विदेश नीति का मजबूत चेहरा: एस. जयशंकर

Strong face of foreign policy: S. Jayashankar

पूर्व विदेश सचिव और राजनयिक एस.जयशंकर को विदेश मंत्री नियुक्त कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक तरह से इस बात का संकेत दे दिया है कि आने वाले दिनों में भारत विदेश नीति के कई मोर्चों पर एक साथ आगे बढ़ेगा। इससे पहले अपने शपथ ग्रहण समारोह में बिम्सटेक देशों के अलावा मॉरीशस और किर्गीस्तान के शासनाध्यक्षों को आमंत्रित कर उन्होंने दिखा दिया है कि पिछले कार्यकाल की तरह अपनी नई पारी में भी वर्ह नेबर फर्स्ट की नीति पर तो आगे बढे़ंगे, साथ ही दक्षिण पूर्वी देशों व हिंद महासागर क्षेत्र में भी भारत के प्रभाव को स्थापित करना चाहेंगे।

मोदी यह भी जानते हैं, कि विदेश नीति के इस बहु आयामी मोर्चे पर भारत तभी मजबूती से आगे बढ़ सकेगा जब वह अमेरिका, चीन और रूस जैसी महाशक्तियों को साध कर चलेगें। निश्चित ही पीएम मोदी बदलते वैश्विक हालात में विदेश नीति का जो खाका तैयार कर रहे हंै, उसमें रंग भरने के लिए एस. जयशंकर जैसे काबील राजनयिक का विदेश मंत्रालय में होना जरूरी है। हालांकी पीएम मोदी के पिछले कार्यकाल के दौरान भारत और अमेरिका के बीच संबंध लगभग अच्छे ही रहे हैं, लेकिन बीते कुछ महीनों में दोनों देशों के बीच दूरियां बढी है। ईरान से तेल आयात किये जाने व रूस से एस-400 हथियारों की खरीद के सौदे के लोकर भारत अमेरिकी रिश्ते में गतिरोध बना हुआ है। भारत ने गत दिनों एस-400 मिसाइल सिस्टम की खरीद के लिए रूस के साथ 40 हजार करोड़ का सौदा किया है। ट्रंप आरंभ से ही इस सौदे के खिलाफ रहे हैं। उनका कहना है कि अगर भारत इस सौदे पर आगे बढ़ता है तो उस पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। अमेरिका ने रूस से हथियारों की खरीद को रोकने के लिए काउंटरिग अमेरिका्ज एडवर्सरीज थ्रू सेंक्शस एक्ट ( काट्सा) लागु कर रखा है। इस कानून के आधार पर अमेरिका भविष्य में भारत को तकनीकी सहयोग देने से इंकार कर सकता है। भारत-अमेरिका के बीच कॉम्बैट एयरक्राफ्टपर और हथियारों के समझौते पर बात चल रही है।

देश के प्रमुख सामरिक विश्लेषक दिवंगत के. सुब्रमण्यम के पुत्र एस.जयशंकर ने 1977 में भारतीय विदेश सेवा को ग्रहण किया और लंबे समय तक सिंगापुर, चीन और अमेरिका में उच्चायुक्त रहे। परमाणु कूटनीति में डॉक्टरेट ले चुके डॉक्टर जयशंकर की साल 2007 में मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार के समय भारत-अमेरिका के बीच हुई परमाणु संधि में अहम भूमिका थी। सिंतबर 2013 में जब निरूपमा राव की जगह जयशंकर को अमरीका में भारत का राजदूत नियुक्त किया गया था उस समय भारतीय राजनयिक देवयानी खड़बगे का मामला सुर्खियों में था।

जयशंकर ने उस वक्त पूरे आत्मविश्वास व मजबूती के साथ भारत का पक्ष अमेरिकी नेतृत्व के सामने रखा और देवयानी के मामले में दोनों देशों के बीच उत्पन्न हुए गतिरोध को दूर करने में सफलता हासिल की। जनवरी 2015 में जिस वक्त सुजाता सिंह को हटाकर जयशंकर को विदेश सचिव नियुक्त किया गया था उस वक्त भी सरकार के फैसले को लेकर आलोचना हुई । लेकिन पीएम नरेन्द्र मोदी की अमेरिका यात्रा और मोदी-ओबामा वार्ता की सफल पटकथा लिखकर जयशंकर ने आलोचकों का मुंह बंद कर दिया। पद्मश्री से सम्मानित एस. जयशंकर ने साल 2017 में भारत-चीन के बीच उत्पन्न डोकलाम विवाद के समय कूटनीतिक संजीदगी का परिचय देते हुए शांतिपूर्ण ढंग से मामले को हल किया।

सिक्किम सेक्टर के डोकलाम में भारतीय सैनिकों द्वारा चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को इस क्षेत्र में सड़क निर्माण करने से रोक दिये जाने के बाद दोनों देशों के बीच तनाव बढ गया था। 50 से अधिक दिनों तक भारत और चीन के सेनिक डोकलाम में आमने-सामने तने रहे। अतंत: जयशंकर ने चीन को दो टूक शब्दों में चेताते हुए कह दिया कि चीनी सेना कदम पिछे नहीं हटाती है तो उनके नेता केक्यांग के भारत दौरे को रद्ध कर दिया जाएगा। भारत की इस कूटनीतिक पटकनी का असर यह हुआ कि डोकलाम क्षेत्र से चीन को अपने कदम पिछे हटाने पड़े।

देखा जाए तो विदेश मंत्री के रूप में एस. जयशंकर का कार्यकाल चुनौतियों के साथ ही शुरू होने वाला है। जून के अंत में जापान में जी-20 की शिखर बैठक होनी है। इस बैठक से इतर पीएम मोदी और राष्ट्रपति टंज्प की मुलाकात भी होेगी। ऐसे में भारत यह जरूर चाहेगा कि जिन मुद्दों को लेकर भारत-अमेरिकी संबंधों में तनाव है, उनके हल खोज लिए जाए। इससे पहले अमेरिकी विदेशमंत्री माइक पॉम्पियों भारत आ रहे हैं। कुल मिलाकर जयशंकर को कम समय में ज्यादा होमवर्क करना होगा। नवनियुक्त विदेश मंत्री के सामने एक ओर बड़ी चुनौती पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते बेहतर बनाने की होगी। हालांकी बांग्लादेश, श्रीलंका, भुटान व अफगानिस्तान के साथ भारत के रिश्ते हमेशा से ही अच्छे रहे हैं।

लेकिन नेपाल में चीन समर्थक के.पी.शर्मा ओली के सत्ता में आने के बाद नेपाल में भारत के प्रभाव को बनाये रखने के लिए उन्हें अतिरिक्त मशक्त करनी पड़ेगी। पाकिस्तान के साथ भारत के संबंध जग जाहीर है। जयशंकर की असल परीक्षा पाकिस्तान के साथ संबंधों को पटरी पर लाने में होगी। अगर वह ऐसा कर पाते हैं तो निसंदेह उनका कार्यकाल ऐतिहासिक होगा। 13-14 जून को किर्गिस्तान की राजधानी बिश्केक में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की वार्षिक बैठक होनी है। पाकिस्तान भी एससीओ का सदस्य है।

रविश ने स्पष्ट कर दिया है कि एससीओ समिट के दौरान पीएम मोदी और पाकिस्तान के पीएम इमरान खान के बीच बैठक का कोई कार्यक्रम नहीं है। मालदीव में अब भारत की स्थिति ठीक है। नव निर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहीम मोहम्मद सोलिह भारत समर्थक हंै। पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के समय मालदीव में भारत का प्रभाव लगभग खत्म हो चुका था और मालदीव पूरी तरह से चीन की गोद में चला गया था। यामीन ने एक के बाद एक ऐसे कदम उठाये जो किसी न किसी रूप में भारत को असहज करने वाले थे। मालदीव में नई सरकार आने के बाद से मोदी वहां नहीं गए हैं।

इस लिए पीएम मोदी ने अपनी नई पारी के पहले विदेशी दौरे की शुरूआत मालदीव से की हैं। कुल 36 साल का राजनयिक अनुभव रखने वाले 64 वर्षिय जयशंकर के बारे मे कहा जाता है कि वह विदेश नीति की बारिकीयों को बखुबी पहचनाते हैं, इसलिए समस्याओं का समाधान उनके लिए मुश्किल नहीं है। जेएनयू से राजनीति विज्ञान में एम.ए और वहीं से अंतरराष्ट्ररीय संबंध में एम.फिल और पीएचडी की डिग्री लेने वाले एस. जयशंकर को विदेशमंत्री की जिम्मेदारी दिए जाने से साफ हो गया है आने वाले दिनों में भारत वैदिक मोर्चे पर कई बडे़ निर्णय ले सकता है। महाशक्तियों से संबंध सुधारने और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मित्रों को बढानें की जिस नीति पर नरेन्द्र मोदी सरकार आगे बढ रही है, निसंदेह उसमें मृदुभाषी और अनुभवी जयशंकर काफी महत्वपूर्ण होंगे।
एन.के. सोमानी

 

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