कर्नाटक में कांग्रेस व जनता दल के गठबंधन पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। जेडयू नेता देवगौड़ा ने राज्य में समय से पहले विधानसभा चुनाव करवाने के संकेत दिए हैं। यह संकेत न केवल जेडीएस बल्कि कांग्रेस के लिए भी घातक सिद्ध हो सकता है। लोकसभा चुनावोें में करारी हार के बाद कांग्र्रेस को उत्तरी भारत के चार राज्यों से आॅक्सीजन मिल रही है। जिसके तहत पार्टी अपने खोए हुए आधार को बचाने के लिए कोई नया राजनीतिक प्रयोग कर अपना सकती थी। कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी भाजपा है व नए समीकरणों के बलबूते पर भाजपा जीत का परचम लहरा सकती है। यदि जेडीएस से कांग्रेस की अनबन होती है तब सरकार गिराने सहित जेडीएस के पास भाजपा के साथ जाने का भी विकल्प है।
कर्नाटक हाथ से चले जाने के बाद कांग्रेस दक्षिण से भी हाथ धो बैठेगी। केन्द्र में निरंतर दस वर्ष तक गठबंधन सरकार चलाने वाली कांग्रेस को कर्नाटक में भी गठबंधन की वास्तविक्ता को स्वीकार करना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सरकार ने शुरूआती महीनों में मुख्यमंत्री कुमार स्वामी गठबंधन सरकार की तुलना जहर पीने के समान कर अपनी स्थिति को संदेहास्पद बना लिया था। यूं तो इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि कर्नाटक राजनीतिक नौटंकी में चर्चा बना रहा है। आजकल हर पार्टी के नेता किसी भी समय दल बदलने में माहिर हैं।
कुछ भी हो यदि मध्यकालीन चुनाव होते हैं, तो राज्य के साथ-साथ देश पर भी आर्थिक बोझ बढ़ेगा। दर्जनों के करीब राज्यों में गठबंधन की सरकारें हैं, भले ही कई राज्यों में गठबंधन की सरकार नहीं लेकिन वहां भी इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। यदि साल दो साल बाद गठबंधन टूटने लगे तब सहयोगी दलों में अवसरवादिता बढ़ जाएगी व राजनीतिक अस्थिरता को बल मिलेगा। कांग्रेस को गठबंधन की राजनीति को स्वीकार कर राज्य के लोगों की भावनाओं का ध्यान रखना होगा। जनता भी मध्यकालीन चुनावों को बर्दास्त नहीं करती। संसदीय एवं विधानसभा चुनावों पर अरबों रुपए खर्च होते हैं, जो देश के हित में नहीं। राजनीतिक पार्टियों को अपने हितों को साधने की बजाए लोगों के हितों को प्राथमिता देनी चाहिए। राज+नीति बेहतर शासन देने की राजनीति होनी चाहिए, यह केवल सत्ता हासिल करने की नीति न बने।
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