कभी राजनीति केवल जन व देश की सेवा करना ही माना जाता था और नेता जनता के लिए दिन-रात संघर्ष करते थे। अब युग बदल गया है और नेता कुर्सी के लिए लड़ रहे हैं। अपनी पसंद का विभाग लेने के लिए पंजाब के कैबिनेट मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ने अपना इस्तीफा सौंप दिया है। स्थानीय निकाय विभाग न मिलने के कारण मुख्यमंत्री से नाराज सिद्धू ने राहुल गांधी को जाकर कई तर्क दिए लेकिन बात नहीं बनती देख डेढ़ माह बाद ट्विटर पर इस्तीफे की कॉपी सामने आ गई है। हालांकि सिद्धू ने विभाग बदले जाने के चार दिन बाद ही अपना इस्तीफा कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को सौंप दिया था।
राजनीति में अपनी शुरूआत के समय नवजोत सिंह सिद्धू को एक लोक हितैषी व अच्छा नेता समझते थे लेकिन यह राजनीति है इसमें राज करने की नीति बनाने की बजाए कुर्सी के लिए राजनीति की जाने लगी है। आखिर नवजोत सिंह सिद्धू भी कुर्सी के लालच में इस्तीफे दे गए। इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि सिद्धू ने लोकसभा में अमरिन्द्र सिंह के खिलाफ जमकर प्रचार किया था। भले ही उनके स्थानीय निकाय विभाग का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा लेकिन सिद्धू इसके अलावा अमरिन्द्र व प्रकाश सिंह बादल के परिवार के साथ परिवारिक रिश्ते होने का भी प्रचार करते रहे। राजनीति अब शोहरत व ताकत का दूसरा नाम बन गई है।
केवल सिद्धू ही नहीं देश की लगभग हर पार्टी व प्रत्येक राज्य की राजनीति इस बुराई की चपेट में है। इसी लोभ ने कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस सरकार के पांव तले जमीन खिसका दी। मंत्री वाली कार न मिलने से नाराज विधायक ने कर्नाटक की जनता से मुंह फेरकर मुंबई में डेरा जमा लिया था। इसी तरह गोवा में भी राजनीति हंगामा होता रहा। दलबदलू के साथ-साथ विरोधी पार्टियों के विधायकों को मंत्री पद का लालच दिया जा रहा है।
यहां पिछले सप्ताह ही भाजपा में शामिल हुए 10 कांग्रेसी विधायकों में से चार को मंत्री बना दिया गया है। यहां कोई राजनीतिक कर्तव्यभाव नहीं दिख रहे व न ही पार्टी छोड़ने वाले विधायकों का नैतिक मूल्यों के साथ कोई लेना देना है तथा न ही अपनी जिम्मेवारी का कोई एहसास है। जोड़-तोड़ राजनीति स्वतंत्रता से ज्यादा मौकाप्रस्ती का परिणाम है। ‘पार्टी में शामिल होकर मंत्री बनें’ के शीर्षक ने दलबदल की राजनीति को बढ़ावा दिया है। मौजूदा हालात यह हैं कि राजनीति तमाशा व बेशर्मी के जीवन का रूप धारण कर गई है। कर्नाटक जैसा ड्रामा लगभग हर राज्य में नजर आने लगा है। राजनीति का कमर्शियल रूप लोकतंत्र को बर्बाद कर रहा है, जहां लोक शब्द को अनदेखा कर चुनावों को तंत्र पर कब्जे की सीढ़ी बना लिया गया है। लोगों ने ही लोकतंत्र को मजबूत बनाना है। जनता को नेताओं के असली चाल-चरित्र को देखकर चुनने की आदत डाली होगी।
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