कुछ दिन पूर्व स्विटजरलैंड की महिलाओं ने लिंग असमानता विशेषकर लिंग के आधार पर वेतन में असमानता के विरुद्ध सामूहिक हड़ताल की। यह हड़ताल महिला श्रमिक संगठनों, महिला अधिकार संगठनों और महिलावादी समूहों ने संयुक्त रूप से की। दु:खद तथ्य यह है कि विश्व के सबसे समृद्ध देश की आधी जनसंख्या को अपने अधिकारों की समानता के लिए जिनेवा की सड़कों पर संघर्ष करना पड़ा। स्विटजरलैंड में कार्य स्थल और घरेलू जीवन में लिंग के आधार पर भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष निरंतर जारी है। स्विटजरलैंड में फरवरी 1971 में एक जनमत संग्रह के आधार पर संघीय चुनावों में महिलाओं को मतदान का अधिकार दिया था। इससे पूर्व 1959 में जनमत संग्रह में इस मांग को ठुकरा दिया गया था।
वर्तमान में यह विरोध प्रदर्शन 30 वर्ष बाद हो रहा है और ये समूह लिंग असमानता के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं। स्विटजरलैंड में 1995 में लिंग समानता अधिनियम पारित किया गया था जिसमें लिंग के आधार पर भेदभाव और कार्य स्थल पर यौन उत्पीड़न का निषेध किया गया है। यूरोप में स्विटजरलैंड ऐसा देश है जहां पर सर्वाधिक महिलाएं कार्यरत हैं। किंतु खबरों के अनुसार स्विटजरलैंड में महिलाओं को अभी भी पुरूषों की तुलना में 20 प्रतिशत कम वेतन दिया जाता है। समान योग्यता वाले कामगारों में भी महिला और पुरूषों के वेतन में 8 प्रतिशत का अंतर है और लगभग यूरोप के सभी देशों में यही स्थिति है। भारत में भी स्थिति इससे अच्छी नहंी है। मांस्टर सैलरी इंडेक्स के अनुसार वर्तमान में भारत में महिलाओं को पुरूषों की तुलना में 19 प्रतिशत कम वेतन दिया जाता है जबकि 2016 में यह अंतर 27 प्रतिशत का था। सूचना प्रौद्योगिकी और संबंधित सेवाओं में यह अंतर 26 प्रतिशत और विनिर्माण क्षेत्र में 24 प्रतिशत है। यहां तक कि स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं में भी यह अंतर 21 प्रतिशत का है। इसका अपवाद केवल बैंकिंग, बीमा और वित्तीय सेवाएं हैं जहां पर यह अंतर
अब मात्र 2 प्रतिशत रह गया है। विज्ञान और शैक्षणिक क्षेत्रों में वेतन में असमानता है। सभी देशों में उच्च शिक्षा क्षेत्र में महिला कर्मियों की संख्या में कमी आयी है।
लिंग के आधार पर भेदभााव का गरिमापूर्ण कार्य और मानव विकास पर सीधा प्रभाव पड़ता है। विश्व श्रमिक संगठन की 2016 की रिपोर्ट के अनुसार विश्व में महिलाओं को पुरूषों के औसत वेतन से लगभग 23 प्रतिशत कम वेतन दिया जाता है और इसका योग्यता, कौशल प्रतिभा आदि से कोई सरोकार नहंी है। इंडिया वेज रिपोर्ट के अनुसार कम वेतन और मजदूरी एक गंभीर चुनौती बनी हुई है। विश्व श्रमिक संगठन की 2018-19 की वैश्विक मजदूरी रिपोर्ट के अनुसार इससे दैनिक मजदूरी करने वाली महिलाएं सर्वाधिक प्रभावित हुई हैं। भारत में महिला कामगार सामान्यतया श्रमिक समूहों में सक्रिय नहीं हैं। इसलिए उनकी सौदेबाजी की शक्ति कम रहती है। श्रमिक संघ भी महिलाओं के मुद्दों को नहीं उठाते हैं। महिला कामगार अपने अधिकारों और हितों तथा लिंग के आधार पर भेदभाव के मुद्दों के लिए महिला कार्यकतार्ओं, गैर- सरकारी संगठनों और राजनीतिक दलों पर निर्भर रहती हैं और उन्हें अपने अधिकारों की समानता के लिए अक्सर न्यायालय की शरण में जाना पड़ता है।
हमारे देश में कुछ व्यवसायों में अभी भी लिंग के आधार पर भेदभाव होता है और इससे लिंग के आधार पर मजदूरी में असमानता बढती है। अर्ध-कुशल या कम कुशल रोजगारों में सामाजिक सुरक्षा का प्रावधान नहंी है और इससे सर्वाधिक प्रभावित महिला कामगार हैं क्योंकि वे अभी तक कम कुशल रोजगारों में नियोजित हैं। कार्य स्थल पर लिंग के आधार पर भेदभाव को दो शब्द परिभाषित करते हैं और ये शब्द हैं ग्लास सीलिंग और स्टिकी फ्लोर। कार्य स्थल पर लिंग के आधार पर वेतन में अंतर का मुख्य कारण यह है कि महिलाओं की आय को परिवार में पूरक आय माना जाता है। साथ ही महिलाओं को घर के सारे कामकाज करने की जिम्मेदारियां भी दी गयी हैं और यदि घर में कोई कार्य हो तो उसके लिए छुट्टियां महिलाओं को लेनी पड़ती है न कि पुरूषों को और यह बताता है कि महिला कामगार पुरूष कामगारों की पूरक हैं।
अध्ययनों से यह भी पता चला है कि महिलएं कम मेहनती कार्यों और कार्य दशाओं में छूट के बदले कम वेतन लेने के लिए तैयार रहती हैं। इसलिए लिंग के आधार पर वेतन में असमानता का मुद्दा केवल श्रमिक समस्या नहंी है अपितु एक सामाजिक मुद्दा है। लिंग के आधार पर भेदभाव हमारी परंपराओं, प्रथाओं, आदि में व्याप्त है और इसमें बदलाव रातों रात नहंी हो सकता है। इससे महिला कामगारों पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा। हमें पारिवारिक जिम्मेदारियों में भागीदारी भी निभानी होगी। यह संघर्ष कार्य स्थल और घरों में लिंग के आधार पर अनुचित भेदभाव के विरुद्ध है। इसलिए महिलाओं की स्थिति के बारे में हमारी सोच में पूर्ण बदलाव की आश्यकता है। वेतन की समानता समान लोगों के बीच होती है अअर्थात समान रूप से उपलब्ध और समान रूप से उपयुक्त लोगों की। समाज को महिलाओं के मार्ग में पितृ सत्तात्मक विचारों द्वारा थोपी गयी और सांस्कृतिक मूल्यों की आड़ में लागू की गयी अड़चनों को दूर करना होगा।
-डॉ. एस. सरस्वती
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