पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा के शर्मनाक दौर में कोलकाता विश्वविद्यालय के (strike-the-countrys-spirit-on-the-excuse-to-break-statues) ईश्वर चंद्र विद्यासागर कॉलेज के प्रांगण के बाहर स्थित ईश्वर चंद्र विद्यासागर की प्रतिमा को कुछ लोगों द्वारा जिस प्रकार तोड़ा गया और तोड़ऩे के पश्चात वीडियो क्लीपिंग जारी कर इसका आरोप एक-दूसरे पर मढ़ने की घृणित राजनीति की गई, उससे न केवल पश्चिम बंगाल में बल्कि समूचे देश में हर सभ्य नागरिक का सिर शर्म से झुक गया है।
पिछले कुछ समय से विरोध प्रदर्शनों के बहाने महापुरूषों की मूर्तियों को निशाना बनाए जाने का जो दौर शुरू हुआ है, वह बेहद शर्मनाक है और कम से कम भारतीय लोकतंत्र में तो इस तरह की घटनाओं की स्वीकार्यता कदापि नहीं सकती। बंगाल में ऋषि तुल्य माने जाते रहे ईश्वर चंद्र विद्यासागर की मूर्ति किस राजनीतिक दल के कार्यकतार्ओं ने तोड़ी, यहां सवाल यह नहीं है बल्कि मुख्य प्रश्न यही है कि मावनता एवं समाज की भलाई के लिए अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने वाले महापुरूषों के प्रति इस प्रकार के आक्रोश के क्या मायने हैं? ऐसी तालिबानी हरकतें कर हम दुनियाभर में भारत की कैसी छवि गढ़ रहे हैं?
सन 1820 में पश्चिम बंगाल के घाटल शहर में जन्मे ईश्वर चंद्र विद्यासागर ऐसी महान शख्सियत थे, जिन्होंने के केवल नारी शिक्षा के लिए जन आन्दोलन खड़ा किया था बल्कि उन्हीं के अनथक प्रयासों तथा दृढ़संकल्प के चलते ही ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेज 26 जुलाई 1856 को विधवा विवाह कानून पारित करने को विवश हुए थे तथा विधवाओं को समाज में नए सिरे से जीवन की शुरूआत कर ससम्मान जीने का अधिकार मिला था।
यह कानून पारित होने के तीन माह बाद ही उन्होंने एक 10 वर्षीय विधवा कमलादेवी का विवाह प्रतिष्ठित घराने के एक युवक के साथ कराया, जो बंगाल का पहला विधवा विवाह था। उसके बाद उन्होंने अपने इकलौते बेटे नारायण का विवाह भी एक विधवा के साथ ही सम्पन्न कराया था। अंग्रेजों के शासनकाल में ऐसे किसी कॉलेज की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी, जिसका संचालन पूर्ण रूप से भारतीयों के ही हाथों में हो और जहां पढ़ाने वाले सभी शिक्षक भी भारतीय ही हों किन्तु ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने सन् 1872 में कोलकाता में विद्यासागर कॉलेज की स्थापना कर यह कारनामा भी कर दिखाया था। यही वह कॉलेज है, जहां गत दिनों ईश्वर चंद्र विद्यासागर की प्रतिमा तोड़ी गई।
देश में किसी महापुरूष, समाज सुधारक या बड़ी शख्सियत की मूर्ति तोड़ने या उस पर कालिख पोतने का यह कोई पहला मामला नहीं है बल्कि कुछ समय से लगातार सामने आ रहे इस प्रकार के मामले यह साबित करने के लिए पर्याप्त हैं कि हमारे देश में राजनीति का स्तर कितना नीचे गिर रहा है, जहां विरोध के नाम पर प्रतिमाओं को भी नहीं बख्शा जा रहा है। गत वर्ष 25 दिसम्बर को लुधियाना में अकाली दल के दो नेताओं द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की प्रतिमा पर कालिख पोतने और दोनों हाथों को लाल रंग से रंगने का मामला सामने आया था। यह घृणित कारनामा करने वालों का तर्क था कि 1984 में हुए सिख कत्लेआम में राजीव गांधी की अहम भूमिका थी और उन्हीं के इशारे पर ये दंगे हुए थे, इसलिए उन्होंने प्रतिमा पर कालिख पोती और हाथों को लाल रंग से रंगा।
सिख दंगे मानवता के इतिहास का ऐसा काला अध्याय हैं, जिनकी सदैव निंदा की जाती रहेगी और 34 साल के बेहद लंबे अंतराल बाद ही सही, गत वर्ष अदालत द्वारा भी अपने फैसले में सिख विरोधी दंगों को मानवता के विरूद्ध अपराध करार दिया जा चुका है, ऐसे में विरोध जताने के नाम पर मूर्ति पर कालिख पोतकर तथा मूर्ति के हाथों को लाल रंग से रंगकर लोगों की भावनाएं भड़काने का औचित्य समझ से परे था। ऐसे ओछे हथकंड़े हमारे सभ्य समाज में अमन-चैन और भाईचारे के लिए खतरा ही बनते हैं, इसलिए सहिष्णु भारतीय समाज में इनका कोई स्थान नहीं हो सकता।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर की मूर्ति तोड़े जाने और कुछ माह पूर्व राजीव गांधी की प्रतिमा से की गई बदसलूकी की घटना के अलावा यदि पिछले कुछ समय की कुछ अन्य घटनाओं पर भी नजर डालें तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी, डा. भीमराव अम्बेडकर, पेरियार जैसे समाज के कुछ नायकों की मूर्तियों के साथ भी ऐसी ही बदसलूकी के मामले सामने आते रहे हैं। श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जीवन सदैव निष्कलंक रहा, वहीं डा. भीमराव अम्बेडकर संविधान निर्माता होने के साथ-साथ जीवन पर्यन्त दलितों और पिछड़ों की भलाई के लिए कार्य करते रहे और पेरियार द्रविड़ आन्दोलन के संस्थापक होने के साथ-साथ समाज सुधारक और भारतीय समाज में रूढ़िवाद के खिलाफ योगदान के लिए जाने जाते रहे हैं।
पिछले एक-डेढ़ साल के भीतर बिहार साम्प्रदायिक हिंसा की आग में झुलस चुका है, रामनवमी शोभा यात्रा के दौरान पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और बिहार के कई इलाकों में विभिन्न समुदायों के बीच नफरत, तनाव और हिंसा के भयावह दृश्य देखे जा चुके हैं। विभिन्न स्थानों पर संविधान निमार्ता डा. भीमराव अम्बेडकर की प्रतिमाएं तोड़ने के कई मामले सामने आ चुके हैं, जिनसे तनाव का माहौल बना रहा।
मूर्तियां तोड़ने या कलंकित करने की घटनाएं न तो हमारे लोकतंत्र तथा हमारे संविधान की मूल भावना के अनुरूप हैं और न ही सर्वधर्म समभाव तथा सभी सुखी रहें की मूल भावना पर टिकी हमारी गौरवमयी बहुलतावादी भारतीय संस्कृति, सभ्यता व परम्पराएं हमें इस तरह की हरकतें करने की अनुमति देती हैं। जिस प्रकार मूर्तियों को खण्डित या कलंकित करने के बहाने देश की आत्मा पर प्रहार करने का घृणित सिलसिला शुरू हुआ है, ऐसे में इसे अक्षम्य अपराध की श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिए। आखिर तालिबानी मानसिकता से प्रेरित इस तरह की हरकतें करके हम अपने समाज और राजनीति को किस दिशा की ओर ले जा रहे हैं?
योगेश कुमार गोयल
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