हमारे लोकतंत्र की चल रही नौटंकी में इस सप्ताह यह देखने को मिला कि राजनीति सबसे अच्छा धंधा है और हमारे नेतागणों की सबसे बड़ी संपत्ति उनकी झूठ बोलने की क्षमता है। सेन्टर फॉर मीडिया स्टडीज के अनुसार इस बार चुनावों में भारी धनराशि खर्च की जा रही है और यदि इन चुनावों पर व्यय में 40 प्रतिशत की वृद्धि होकर वह 49 हजार करोड़ रूपए तक पहंच जाए तो हैरानी नहंी होनी चाहिए। यह राशि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा अपने चुनाव पर खर्च की गई राशि से अधिक है। बाहुबल से धन बल, आज पैसा खुदा है। आज जब राजनीतिक पार्टियां अपने उम्मीदवार को उसकी जीत की क्षमता के आधार पर चुनते हैं तो उसका तात्पर्य उसकी धन बल की क्षमता और चुनावों पर खर्च करने की क्षमता है।
एक टिकटार्थी के अनुसार यह एक तरह से प्रवेश शु:ल्क है और यह पार्टी से जुड़ने का एक साधन है हालांकि मतदाताओं की पसंद इस पर निर्भर नहंी करती है। कुछ समय पूर्व बसपा की मायावती का एक स्टिंग आपरेशन सामने आया था जिसमें उन पर टिकट बेचने का आरोप लगाया गया था। यह बताता है कि सभी उम्मीदवारों के लिए समान अवसर नहीं मिलते हैं और यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का उपहास भी उड़ाता है। संसद और राज्य विधान सभाओं में करोड़पति सदस्यों की संख्या बताती है कि नेता और पार्टियां अमीर उम्मीदवारों पर विश्वास करती हैं जो चुनाव जीत सके और इसीलिए चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों में अधिकतर अर्थात 83 प्रतिशत करोड़पति हैं क्योंकि पार्टी का टिकट मिलने से लेकर चुनाव लड़ने, मतदाताओं को रिश्वत देने, उपहार देने, विज्ञापन, कार्यकतार्ओं पर खर्च करने, भीड़ जुटाने, गाड़ियों का काफिला तैयार करने और चुनव जीतने सब पर पैसा लगता है और यदि आप दूसरी बार चुनाव लड़ रहे हो तो और अधिक पैसा लगता है।
इसका परिणाम यह हुआ कि चुनाव आयोग ने अब तक 1618.78 करोड़ रूपए का माल और नकदी जब्त किया है जिसमें 399.50 करोड़ नकदी, 162.89 करोड़ रूपए की शराब और मादक द्रव्य तथा 708.54 करोड़ रूपए का सोना चांदी और अन्य सामान है। वस्तुत: प्रतिदिन लगभग 67 करोड़ रूपए मूल्य का माल और नकदी पकड़ी जा रही है। अभी पिछले सप्ताह ही तमिलनाडू में 137 करोड़ रूपए और अरूणाचल प्रदेश में 1.8 करोड़ रूपए की नकदी पकड़ी गयी है। सेन्टर फॉर मीडिया स्टडीज के अध्ययन के अनुसार चुनावों में धन बल का प्रभाव बढता जा रहा है और इसमें सबसे कुख्यात राज्य आंध्र, कर्नाटक और तमिलनाडू हैं। इस अध्ययन के अनुसार पिछले वर्ष कर्नाटक विधान सभा चुनावों में 47 प्रतिशत मतदाताओं ने पैसा लिया। इसी तरह आंध्र प्रदेश में चुनाव सबसे महंगे साबित हो रहे हैं जहां पर हजार करोड़ रूपए से अधिक खर्च होंगे।
गुजरात में 543.84 करोड़, तमिलनाडू में 514.57 करोड़, आंध्र प्रदेश में 216.34 करोड़, पंजाब में 1.7 करोड़ और उत्तर प्रदेश में 162 करोड़ रूपए मूल्य का माल और नकदी पकड़े गए हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि तेलंगाना में 100 से अधिक लोग इसलिए धरने पर बैठे कि तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता उन्हें सार्वजनकि सभाओं में शामिल होने के लिए पैसा नहीं दे पाए। इससे भी हैरानी की बात यह है कि 37 प्रतिशत मतदाताओं ने स्वीकार किया है कि वे वोट के बदले पैसा लेते हैं। हाल ही में एक स्टिंग में 18 विधायकों ने स्वीकार किया कि मतदाताओं को लुभाने के लिए पैसा देते हैं। इसके अलावा स्मार्ट फोन, साइकिल, प्रेशर कुकर, सोने की चेन आदि भी मतदाताओं में बांटे जाते हैं जिसके चलते आज चुनाव पैसा का पयार्य बन गए हैं।
चुनाव आयोग ने लोक सभा उम्मीदवार के लिए व्यय की सीमा 70 लाख रूपए और विधान सभा उम्मीदवार के लिए 28 लाख रूपए निर्धारित की है किंतु यह चुनावों पर खर्च की जा रही राशि का 1/70वां भाग भी नहंी है। कुछ दिन पूर्व भी एक चुनाव आयोग ने तमिलनाडू के वेल्लोर में चुनाव रद्द किया। उसका कारण वहां धन बल का दुरूपयोग होना था और वहां एक सीमेंट के गोदाम से 12 करोड़ से अधिक की राशि पकड़ी गयी थी। 2017 में यह आरोप लगाया गया था कि शशिकला के भतीजे टीटीवी दिनाकरन ने चुनाव आयोग के अधिकारियों को भारी रिश्वत देने की पेशकश की थी ताकि अन्नाद्रमुक के दो पत्तियों का चुनाव चिह्न उन्हे मिल सके। एक पूर्व चुनाव आयुक्त के अनसार लगता है आज लोग नीतियों, विचारधारा, सिद्धान्तों और कार्यक्रमों से अधिक बल पैसे को दे रहे हैं। चिंता की बात यह है कि यह एक महामारी का रूप ले रहा है।
निर्वाचन आयोग के नियमों के अनुसार उम्मीदवार के लिखित आदेश के बिना किसी व्यक्ति द्वारा चुनाव प्रचार पर खार्च करने के लिए 500 रूपए का जुमार्ना किया जाएगा और यदि कोई उम्मीदवार कानून के अनुसार चुनाव व्यय का लेखा नहंी रखता तो उस पर भी 500 रूपए का जुमार्नाा किया जाएगा। कोई भी व्यक्ति 2000 से अधिक का नकद चंदा नहंी दे सकता है जबकि अनाम स्रोतों से 20 हजार रूपए तक का चंदा लिया जा सकता है। हमारे नेता स्वयं नियम बनाते हैं और उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे उनका पालन करें किंतु वो उनमें खामियां छोड़ देते हैं। प्रवर्तन एजेंसियों को इस संबंध में पर्याप्त शक्तियां प्राप्त नहंी हैं और पार्टियां अपने चंदे का हिसाब नहंी रखती हैं। पिछले सप्ताह से निर्वाचन आयोग पार्टियों के विज्ञापनों और उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि पर नजर रख रहा है किंतु इस संबंध में पार्टियां मौन हैं।
वर्ष 2017-18 में भाजपा को मिले कुल चंदे में से 93 प्रतिशत 20 हजार रूपए से अधिक का है जिसमें से 80 प्रतिशत अर्थात 533 करोड़ रूपए अनाम है। कांग्रेस को केवल 267 मिलियन रूपए। भाजपा, कांग्रेस और अन्य तीन राष्ट्रीय पार्टियों को मिले कुल चंदे में से 53 प्रतिशत अनाम स्रोतों से मिला है। उद्योगपतियों और व्यक्तियों ने कांग्रेस और अन्य पांच दलों की तुलना में भाजपा को 12 प्रतिशत अधिक चंदा दिया। जब पैसे की बात आती है तो सत्ता की खातिर झूठ भी बोलने लग जाते हैं। चुनाव जीतने के बाद सांसद या विधायक चुनाव आयोग को अपने शपथ पत्र में घोषणा करता है कि उसने क्रमश: 70 लाख या 28 लाख व्यय की सीमा का पालन किया है और उसके बाद झूठ का चक्कर शुरू हो जाता है और फिर जो उम्मीदवार जीतता है वह अपना पैसा वसूल करने का प्रयास करता है और अगले चुनावों के लिए पैसा जमा करने लगता है।
इस व्यवस्था को शासित करने वाले नियम ऐसे हैं कि चुनाव जीतने के बाद भी नीति निर्माण में विधायकों की भूमिका कम होती है और इस पर पार्टी के कुछ लोगों का नियंत्रण होता है। वस्तुत: 1943 में अंबेडकर ने एक भविष्यवाणी की थी जिसमें उन्होंने बड़े उद्योगपतियों और व्यवसाइयों से सहायता लेने के लिए गांधी और नेहरू की आलोचना की थी और लगता है आज यह हमें सताने लगा है क्योंकि पैसा आज संगठित रूप से वसूल किया जा रहा है। आज राजनीति मनी और हनी का विषय बन गया है जिसके चलते वोटों की बिक्री आॅटो मोड पर डाल दी गयी है। चुनाव प्रचार की राजनीति जारी है और लोकतंत्र की लागत बढती जा रही है इसलिए समय आ गया है कि हम ऐसे उम्मीदवारों पर भरोसा करना बंद करें जो स्वयं को ईमानदार और नैतिकता का मसीहा बताते हैं। लोकतंत्र में संप्रभुता की रक्षक जनता है इसलिए उसे राजनीति को गंदगी से मुक्त करने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए अन्यथा हमें इस कटु वास्तविकता का सामना करना पड़ेगा कि पैसा खुदा है, शराब पर्याप्त है और पैसे से कुछ भी हो सकता है। मनी है तो पावर है।
पूनम आई कौशिश
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