अमेरिका और चीन के बीच पिछले एक साल से जारी व्यापार युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहा है। ताजा घटना में चीनी उप-विदेश मंत्री ने इसे अमेरिकी आर्थिक आतंकवाद करार दे दिया। अमेरिका ने इस माह चीन की वस्तुओं पर टैरिफ (शुल्क) बढ़ाने के साथ-साथ दूरसंचार की एक प्रसिद्ध कंपनी हूआवे को ब्लैक लिस्ट में शामिल कर दिया था। इस व्यापार युद्ध में दोनों देशों के बीच निरंतर तनाव बढ़ रहा है। भले ही बाहरी रूप में यह व्यापार युद्ध हैं लेकिन आंतरिक रूप से यह कशमकश दोनों देशों को एक दूसरे के खिलाफ सैनिक ताकत बढ़ाने का भी माध्य बन रही है। व्यापार का मनोरथ दूसरे राजनीतिक संबंधों की दिशा तय करने में मुख्य भूमिका अदा करता है। स्वतंत्रता से पूर्व भारत में अंग्रेजी और फ्रांसीसी कंपनियों के बीच युद्ध का कारण आर्थिक हित ही रहे थे। दोनों देश भारत को कच्चे माल की मंडी के तौर पर ईस्तेमाल करना चाहते हैं और आखिर व्यापार में वृद्धि के लिए दोनों ने हथियार उठा लिए।
आर्थिक हितों के लिए अमेरिका व चीन ने एशिया सहित विश्व भर में अपने गुट बना लिए हैं और इन देशों द्वारा अपने-अपने गुट के सदस्य देशों की आर्थिक मदद के साथ साथ राजनीतिक समर्थन भी किया जा रहा है। आतंकवाद के मामले में चीन भारत के खिलाफ पाकिस्तान का समर्थन कर रहा है। सीरिया में अमेरिकी सेना की कार्यवाही का रूस व चीन विरोध करते आ रहे हैं। यही हाल उत्तरी कोरिया व दक्षिणी कोरिया के मामले में है। बड़े देशों के आर्थिक टकराव का नुकसान गरीब व विकासशील देशों को भुगतना पड़ेगा। दरअसल विश्व स्तर पर स्वतंत्र व निष्पक्ष व्यापार नीतियां ही नहीं बन सकी।
अमीर देश अपना माल पूरे विश्व में बेचना चाहते हैं लेकिन बाहर से आने वाले माल पर टैक्स बढ़ाते हैं। व्यापार युद्ध विश्व का आर्थिक संतुलन बिगाड़ेगा, जिससे मंदी व बेरोजगारी जैसी समस्याएं विकसित देशों में पैदा होंगी और इसका प्रभाव विकासशील देशों पर पड़ेगा। यह समय विकासशील देशों के लिए सोच समझकर चलने व मौके की नजाकत को समझने का है। विकासशील देश अमेरिका व चीन किसी भी देश के प्रभाव अधीन रहने की बजाय अपने हितों के अनुसार ठोस निर्णय ले। भारत के लिए यह समय लाभप्रद हो सकता है। यदि चीनी मंडी में अमेरिकी वस्तुओं की मांग घटती है तब भारतीय उत्पाद की मांग बढ़ सकती है। परन्तु विकसित देश इस बात को हजम नहीं करते। विकासशील देशों को दृढ़ता से चलना होगा।
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