माजिक और आर्थिक विकास के पैमाने पर देखें तो भारत की एक विरोधाभासी तस्वीर उभरती है, एक तरफ तो हम दुनिया के दूसरे सबसे बड़े खाद्यान्न उत्पादक देश है तो इसी के साथ ही हम कुपोषण के मामले में विश्व में दूसरे नंबर पर हैं। विश्व की सबसे तेज से बढ़ती अर्थव्यवस्था होने के साथ ही दुनिया की करीब एक-तिहाई गरीबों की आबादी भी भारत में ही रहती है। विकास के तमाम दावों के बावजूद भारत अभी भी गरीबी और भुखमरी जैसी बुनियादी समस्याओं के चपेट से बाहर नहीं निकल सका है। समय-समय पर होने वाले अध्ययन और रिपोर्ट भी इस बात का खुलासा करते हैं कि तमाम योजनाओं के एलान के बावजूद देश में भूख व कुपोषण की स्थिति पर लगाम नहीं लगाया जा सका है।
वर्ष 2017 में इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) द्वारा जारी वैश्विक भूख सूचकांक में दुनिया के 119 विकासशील देशों में भारत 100वें स्थान पर है जबकि इस मामले में पिछले साल हम 97वें स्थान पर थे। यानी भूख को लेकर हालत सुधरने के बजाये बिगड़े हैं और वर्तमान में हम एक मुल्क के तौर पर भुखमरी की ‘गंभीर’ श्रेणी में हैं। इसी तरह से संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट स्टेट आॅफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रीशन इन द वर्ल्ड, 2017 के अनुसार दुनिया के कुल कुपोषित लोगों में से 19 करोड़ कुपोषित भारत में हैं। देश के पांच साल से कम उम्र के 38 प्रतिशत बच्चे ‘स्टन्टेड’ की श्रेणी में हैं यानी सही पोषण ना मिल पाने की वजह से इनका मानसिक, शारीरिक विकास नही हो पा रहा है, महिलाओं की स्थिति भी अच्छी नही है। रिपोर्ट बताती है कि युवा उम्र की 51 फीसदी महिलाएं एनीमिया यानी खून की कमी से जूझ रही।
भारत में कुपोषण और खाद्य सुरक्षा को लेकर कई योजनायें चलायी जाती रही हैं लेकिन समस्या की विकरालता को देखते हुये ये नाकाफी तो थी हीं साथ ही व्यवस्थागत, प्रक्रियात्मक विसंगतियों और भ्रष्टाचार की वजह से भी ये तकरीबन बेअसर साबित हुयी हैं। दरअसल भूख से बचाव यानी खाद्य सुरक्षा की अवधारणा एक बुनियादी अधिकार है जिसके तहत सभी को जरूरी पोषक तत्वों से परिपूर्ण भोजन उनकी जरूरत के हिसाब, समय पर और गरिमामय तरीके से उपलब्ध करना किसी भी सरकार का पहला दायित्व होना चाहिये। खाद्य सुरक्षा के व्यापक परिभाषा में पोषणयुक्त भोजन, पर्याप्त अनाज का उत्पादन और इसका भंडारण, पीने का साफ पानी, शौचालय की सुविधा और सभी का स्वास्थ्य सेवाओं तक आसान पहुंच शामिल है। लेकिन दुर्भाग्य से अधिकार के तौर पर खाद्य सुरक्षा की यह अवधारणा लम्बे समय तक हमारे देश में स्थापित नहीं हो सकी और इसे कुछ एक योजनाओं के सहारे छोड़ दिया गया।
2001 में पीयूसीएल (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज) द्वारा बड़ी मात्र में सरकारी गोदामों में अनाज सड़ने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की गयी थी जिसे भोजन के अधिकार केस के नाम से जाना जाता है। इसमें संविधान की धारा 21 का हवाला देते हुये भोजन के अधिकार को जीने के अधिकार से जोड़ा गया। इस जनहित याचिका को लेकर न्यायालय में एक लंबी और ऐतिहासिक प्रक्रिया चली जिसके आधार पर भोजन के अधिकार और खाद्यान सुरक्षा को लेकर हमारी एक व्यापक और प्रभावी समझ विकसित हुयी है। करीब 13 सालों तक चले इस केस के दौरान सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये विभिन्न निर्णयों में खाद्य सुरक्षा को एक अधिकार के तौर पर स्थापित किया गया और भोजन के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिये केंद्र व राज्य सरकारों की जवाबदेही तय की गयी।
इसी पृष्ठभूमि में केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2013 में भोजन का अधिकार कानून लाया गया जिसे राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा विधेयक 2013 भी कहते हैं। इस कानून की अहमियत इसलिये है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह पहला कानून है जिसमें भोजन को एक अधिकार के रूप में माना गया है। यह कानून 2011 की जनगणना के आधार पर देश की 67 फीसदी आबादी (75 फीसदी ग्रामीण और 50 फीसदी शहरी) को कवर करता है
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत मुख्य रूप से 4 हकदारियों की बात की गयी है जो योजनाओं के रूप में पहले से ही क्रियान्वयित हैं लेकिन अब एनएफएसए के अंतर्गत आने से इन्हें कानूनी हक का दर्जा प्राप्त हो गया है। इन चार हकदारियों में लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), एकीकृत बाल विकास सेवायें (आईसीडीएस), मध्यान भोजन (पीडीएस) और मातृत्व लाभ शामिल हैं।
आज राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून को लागू हुये पांच साल हो रहे हैं। लेकिन पिछले करीब पांच साल के अनुभव बताते हैं कि इसे ही लागू करने में हमारी सरकारों और उनकी मशीनिरी ने पर्याप्त इच्छा-शक्ति और उत्साह नहीं दिखाया है । साल 2013 में खाद्य सुरक्षा कानून केर लागू होने के बाद राज्य सरकारों को इसे लागू करने के लिए एक साल का समय दिया गया था लेकिन उसके बाद इसे लागू करने की समयसीमा को तीन बार बढ़ाया गया और इसको लेकर कई राज्य उदासीन भी दिखे। अप्रैल 2016 में कैग (नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक) द्वारा खाद्य सुरक्षा कानून के क्रियान्वयन में देरी तथा बिना संसद की मंजूरी के ही इसके कार्यान्वयन की अवधि तीन बार बढ़ाने को लेकर केंद्र सरकार पर सवाल उठाये गये थे। दरअसल राज्यों द्वारा खाद्य सुरक्षा कानून को लागू करने में देरी का मुख्य कारण ढांचागत सुविधाओं और मानव संसाधन की कमी, अपर्याप्त बजट और लाभार्थियों की शिनाख्त से जुड़ी समस्यायें रही हैं।
लेकिन सबसे गंभीर चुनौती इसके क्रियान्वयन की रही है, केंद्र और राज्य सरकारों के देश के अरबों लोगों के पोषण सुरक्षा जैसी बुनियादी जरूरत से जुड़े कानून को लेकर जो प्रतिबद्धता दिखायी जानी चाहिये थी उसका अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है और उनके रवैये से लगता है कि वो इसे एक बोझ की तरह देश रहे हैं। जुलाई 2017 में सरकारों के इसी ऐटिटूड को लेकर देश के सर्वोच्य न्यायालय द्वारा भी गंभीर टिप्पणी की जा चुकी है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह बहुत क्षुब्ध करने वाली बात है कि नागरिकों के फायदे के लिए संसद की ओर से पारित इस कानून को विभिन्न राज्यों ने ठंडे बस्ते में रख दिया है। न्यायालय ने कहा कि ‘कानून पारित हुए करीब चार साल हो गए, लेकिन प्राधिकारों और इस कानून के तहत गठित संस्थाओं को कुछ राज्यों ने अब तक सक्रिय नहीं किया है और यह प्रावधानों का दयनीय तरीके से पालन दिखाता है।’
राज्यों द्वारा इस कानून के क्रियान्वयन के लिये जरूरी ढांचों जैसे जिला शिकायत निवारण अधिकारी की नियुक्ति, खाद्य आयोग और सतर्कता समितियों का गठन, सोशल आडिट की प्रक्रिया शुरू नहीं की गयी है। अभी भी हालत ये हैं कि मार्च 2018 तक केवल बीस राज्यों द्वारा ही खाद्य आयोग का गठन किया गया है। जिला शिकायत निवारण अधिकारी की नियुक्ति के नाम पर भी खानापूर्ति की गयी है जिसके तहत राज्यों द्वारा कलेक्टर को ही जिला शिकायत निवारण अधिकारी के रूप में नियुक्ति किया गया है जबकि कलेक्टरों के पास पहले से ही ढ़ेरों जिम्मेदारियां और व्यस्ततायें होती हैं ऐसे में वे इस नयी जिम्मेदारी का निर्वाह कैसे कर पायेंगें इसको लेकर सवाल है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 05 जुलाई, 2013 को लागू हुआ था जिसके इस साल जुलाई में 6 साल पूरे हो जायेंगें। किसी भी कानून के क्रियान्वयन के लिये यह अरसा काफी होता है। ऐसे में यह मुफीद समय होगा जब मई में गठित होने वाली केंद्र की नयी सरकार इसकी समीक्षा करे जिससे इन पांच सालों में हुये अच्छे-बुरे अनुभवों से सीख लेते हुये राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधनियम के मूल उद्देश्यों की दिशा में आगे बढ़ा जा सके।
जाहिर है भारत में भूख और कुपोषण की समस्या को देखते हुये खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 एक सीमित हल पेश करता ही है, उपरोक्त चारों हकदारियां सीमित खाद्य असुरक्षा की व्यापकता को पूरी तरह से संबोधित करने के लिये नाकाफी हैं और ये भूख और कुपोषण के मूल कारणों का हल पेश नही करती हैं लेकिन अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद भारत के सभी नागिरकों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने की दिशा में इसे एक बड़ा कदम माना जा सकता है।
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