इस बार के लोकसभा चुनाव में सेना की चर्चा जोरों पर है। इससे पहले सेना का इतना ज्यादा प्रचार कभी नहीं हुआ। सेना का सम्मान अपनी जगह है और सेना के चुनावी चर्चे एक नकारात्मक है। भारतीय सेना ने ब्रिटिश कार्यकाल के समय से ही बहादुरी की अनगिनत मिसालें पेश की हैं। देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान के साथ दो व चीन के साथ हुए युद्ध में भारतीय सैनिकों ने विरोधियों को धूल चटाई। 1965 में लोंगोवाल के युद्ध में हमारे सैनिकों की बहादुरी की दाद हर कोई देता है। हमारी सेना कार्यवाही करती है, नेताओं की तरह नाटक नहीं करती
। बहादुर वही है जो अपना कर्तव्य का निर्वाह करता है और शोर-शराबे की अपेक्षा लक्ष्य पूरा कर देता है। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने सर्जिकल स्ट्राईक पर सवाल उठाए, लेकिन पार्टी ने उन बयानों से किनारा कर सेना की बहादुरी को स्वीकार किया है। राजनीतिक पार्टियों को विवादित बयानबाजी करने वाले अपने नेताओं पर लगाम लगाने की जरूरत है, दूसरी तरफ सत्तापक्ष की बयानबाजी में सेना की चर्चा से स्वार्थ साफ नजर आ रहा है।
बीजेपी नेता व यूपी के मुख्यमंत्री योगी अदित्यानाथ भारतीय सेना को मोदी जी की सेना कह रहे हैं। सेना के अपने सिद्धांत हैं जिसका राजनीति से कोई ताल्लुक नहीं। भारतीय सेना कभी भी कमजोर नहीं रही, भले ही कांग्रेस का कार्यकाल हो या भाजपा का। कारगिल युद्ध में पाकिस्तान की करारी सैनिक हार हुई। आतंकवाद ने बहुत नुक्सान किया। लोकसभा चुनावों में सेना का प्रचार आवश्यकता से ज्यादा हो रहा है।
राजनीति का फौजी राग स्वार्थ से प्रेरित है, जो संविधान की मूल भावना के उलट है। सुरक्षा देश का अहम मुद्दा है जिसके संबंध में राजनेताओं को अपनी सीमाएं लांघकर चर्चा करने की आवश्यकता नहीं। यूं भी आतंकवाद अभी भी हमारे लिए चुनौती बना हुआ है, जिससे निपटने के लिए हमें अत्याधिक आत्मविश्वास से बचने की आवश्यकता है। जम्मू-कश्मीर में रोजाना ही आतंकियों के साथ सैनिकों को लोहा लेना पड़ रहा है। नक्सली हिंसा के खिलाफ कार्यवाही में अभी भी दुविधा फंसी हुई है। हर चुनावी रैली, सभा, मीटिंग में सेना की चर्चा हमारे सुरक्षा प्रबंधों के लिहाज से अनुकूल नहीं है। कांग्रेस व भाजपा दोनों को लोकतंत्र की गरिमा को बरकरार रखने के लिए संयम रखना चाहिए।
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