जितनी चीजें बदलती हैं उतनी वे यथावत रहती हैं। हम हमेशा अपने नेताओं के नाज नखरे देखते हैं। वे किसी भी नियम का पालन नहीं करते हैं। वे कानून द्वारा शासन करते हैं और अपने आप में कानून हैं। उनका कोई पहचान पत्र नहीं देखता, जांच पड़ताल नहीं होती तथा उनकी गाड़ी में बंदूकधारी बॉडीगार्ड हमेशा रहते हैं और वे अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए वे रेड लाइट भी जंप कर देते हैं और यदि उनसे कोई प्रश्न पूछे तो इन्हें उनके गुस्से का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। उनका कहना है मैं वीआईपी हूं, तुम कौन हो?
वीआईपी की इस नई जमात में आपका स्वागत है। पिछले सप्ताह हमें इन वीआईपी के दो कारनामे देखने को मिले। भाजपा के दिग्गज नेता और महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के बेटे और इंदौर के विधायक आकाश विजयवर्गीय ने नगर पालिका अधिकारी की क्रिकेट बैट से पिटायी की। अधिकारी का दोष यह था कि वह एक असुरक्षित भवन को गिराने के लिए जा रहे थे और आकाश विजयवर्गीय उसका विरोध कर रहा था। उनके समर्थक इसे सेब नेता कहते हैं हालांकि मोदी ने ऐसे व्यवहार की निंदा की और अब आकाश को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है। दूसरा कारनामा महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे के बेटे और कांग्रेस विधायक नीतेश राणे ने एक इंजीनियर की पिटायी की, उसे सड़कों पर घुमाया तथा एक पुल के पिलर से बांधकर उस पर कीचड़ डाला। अपने इस कारनामे पर राणे कहते हैं कि उन्होंने तो केवल अधिकारियों द्वारा काम न करने की शिकायत पर कार्यवाही की ताकि आगे से ऐसा न हो। इन दोनों मामलों में दोषी नेताओं में कोई पश्ताताप की भावना नहीं थी और यह उनकी वीआईपी सोच को बताता है कि हम खास हैं।
ये लोग अपने चमचों अपनी मुफ्त में मिलने वाली सुविधाओं और विशेषाधिकारों का प्रयोग कर शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। दोनों मामलों में आम आदमी नेताओं से नाराज है जो पहले ही महंगाई, बेरोजगारी आदि से जूझ रहा है और पूछ रहा है कि क्या हमारा गरीब देश ऐसे नेताओं को वहन कर सकता है। क्या हमारे नेता वास्तव में इस अतिरिक्त महत्व के हकदार हैं? अधिकतर नेता अपनी जिम्मेदारी को ईमानदारी और सम्मानजनक ढंग से पूरा नहीं करते हैं। क्या हमारे नेता असली भारत की वास्तविकता को जानते हैं जिसकी सुरक्षा की वे कसमें खाते रहते हैं? क्या वे इसकी परवाह करते हैं? क्या शक्ति के ये प्रतीक संविधान में वर्णित हमारे गणतंत्र की मूल विशेषताओं के विपरीत नहीं हैं? क्या यह जनता द्वारा, जनता के लिए और जनता के लोकतंत्र के विपरीत नहीं है?
21वीं सदी में आज हमारे सत्तारूढ नए महाराजा, मंत्री, सांसद, विधायक अभी भी 19वीं सदी के शक्ति के प्रतीकों को पकड़े हुए हैं और उनमें अभी भी कुछ लोग अन्य लोगों से अधिक समान होते हैं कि औरवेलियन डिसआर्डर तथा हमेशा और मांगने के ओलिवर के रोग से ग्रस्त हैं। कुछ लोग इसे ओरवेलियन सिंड्रोम कहकर नकार देंगे किंतु हमारी वीआईपी संस्कृति औपनिवेशिक और सामंती सोच का परिणाम है और ये वीआईपी सभी जगह उपलब्ध हैं और वे हमेशा अपने हक के लिए आगे आते रहते हैं। वे हमेशा अपनी शक्ति और संसाधनों का दुरूपयोग करते हैं और उनकी हर कीमत पर रक्षा करते हैं। इन नए महाराजाओं की सूची में मंत्री, सांसद, विधायक, अपराधियों से राजनेता बने नेता और उनके सगे संबंधी हैं।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नेताओं को विशेषाधिकार मिलने चाहिए किंतु ये नेता भूल जाते हैं कि ये विशेषाधिकार उनके पद के साथ जुड़े हुए हैं न कि उनके व्यक्तिगत लाभ के लिए। दुनिया भर के देशों में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री, मुख्यमंत्री, अध्यक्ष आदि को संरक्षण मिला हुआ है। किंतु साथ ही लोकतांत्रिक सरकार में कानून के समक्ष नागरिकों की समानता भी सर्वोपरि है अैर इसमें लिंग, आयु, जाति, धर्म, राजनीति, आर्थिक स्थिति आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता है। औपनिवेशिक, सामंती व निरंकुश शासनों के विपरीत लोकतंत्र में सभी नागरिकों पर कानून समान रूप से लागू होते हैं तथा राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित कोई भी जनसेवक कानून से ऊपर नहीं होता है। किंतु लगता है आज हम ऐसे भारत में रह रहे हैं जहां पर वीआईपी महत्वपूर्ण है और ये लोग एक पतली सी आधिकारिक पट्टी पर रहते हैं। यहां पर आम आदमी और खास आदमी के बीच गहरी खाई है जिसके चलते शासकों के प्रति लोगों में हताशा बढ रही है और लोग उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते हैं।
हमारे नए महाराजाओं के लिए उनकी वीआईपी सुविधाओं में कटौती को वे अलोकतांत्रिक मानते हैं। जबकि यह वीआईपी का विचार समानता के सिद्धान्त के विपरीत है। जब ब्लैक कैट कमांड़ो और पुलिस संरक्षण प्रतिष्ठा के प्रतीक बन जाते हैं और जब ये सुविधाएं आम नागरिक की गरिमा की कीमत पर दी जाती हैं तो फिर इनको चुनौती देना स्वाभाविक है। लोकतंत्र में क्या आप जानते हैं मैं वीआईपी हूं जैसे वाक्यांश अप्रचलित होने चाहिए और एक अरब से अधिक जनता को अन्नदाता का आज्ञाकारी नहीं माना जाना चाहिए। विडंबना देखिए।
जिन नेताओं को जनता की सेवा के लिए चुना जाता है वही नेता जनता को अपने तक पहुंचने नहीं देते हैं। इसके विपरीत विकसित लोकतंत्रों में लोक सेवकों पर कानून के समक्ष समानता का सिद्धान्त लागू होता है। अमरीका में वर्तमान राष्ट्रपति के अलावा अन्य सभी लोगों की सुरक्षा जांच होती है। लोक सेवक स्वयं अपनी कार चलाते हैं, लोागें से मिलते हैं, रेस्टोरेंट जाते हैं और आम आदमी से घुल मिल जाते हैं। ब्रिटेन में मंत्री, सांसद तथा अन्य वीआईपी आम आदमी की तरह रेलगाड़ी में यात्रा करते हैं और कोई भी उन्हें सीट देने की परवाह नहीं करता है। जबकि भारत में एक मुख्यमंत्री 35 कारों के काफिले में सफर करता है। स्वीडन में कानूनों का सख्ती से पालन किया जाता है और वहां पर पदानुक्रम को महत्व नहीं दिया जाता है। वहां पर हर किसी को समान माना जाता है। राजा को छोड़कर कंपनी के मुख्य अधिकारी से लेकर सफाईकर्मी सब बराबर माने जाते हैं। न्यूजीलैंड में हाल ही में प्रधानमंत्री के ड्राइवर को ओवर स्पीडिंग के लिए पकड़ा गया और उस पर कानूनी कार्यवाही की गयी।
स्पष्ट है कि हमारे नेताओं को जो हुकुम सरकार की संस्कृति को छोड़ना होगा और अपने विशेषाधिकारों और वित्तीय सुविधाओं को छोड़ देना होगा। इससे उन्हें मेरे भारत महान की वास्तविक स्थिति का पता चलेगा और वे यह समझ पाएंगे कि जब वीआईपी नियमों को तोड़ते हैं, उड़ानों और रेलगाड़ियों में सीटों पर कब्जा करते हैं तो आम आदमी को कितनी परेशानी होती है। हमारे नेतागणों को यह भी समझना होगा कि वे अपने वीआईपी के तमगे का प्रदर्शन नहीं कर सकते हैं। आज नई पीढी सजग है। लोकतंत्र सभी के लिए स्वतंत्रता के बुनियादी सिद्धान्त पर आधारित है और अब वे दिन लद गए जब नेताओं का सम्मान किया जाता था। आज तो उन्हें भारत की हर समस्या का कारण माना जाता है।
इस स्थिति में सरलता और किफायत एक दिवास्वप्न की तरह है। इसलिए समय आ गया है कि हमारे शक्तिशाली और प्रभावशाली नेता इस वास्तविकता को समझें। यदि वे नहीं बदले तो वे अप्रासंगिक बन जाएंगे। कुल मिलाकर उन्हें अपने औपनिवेशिक हैंग ओवर से बाहर आना होगा। हमें केवल दिखावा नहीं चाहिए। अब देखना यह है कि क्या हमारे नेता अपनी महाराजा की जीवन शैली जारी रखते हैं और केवल प्रतीक के लिए हम तो जनता के सेवक हैं अपनाते हैं।
-पूनम आई कौशिश
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