यूपी देश का सबसे बड़ा प्रदेश है। यही प्रदेश करेगा इस लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री के ताज का फैसला। 80 में से 73 सीटें जीतने वाली भाजपा इस बार बेहद मुश्किल में है। यह मुश्किल एक दूसरे की जानी दुश्मन सपा और बसपा के एक होने का कारण हुआ है। यूपी चुनाव में जातीय ध्रुवीकरण सियासत पर हावी हो गया है। यही वजह है की सपा और बसपा में जीत के हिलोरे उठने लगे है। अखिलेश ने घोषित किया है की इस बार यूपी से प्रधान मंत्री होगा। इस पर उन्होंने अपने पत्ते नहीं खोले। बहरहाल यह चुनाव देश की दशा और दिशा को तय करेगा इसमें कोई दो राय नहीं है।
इस समय सम्पूर्ण देश का ध्यान यूपी के लोकसभा चुनाव परिणामों पर केंद्रित हो रहा है। 80 लोकसभा सीटों वाले इस प्रदेश में वर्तमान में चुनावी घमासान अपने चरम पर है। यह लगभग निश्चित है की यूपी चुनाव तय करेगा देश के प्रधानमंत्री का ताज। पिछले चुनाव में भाजपा और सहयोगियों ने 73 सीटें जीत कर आजादी के बाद के सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी यूपी में इतनी अधिक सीटें नहीं ला सके। नेहरू, चंद्र शेखर , इंदिरा गाँधी , राजीव गाँधी हो या चैधरी चरण सिंह या वीपी सिंह अथवा लोहिया कोई भी मोदी जैसी लोकप्रियता यूपी में हासिल नहीं कर पाए। इसे मोदी का करिश्मा ही कहा जायेगा की कांग्रेस केवल दो सीटों पर सीमित होकर रह गई। बसपा साफ हो गई और मुलायम अखिलेश पांच सीटों से आगे नहीं बढ़ पाए। उस चुनाव में जातीय समीकरण भी ढह गए और लोगों ने मोदी पर विश्वास व्यक्त किया। मगर यह चुनाव पिछले चुनाव से सर्वथा अलग है। इस बार एक दूसरे की जानी दुश्मन सपा और बसपा ने अपने हाथ मिला लिए। बुआ और बबुआ एक हो गए। मतलब बिलकुल साफ है यादव ,मुस्लिम और दलित मतदाताओं की एकता। उत्तर प्रदेश की सियासत जातियों के ईर्दगिर्द ही घूमती रही है। यूपी चुनाव में जातीय समीकरण शुरू से ही अहम भूमिका निभाता आया है, ऐसे में सभी पार्टियां अपनी चुनावी रणनीति जातीय समीकरण को ध्यान में रखते हुए ही बनाती हैं। राजनीति में जातीय समीकरण का बड़ा खेल हमेशा से माना जाता रहा है। उत्तर प्रदेश के जाति गणित को समझें तो सवर्ण 18-20 प्रतिशत, ओबीसी 42 प्रतिशत, दलित 21 प्रतिशत और मुस्लिम 18 प्रतिशत है। सवर्णों में सबसे ज्यादा तादाद ब्राह्मणों की 8-9 प्रतिशत है. जबकि राजपूतों की 8 प्रतिशत और वैश्य की 3-4 प्रतिशत है ।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए यह चुनाव करो या मरो की लड़ाई है। यूपी चुनाव में धर्म और जातीय समीकरण भी एक अहम रोल अदा करता है और सभी पार्टियां इस पर गणित बैठाने में लगी हुई हैं। वोट बैंक के लिहाज से देखें तो यूपी में मुसलमानों की संख्या करीब 17 प्रतिशत है । बीते विधानसभा चुनाव में भी सपा को 60 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम वोट मिले थे। बीजेपी को यूपी में आने से रोकने के लिए मुस्लिम समुदाय उस पार्टी को वोट देगी जो उनको कड़ा मुकाबला दे सके। इसी कारण सपा और बसपा को एक प्लेटफार्म पर आना पड़ा। सपा के पास अपना परंपरागत 9 प्रतिशत यादव वोट है जो किसी और पार्टी को नहीं जाता है साथ ही मुसलमानों का एक बड़ा प्रतिशत भी उसके साथ है। बसपा के पास अपना दलित वोट बैंक के साथ मुस्लिम मतों का सहारा भी है। अखिलेश और मायावती का गठबंधन इन्हीं यादव ,मुस्लिम और दलित वोटों पर केंद्रित है। भाजपा स्वर्ण और राजपूत मतदाताओं पर अपना अधिकार जमाती है। 41 प्रतिशत ओबीसी जनसंख्या को भी टारगेट किया जा रहा है। यूपी में भाजपा राजनाथ सिंह के जरिए 8 प्रतिशत ठाकुर वोट जीतना चाहेगी।
ब्राह्मण, कुर्मी व भूमिहार वोट जिनकी संख्या करीब तेरह प्रतिशत है भी बीजेपी को अच्छा समर्थन देंगे, क्योंकि यह यूपी में परंपरागत इन्हीं के साथ जुड़े रहे हैं। यूपी में सबसे बड़ा संकट कांग्रेस के साथ है जिसके पास केवल दो सीटें है। कांग्रेस ने सपा बसपा गठजोड़ में शामिल होने का भरसक प्रयास किया मगर गठबंधन ने उसे दुत्कार दिया फलस्वरूप कांग्रेस ने प्रियंका गाँधी को राजनीति में उत्तारकर अपना ब्रम्हास्त्र चला दिया। प्रियंका यूपी में मृतप्राय कांग्रेस में संजीवनी फूंकने का प्रयास कर रही है। कांग्रेस के पास यूपी में कोई भी बड़ा नेता नहीं है जो मायावती व अखिलेश यादव से टक्कर ले सके। कांग्रेस में आपसी मतभेद भी बढ़ रहे हैं। राहुल गांधी भी कांग्रेस को दोबारा खड़ा करने में पूरी तरह नाकामयाब साबित हुए हैं। अब यह फैसला यूपी की जनता करेगी की वह किसे जीत की वरमाला पहनाएगी मगर यह सच है की भाजपा को यहाँ अपनी पूर्ववत स्थिति प्राप्त करने में भारी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा।
बाल मुकुन्द ओझा
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