वंशवाद ने एकबार फिर देश की सियासत को गरमा दिया है। लोकसभा चुनाव के आते ही देश में परिवार और वंशवाद की राजनीति एक बार फिर जोर शोर से हिलोरे मारने लगी है। इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वंशवादी राजनीति के मुद्दे पर कांग्रेस पर हमला बोला है। मोदी ने कांग्रेस पर वंशवाद की राजनीति करने का आरोप लगाया है। मोदी ने अपने ब्लॉग पोस्ट के जरिए कहा कि देश में जब-जब वंशवादी राजनीति हावी हुई तब-तब प्रेस से लेकर संविधान तक पर असर पड़ा है। 2014 में गैर-वंशवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला। देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ। मोदी ने लिखा है कि 2014 में देश की जनता ने वंशवाद की बजाय ईमानदारी को चुना। पतन की बजाय विकास के लिए वोट दिया। लोगों ने रुढ़िवाद की बजाय सुरक्षा, बाधाओं की बजाय अवसर और वोट बैंक की राजनीति की बजाय विकास के लिए मतदान किया था। कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी ने मोदी को जवाब देते हुए कहा है कि देश की जनता मूर्ख नहीं है। लोग प्रधानमंत्री के दावों को समझ सकते हैं। भाजपा ने ही देश के संस्थानों पर हमले किए हैं। हमें जितना प्रताड़ित किया जाएगा, हम उतनी ही मजबूती से चुनाव लड़ेंगे।
भारत की राजनीति में वंशवाद खत्म होने की बजाय वटवृक्ष की तरह फैलता जा रहा है। वर्तमान में लगभग हर पार्टी परिवारवाद के रोग से ग्रसित है। प्रमुख राजनीतिक पार्टियों का हाल तो यह है,कि पार्टी का अध्यक्ष पद परिवारों की बपौती बना हुआ है। अधिकांश राजनीतिक दलों में एक ही परिवार के सदस्य कब्जा जमाये हुए है। जितनी तेजी से राजनीतिक दलों में वंशवाद पांव पसार रहा है, वह दिन दूर नहीं जब शायद कोई आम आदमी चुनाव लड़ सके। देश में बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों में एक-दो को छोडकर बाकी सभी एक विशेष परिवार तक सिमट कर रह गई हैं। कहा जाता है की इंसान अपने जन्म से नहीं कर्म से जाना जाता है, ये सब जानते है। आज नेता अपने खानदान से ज्यादा जाने जाते है अपने कर्मो और योग्यता के लिए कम जाने जाते है।
विश्व के लोकतंत्रिक इतिहास में भारत ऐसा देश है, जहां वंशवाद की जड़ें गहरी धंसी हुई है। अब तो देश का लोकतंत्र परिवारतंत्र में बदल गया है। एक सर्वे के मुताबिक 2009 में 29 फीसदी और 2014 में 21 फीसदी सांसद वंशवाद की राजनीति से आए थे। पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से समाजवादी पार्टी के पांच जने लोकसभा में पहुंचे। इनमें पांचों के पांचों मुलायम सिंह के वंश से थे यानी सौ फीसदी वंशवाद। सोलहवीं लोकसभा में कांग्रेस के 44 प्रतिनिधि जीतकर आये। इसमें 48 प्रतिशत सांसद वंशवाद से निकलकर आए , यानी इनमें से करीब आधे, रिश्तेदारों की वजह से राजनीति में आए। इसी भांति भाजपा में 15 प्रतिशत सांसद वंशवाद का सहारा लेते हुए संसद में पहुंचे।
राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा में वंशवादी राजनीति न के बराबर है जबकि कांग्रेस, सपा, डीएमके, आरजेडी, एनसीपी, लोकदल के नाम से विभिन्न दल, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी , देवेगौड़ा की पार्टी, अकाली दल जैसे दलों का संगठन और सत्ता एक परिवार विशेष के लिए समर्पित है। कई राजनीतिक विश्लेषक परिवारवाद और वंशवाद की परिभाषा अलग अलग बताते है। इन लोगों की मान्यता के अनुसार यदि संघर्ष के रास्ते कोई भाई अपनी जगह सियासत में बनाकर आता है तो उसे परिवारवाद का दोषी ठहराना उचित नहीं होगा। वहीँ दूसरे पक्ष के विश्लेषक मानते है कि परिवार के सहारे आगे बढ़ना अनुचित है।
आजादी के बाद से ही परिवारवाद गैर कांग्रेसी दलों का कांग्रेस के विरुद्ध अचूक हथियार रहा है। शुरू में डॉ लोहिया ने परिवारवाद पर कांग्रेस पर हमला किया था बाद में गैर कांग्रेस दलों ने इसे हथिया लिया। अब तो लगभग सभी पार्टियों में परिवार का ही बोलबाला है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश, बिहार में तेजस्वी यादव और चिराग पासवान, कर्नाटक में कुमार स्वामी, पंजाब में बादल, हरियाणा में चैटाला, कश्मीर में अब्दुल्ला, महाराष्ट्र में ठाकरे और सुप्रिय सुले के बाद राहुल गाँधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद पर निर्वाचित होने के बाद देश में वंश और परिवारवाद की सियासत गरमा गई है।
मोतीलाल नेहरू से राहुल गाँधी तक कांग्रेस नेहरू-गाँधी परिवार के कब्जे में रही है। नेहरू -गाँधी परिवार जब जब कांग्रेस पर सवार हुआ है तब तब यह पार्टी आगे बढ़ी है। नरसिंह राव, सीताराम केसरी का कार्यकाल भी लोगों ने देखा है। कहा जाता है की इन दोनों नेताओं के समय पार्टी की लुटिया डूबी जो अब तक उभर नहीं पाई है। कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप कोई नया नहीं है। प्रियंका गाँधी वाड्रा के सक्रिय राजनीति में प्रवेश के बाद वंशवादी सियासत पर जोर शोर से चर्चा होने लगी है। मगर यह सच है की इस पार्टी को जीवनदान यह परिवार ही दे सकता है अन्यथा स्वतंत्रता के गर्भ से निकली पार्टी को बिखरने में देर नहीं लगेगी।
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