता है कि लोक सभा या विधान सभा अध्यक्ष दूसरे सदस्य की याचिका के आधार पर दल बदलू को अयोग्य घोषित कर सकता है या उसे त्यागपत्र देना पड़ता है और इसमें यदि दल बदल सत्तारूढ दल पार्टी के हक में होता है तो अध्यक्ष विधायक का त्यागपत्र स्वीकार कर सकता है और यदि ऐसा नहंी होता है तो उसे अयोग्य घोषित कर देता है। कानून की इस खामी से दल-बदल की प्रक्रिया जारी रही और स्थिति यह बनी कि दल-बदल करने वाले विधायक सरकार में विपक्षी मंत्री बने अैर उनसे यह भी प्रश्न नहंी पूछा जाता कि जनता को किए गए उनके वायदों का क्या हुआ। प्रश्न पूछा जा सकता है कि चुनाव पार्टी द्वारा जीते जाते हैं न कि व्यक्ति द्वारा। लोकतंत्र के इस बाजार मॉडल में यह मानना गलतफहमी होगी कि पार्टी विचारधारा से शासित होती है। इस खेल में पैसा प्रदूषित और भ्रष्ट राजनीति को आगे बढाता है। ऐसे वातावरण में जहां पर दल-बदलू लोकतंत्र की आधारशिला को कमजोर करता है और जहां पर राजनीतिक नैतिकता के माध्यम से स्थिर सरकारें बनायी जाती है वहां कोई भी पार्टी नैतिक होने का दावा नहंी कर सकती अैर हमारे नेता भूल जाते हैं कि इस क्रम में चुनावों के बाद वातावरण को विषाक्त कर चुके होते हैं।
मोदी का न खाऊंगा, न खाने दूंगा का नारा राजनीतिक नैतिकता के चेहरे पर उछल गया है। राजनीतिक चर्चा में विचारधारा और नैतिकता को कुचलने के नेता के अधिकार को ठहराया जाता है क्योंकि ऐसे नेताओं को अपने हित साधने होते हैं।
जन सेवा के बारे में प्रश्न नहीं पूछे जाते हैं क्योंकि हर कोई 10 नंबरी पर भारी पड़ना चाहता है। इसलिए यह झूठ और धोखाधड़ी का खेल आज भारत की वास्तविकता बन गयी है। सत्ता ही सब कुछ है। अत: प्रश्न उठता है कि क्या अल्पकालिक लाभ दीर्घकालिक कीमत पर भारी पड़ेंगे? क्या इस तरह के अवसरवाद को राजनीतिक चर्चा के योग्य माना जा सकता है? किंतु आप कह सकते हंैं कि यही लोकंतत्र है तथापि गत वर्षों में लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धान्त को कुचल दिया गया है। हमारे नेता भूल गए है कि लोकतंत्र अपने आप में एक साध्य नहंी है अपितु वह साध्य अर्थात जनता के कल्याण और खुशहाली को प्राप्त करने का साधन है और यह तभी संभव है जब समर्पित नेताओं द्वारा संचालित स्वच्छ और स्थिर सरकार देश को सर्वोच्च प्राथमिकता दे।
इस समस्या का समाधान क्या है? यह देखने को मिल रहा है कि कोई भी पक्ष दल बदल पर रोक लगाने के लिए तत्पर नहंी है क्योंकि इससे उन्हें लाभ मिलता है। नैतिक मूल्यों के बिना राजनीति लोकतंत्र के लिए खतरनाक है क्योंकि इससे हर स्तर पर अविश्वास पैदा होता है और आज की राजनीति के समक्ष गंदा नाला भी साफ लगता है। इसलिए लोकतंत्र के लिए संघर्ष जारी रहेगा। देखना यह है कि क्या अवसरवादी दल-बदलुओं की भीड़ में विचारधारा, मूल्यों और ईमानदारी को कोई स्थान मिलेगा?
-पूनम आई कौशिश
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