एक देश एक चुनाव के मुद्दे पर पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी दलों के अध्यक्षों के साथ मीटिंग बुलाई थी। 21 राजनीतिक दलों ने प्रधानमंत्री द्वारा आयोजित इस विमर्श में प्रतिभाग किया था।एक साथ चुनाव के पक्ष में तर्क है कि यह धन, समय और ऊर्जा की बचत के लिहाज से अच्छा कदम है। कुछ ऐसे दल हैं जो इसके खिलाफ हैं और उनका कहना है कि यह प्रक्रिया संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। हालांकि करीब ढाई दशक पूर्व भाजपा के शीर्षस्थ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस विमर्श का सूत्रपात किया था, लेकिन आज यह ज्वलंत मुद्दा बन चुका है, क्योंकि चुनाव बेहद महंगे होते जा रहे हैं। विश्व में स्वीडन, इंडोनेशिया, साउथ अफ्रीका, जर्मनी, स्पेन, हंगरी, पोलैंड, बेल्जियम, स्लोवेनिया और अल्बानिया आदि देशों में एक साथ चुनाव की प्रक्रिया ही लागू है। ये पिछड़े और अलोकतांत्रिक राष्ट्र नहीं हैं। भारत जैसा संघीय और विविधता वाला देश औसतन चुनावी मुद्रा में ही रहता है। आर्थिक बोझ के अलावा, सुरक्षा बलों की बढ़ती तैनाती और शिक्षक आदि सरकारी कर्मचारियों की चुनाव ड्यूटी उन्हें अपने बुनियादी दायित्वों से दूर रखती है। अंतत: देश का आम नागरिक ही प्रभावित होता है। आम तौर पर भारतीय चुनावों के बारे में एक बात कही जाती है कि चुनाव खर्च बहुत अधिक है। 2014 के लोकसभा चुनावों के आयोजन में कुल 3,426 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। हालांकि, स्पष्ट तौर पर हर खर्चे को जोड़ लिया जाए तो यह आंकड़ा करीब 35,000 करोड़ है।
हालिया लोकसभा चुनाव में 6500 करोड़ रुपए खर्च होने का अनुमान है। यह ज्यादा भी हो सकता है। एक और अध्ययन सामने आया है कि 29 राज्यों और दो संघशासित क्षेत्रों की 4033 विधानसभा सीटों पर चुनाव के लिए औसतन 40,033 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। एक साथ चुनाव कराने से पैसों की बचत होगी और चुनाव प्रचार और तैयारियों में होनेवाले खर्च में भी कमी आएगी। एक तर्क यह भी दिया जाता है कि एक साथ चुनाव का फायदा होगा कि सरकारें विकास कार्यों पर अधिक से अधिक ध्यान लगा सकेगी और बार-बार होनेवाले चुनावों पर ध्यान नहीं देना होगा।
भारत में लोकसभा के साथ विधानसभाओं के चुनाव पहले कई बार हो चुके हैं। 1951-52, 1957, 1962 और 1967 में राज्य विधानसभा चुनावों का आयोजन लोकसभा चुनाव के साथ ही हुआ था। दुनिया के कई और देशों में भी एक साथ चुनाव का आयोजन किया जाता है। इसी साल इंडोनेशिया में राष्ट्रपति चुनावों के साथ ही लोकसभा चुनाव का भी आयोजन किया गया। दरअसल हम इस निष्कर्ष पर एकदम नहीं पहुंचना चाहते कि केंद्र और सभी 29 राज्यों, संघशासित क्षेत्रों में चुनाव एक साथ ही कराए जाएं। मुद्दा राष्ट्रीय विमर्श का है। उसकी शुरूआत हुई है, तो सभी दलों को अपना विचार रखने के लिए उसमें शिरकत करनी चाहिए। यदि किसी ने ऐसी बैठक का विरोध और बहिष्कार किया है, तो वह इस विमर्श का दुश्मन करार दिया जाना चाहिए। वे दल अपने राष्ट्रीय दायित्व से भाग रहे हैं। सवाल पूछना चाहिए कि कांग्रेस के राहुल गांधी, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी, बसपा की मायावती, सपा के अखिलेश यादव, तेलुगू देशम पार्टी के चंद्रबाबू नायडू, द्रमुक के स्टालिन और आप के अरविंद केजरीवाल ने बैठक का बहिष्कार क्यों किया?
लोकसभा की 543 सीटों पर चुनाव के लिए औसतन 38,018 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते हैं। 2019 के चुनाव में करीब 20 लाख सुरक्षा बल जवानों को ड्यूटी पर तैनात रहना पड़ा। अनुमान यह भी है कि चुनाव खर्च में 1998 की तुलना में 6-7 गुना बढ़ोतरी हुई है। यदि ये तमाम जानकारियां विपक्ष श्वेत पत्र के जरिए प्राप्त करना चाहता है, तो बैठक में इस पक्ष को रखा जाना चाहिए था। बहिष्कार विपक्ष की कोई सकारात्मक राजनीति नहीं है। बेशक इतने खर्च को एक साथ चुनाव का मानदंड न माना जाए, लेकिन इसे एक महत्त्वपूर्ण संविधान संशोधन और बड़े चुनाव सुधार के तौर पर ग्रहण किया जा सकता है। एक साथ चुनाव के विरोध में तर्क दिया जा रहा है कि यह चुनावों से स्थानीय मुद्दों को खत्म करने की साजिश है। इसका असर होगा कि राष्ट्रीय पार्टियों का क्षेत्र विस्तृत होता जाएगा और क्षेत्रीय पार्टियों का दायरा इससे कम होगा। एक साथ चुनाव की स्थिति में स्थानीयता का मुद्दा कम प्रभावी रहेगा और संभव है कि लोग राष्ट्रीय मुद्दों पर ही मतदान करें।
एक देश एक चुनाव के विरोध में भी कई वाजिब तर्क हैं। पैसों की बचत के तर्क के विरोध में कहा जा रहा है कि एक देश एक चुनाव अपने आप में महंगी प्रक्रिया है। लॉ कमिशन का कहना है कि 4,500 करोड़ की कीमत के नए ईवीएम 2019 में ही खरीदने पड़ते अगर एक साथ चुनाव होते। आम तौर पर ईवीएम की उम्र 15 साल मानी जाती है और पुराने ईवीएस मशीनों के स्थान पर नए ईवीएम खरीदने होते हैं। 1,751.17 करोड़ खर्च ईवीएम पर 2024 में करना होगा, 2029 में यह खर्च बढ़कर 2,017.93 होने का अनुमान है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि एक देश, एक चुनाव का विषय एक बड़ा मुद्दा है, जिसे राजनीतिक लाभ-हानि से इतर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत है। उचित होगा कि इस विमर्श में आम जनता की राय को भी शामिल किया जाए।
-डॉ. श्रीनाथ सहाय
Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करे