Tribhasha Sutra: विश्व में 6809 भाषाएं बोली जाती हैं। उनमें से 1600 से अधिक भाषाएं भारत में बोली जाती हैं। वर्ष 1971 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार भारत में केवल 20 से 22 भाषाएं ही नहीं बल्कि 1632 भाषाएं बोली जाती है। भारत में भिन्न-भिन्न स्थानों पर विभिन्न भाषाएं प्रचलित हैं। इसलिए भारत में भाषाओं के बारे में कहा भी जाता है- ‘घाट घाट पर बदले पाणी, कोस कोस पर वाणी।’ भाषाई महत्ता के कारण भारतीय संविधान में भी 22 भाषाओं को स्थान मिला है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के प्रारूप में इस समय भाषा शिक्षण को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर संवाद और बहस जारी है। दक्षिण भारतीय राज्यों में हिंदी भाषा को थोपने के आरोप लगाए जा रहे हैं। प्रत्युत्तर में किसी पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी के स्पष्टीकरण दिए जा रहे हैं। इस समय देश की स्कूली शिक्षा में भाषा शिक्षण के लिए एक सार्थक संवाद शुरू हो गया है।
इस संदर्भ में वर्ष 1964 – 66 में कोठारी कमीशन ने ‘त्रि-भाषा फामूर्ला’ दिया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 और नई शिक्षा नीति 1986 ; संशोधित शिक्षा नीति 1992 से होते हुए त्रिभाषा सूत्र ‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा – 2005’ में भी प्रमुखता से रेखांकित किया गया। जो अब ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2019 प्रारूप’ में भी उठाया गया है। वास्तव में हर एक भाषा महत्वपूर्ण होती है और उस भाषा में विराट ज्ञान के तत्व होते हैं। किसी भी भाषा को कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। भाषा सीखने व शोध करने से लेकर नए आविष्कार रचने में मुख्य भूमिका एवं माध्यम के रूप में काम करती है।
भाषा हर व्यक्ति का प्राण तत्व है। यह हर एक व्यक्ति के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण ही होती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए ‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा-2005’ में भाषा की महत्ता प्रकट की। लिखने, बोलने, सुनने एवं पढ़ने की भाषिक क्षमताएं स्कूल के सभी विषय और अनुशासनों के शिक्षण से विकसित हों। बच्चों के ज्ञान निर्माण में भाषा के बुनियादी महत्व को आवश्यक रूप से समझें और त्रिभाषा फार्मूला को लागू करने की बेहतर योजना बनाई जाए। यहां तक कि बच्चों की घरेलू भाषाओं और मातृ भाषाओं को शिक्षण के माध्यम के रूप में स्थाई मान्यता दें और जरूरत होने पर उनमें आदिवासी भाषाएं भी सम्मिलित करें। अंग्रेजी को अन्य भारतीय भाषाओं के बीच स्थान दिए जाने की आवश्यकता है। भारतीय समाज के ‘बहु-भाषिक प्रकृति’ को संसाधन के रूप में देखे जाने की बात कही गई।
कमोबेश इन्हीं बातों को लेकर ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2019’ के प्रारूप में भी मातृभाषा और स्थानीय भाषा को महत्व दिया गया। शिक्षा में भाषा की बहुभाषिकता को भाषाई शक्ति समझकर सीखने-सिखाने के रूप में काम में लेने की वकालत की गई। सर्वविदित है कि जो व्यक्ति जितनी अधिक भाषाएं जानता है; वह उतना ही ज्यादा सफल और उतना ही ज्यादा बौद्धिक परिपक्व होता है। हमारे देश के कई नागरिक दुनिया के अनेक देशों में अपने-अपने ढंग से विशिष्ट रूप से सफल होकर काम कर रहे हैं; उनमें सफलता का सबसे बड़ा कारण उनकी बहुभाषी संस्कृति व समृद्धि भी है। अत: मातृभाषा से लेकर अंतरराष्ट्रीय भाषाओं के बारे में अच्छी समझ होनी आवश्यक है। स्कूली शिक्षा में ‘त्रिभाषा सूत्र’ को फलीभूत किया जाना जरूरी होगा।
बच्चे की पहली भाषा – मातृभाषा अथवा क्षेत्रीय भाषा ही होना चाहिए। उसी में अधिगम की प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए। दूसरी भाषा – देश की भाषा या अन्य भारतीय परिवार भाषाएं जो हमारे देश में बोली जाती है। हिंदी अथवा हर एक राज्य अपनी जरूरत के अनुसार देश के अन्य राज्यों में बोली जाने वाली अथवा देश में बोली जाने वाली अन्य भाषाओं के अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था कराएं।
तीसरी भाषा के रूप में अंतरराष्ट्रीय भाषा के तौर पर अंग्रेजी अथवा और अन्य कोई भी भाषा सिखानी चाहिए। अगर ‘त्रिभाषा-सूत्र’ इस तरह से लागू किया जाए तो यह सबके लिए न्याय पूर्ण होगा। प्रारंभिक समझ से लेकर आविष्कार रचने तक भाषा की भूमिका बेहद प्रभावी बनकर निकलेगी। सच तो यह है कि हर एक व्यक्ति को कम से कम तीन-चार भाषाएं सीखना-समझना जरूरी समझा जाना चाहिए। हर एक छोटी से छोटी भाषा अथवा बोली में अकूत ज्ञान भरा हुआ है। जरूरत है हमें हर भाषा से उस ज्ञान को ग्रहण कर अपने जीवन में उतारने की। बहुभाषिक संस्कृति के विराट स्वरूप को समझकर उसके संसाधनों से हमें अपना जीवन बेहतर बनाना ही चाहिए।
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