चार चरणों का मतदान संपन्न हो चुका है। चौथा चरण आने तक सारे योद्धा थक चुके हैं। जिन मुद्दों से चुनाव शुरू हुआ था वे सभी पृष्ठभूमि में जा चुके हैं या फिर उन्हें सुनते-सुनते मतदाता ऊब गये हैं। यही वजह है कि अंतिम दौर आते-आते चुनाव लौटकर फिर जाति के मुद्दे पर केन्द्रित होने लगा है। 21वीं सदी में भी हमारा देश जात-पात और छुआछूत की बीमारी से मुक्त नहीं हो पाया है। जब से देश आजाद हुआ, तब से जातिवाद पर जितनी राजनीति की गई है, अगर उतना काम सत्ताधारी और राजनेता जात-पात के कलंक को मिटाने के लिए करते, तो आज देश भेदभाव की इन बेड़ियों से आजाद हो गया होता। अकसर देखा गया है कि राजनीति में बड़े चेहरे और प्रमुख कार्यकर्ता उच्च जातियों के ही होते हैं। चुनाव आज भी जाति और धर्म के आधार पर ही लड़े जाते हैं। जातीय पहचान और धार्मिक विवाद जैसे मुद्दों पर अकसर चुनाव के दौरान वोटों का बंटवारा होता है।
बसपा प्रमुख मायावती ने ज्योंही प्रधानमंत्री को नकली और मुलायम सिंह यादव को असली पिछड़ा नेता बताया त्योंही नरेंद्र मोदी ने उस मुद्दे को पकड़ लिया और जुट गए खुद को पिछड़े से भी बढ़कर अति पिछड़ा बताने। उन्होंने अपनी जाति को लेकर उठाये जा रहे संदेहों को समूची पिछड़ी जातियों का अपमान बताते हुए अपने भाषणों में उसका बेहद आक्रामक ढंग से उल्लेख करना शुरू कर दिया। पिछले दिनों यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने एक बार फिर से उनकी जाति पर सवाल उठाया और कहा कि जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे तब उनकी जाति सामान्य वर्ग में थी जो बाद में पिछड़े वर्ग में शामिल की गई। देश में आज भी जात-पात की ओर बीमारी जीवित है। इसलिए कुछ संकीर्ण सोच वाले राजनेता की नीयत नहीं, बल्कि उसकी जाति देखकर अपने कीमती वोट का प्रयोग करते हैं। 1962 से लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव के आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि शिक्षा में असमानता, आमदनी या रोजगार जैसे मुद्दों का चुनाव के दौरान मामूली असर रहता है। सियासत की यही मजबूरी है कि मायावती को आज मुलायम सिंह को जन्मजात पिछड़ा करार देना पड़ा है। अलबत्ता दोनों ही नेता करीब 26 साल तक विपरीत धु्रव की तरह राजनीति करते रहे हैं। चूंकि अब पिछड़ों और अति पिछड़ों के नए नेतृत्व के तौर पर मोदी का नाम भी चर्चा में है, यह वोट बैंक बंटने या छिनने के आसार हैं, सियासी मलाई भी सूख सकती है, लिहाजा ह्यजातीय गालीबाजी शुरू हुई है।
1952 के प्रथम आम चुनाव से ह्यजातीय समीकरण का जो सिलसिला शुरू हुआ था, आज उसने उग्रता और कट्टरता का रूप धारण कर लिया है। 1955 में वोट बैंक की अवधारणा भी स्थापित कर दी गई। आज पंचायत से लेकर संसदीय चुनावों तक राजनीतिक दल इसी अवधारणा में विभाजित हैं। दिलचस्प है कि आज भारत 21वीं सदी में प्रवेश करने के बाद विविध स्तरों पर विकसित और विस्तृत हो रहा है, लेकिन अब भी औसतन 55 फीसदी नागरिक जातीय आधार पर सोचते हैं, उसे अहमियत देते हैं और उसी आधार पर वोट देना पसंद करते हैं। अनपढ़ों में करीब 63 फीसदी लोग जातीय आधार पर ही वोट देते हैं। उनके लिए काम, कार्यक्रमों, योजनाओं का कोई मतलब नहीं है। वे जातीय उम्मीदवार के बाहर जाना ही नहीं चाहते। ये निष्कर्ष भी कई अध्ययनों और सर्वेक्षणों के बाद स्पष्ट हुए हैं।
असल में चुनाव आयोग चाहे जितना दावा करे लेकिन जाति आधारित राजनीति समाप्त होने की बजाय और बढ़ती ही जा रही है। गुजरात विधानसभा चुनाव से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने मन्दिर जाने का सिलसिला शुरू करते हुए खुद को हिन्दू साबित करने का प्रयास किया और बाद में उन्होंने ब्राम्हण होने का दावा करते हुए जनेऊ पहनने तक का स्वांग रचा। इससे ये साबित हो गया कि विदेश में शिक्षा प्राप्त करने वाले नेता भी जाति के जंजाल से खुद को मुक्त नहीं कर पा रहे। वैसे इसे लेकर किसी एक या कुछ नेताओं को दोष नहीं दिया जा सकता बल्कि ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि राष्ट्रीय पार्टियां भी जाति जैसी संकुचित सोच को अपनाने तैयार हो गईं। इसका असर ये हुआ कि मतदाताओं के भीतर भी जाति का आकर्षण बढ़ता जा रहा है। बड़ी – बड़ी सर्वेक्षण कम्पनियां तक चुनाव परिणामों का आकलन जाति के आधार पर करती हैं। राजद नेता एवं लालू प्रसाद के छोटे बेटे तेजस्वी यादव ने भी मोदी को ह्यफर्जी ओबीसीह्ण करार दिया। जवाब में प्रधानमंत्री को कबूल करना पड़ा कि वह पिछड़े नहीं, अति पिछड़ी जाति में पैदा हुए हैं। केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने भी इसकी पुष्टि की है।
दरअसल यह बहस ही शुरू नहीं होनी चाहिए थी। यह ग्राम पंचायत या नगरपालिका का चुनाव नहीं है, बल्कि देश की 17वीं लोकसभा चुनने के लिए चुनाव-प्रक्रिया जारी है। यह राष्ट्रीय चुनाव है, जिसमें अंतत: नए प्रधानमंत्री का भी चुनाव किया जाना है, देशभर से 543 सांसद चुने जाने हैं। रामनाथ कोविंद जब तक राष्ट्रपति नहीं बने तब तक उनके अनुसूचित जाति के होने के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी थी। लेकिन जब भाजपा ने उनका चयन इस सर्वोच्च पद के लिए किया तब उनकी शैक्षणिक योग्यता और राजनीतिक अनुभव से ज्यादा उनकी जाति का प्रचार करते हुए दलित वर्ग को लुभाने की कोशिश की गई। इसका नुकसान ये हो रहा है कि समाज जातियों और उसके बाद उपजातियों में बंटकर रह गया है। राजनीति चलाने वालों से समाज की कुरीतियों को मिटाने की अपेक्षा की जाती है लेकिन वे इसे और बढ़ाते जा रहे हैं। उ.प्र., बिहार में अभी कुछ छोटी-छोटी जाति आधारित पार्टियों ने जिस तरह से भाजपा को घुटनाटेक करवाया वह इसका उदाहरण है।
ये हालात 21वीं सदी के भारत को कहां ले जायेगी ये सोचकर चिंता होने लगती हैं। मनुवादी सोच को पानी पी-पीकर कोसने वाले नेता जब खुद उसी वर्ण व्यवस्था द्वारा बनाई गयी सामाजिक रचना को सियासत का आधार बनाते हैं तब उनके दोहरेपन पर आश्चर्य होता है। जन प्रतिनिधित्व कानून, 1951 के मुताबिक, दो समुदायों के बीच मतभेद, खटास, नफरत पैदा करने की कवायद पर कानूनन कार्रवाई की जा सकती है। तीन साल तक की जेल भी हो सकती है। संविधान में उल्लेख है और सर्वोच्च न्यायालय का भी फैसला है कि जाति, धर्म, समुदाय, मत, संप्रदाय आदि के नाम पर वोट नहीं मांगे जा सकते।
इस तरह वोट मांगना ह्यभ्रष्ट आचरणह्ण है, लेकिन इसका सरेआम उल्लंघन किया जाता रहा है। बुनियादी सवाल यह है कि क्या एक आम चुनाव जात-पात के आधार पर ही लड़ा जाएगा? क्या 2019 के भारत का भविष्य और विकास अगड़े-पिछड़े, मुस्लिम-यादव, दलित-पिछड़े और अति पिछड़े-महादलित आदि जातीय और सामुदायिक समीकरणों पर ही तय होगा? बहरहाल यह देखना दिलचस्प होगा कि राष्ट्रवाद को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाकर फिर सत्ता पाने की कवायद में लगे मोदी और जाति की राजनीति से यूपी में ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने की कवायद में लगे मायावती और अखिलेश में किसका पलड़ा भारी रहेगा?
संतोष कुमार भार्गव
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