मसूद अजर को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करने के बारे में चीन द्वारा चौथी बार विशेषाधिकार शक्ति का प्रयोग करने के बाद भारत अब नेहरू द्वारा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता स्वीकार न करने की ऐतिहासिक भूल के प्रति जागा है और अब आम चुनवों के मद्दनेजर इस बारे में बहस छिड़ गयी है। नेहरू के प्रशंसक इस पर इतिहास का पर्दा डालना चाहते हैं और कहते हैं कि ऐसी पेशकश कभी नहीं की गयी थी और कुछ का कहना है कि नेहरू ने यह अस्वीकार कर सही किया था किंतु उनके आलोचक कहते हैं कि नेहरू ने विश्व राजनीति में भारत को सबसे शक्तिशाली स्थिति से वंचित कर लगभग पाप किया है।
सात दशक पूर्व नेहरू ने यह भूल की या नहीं किंतु अब इसे क्यों कुरेदा जा रहा है? इसका कारण यह है कि जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते हैं वे इतिहास की पुनरावृति करते हैं और यदि हम सजग न रहें तो विशेषकर चीन के प्रति और अंतर्राष्ट्रीय जगत में हम नेहरू की भूल को दोहराते रहेंगे। नेहरू की विदेश नीति के संबंध में मैं अपने इस लेख को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता तक सीमित रखूंगा और मैं इस बात को स्वीकार करता हूं कि नेहरू लोकतंत्र में विश्वास करने वाले थे। वे स्वतंत्रता आंदोलन के अभिन्न अंग रहे तथा महात्मा गांधी के प्रिय पात्र थे। किंतु विदेश नीति के मामले में अपने आदर्शवाद और अदूरदर्शिता के कारण उन्होने भूल की और राष्ट्रीय हित को ध्यान में नहीं रखा। कांग्रेसी सांसद और पूर्व मंत्री शशि थरूर ने भी अनेक बार कहा है कि नेहरू की विदेश नीति नैतिकता पर कमेंटरी जैसी थी।
भारत को 1950 और फिर 1955 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता की पेशकश के बारे में प्रकाश डालें। नेहरू के समर्थकों का कहना है कि 1950 में अमरीका द्वारा भारत को इसकी पेशकश नहीं की गयी थी और 1955 में भी निकोलाई बुलगानिन ने भी इसकी पेशकश नहीं की थी। इस संबंध में वे 27 सितंबर 1950 को संसद में जेएन पारिख द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर को उद्धृत करते हैं। नेहरू ने कहा था ऐसी कोई औपचारिक या अनौपचारिक पेशकश नहीं है। सुरक्षा परिषद का गठन संयुक्त राष्ट्र चार्टर के द्वारा किया जाता है जिसके अनुसार कुछ विशेष राष्ट्रों को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दी गयी है और चार्टर में संशोधन के बिना इसकी सदस्य संख्या में वृद्धि या कमी नहीं की जा सकती है।
किंतु इस बात का खंडन नेहरू के सोवियत संघ और अन्य देशों के दौरे के संबंध में उनके नोट द्वारा किया जाता है जिसमें कहा गया है अमरीका द्वारा अनौपचारिक रूप से सुझाव दिया गया है कि चीन को संयुक्त राष्ट्र में शामिल किया जाए न कि सुरक्षा परिषद का सदस्य और भारत को सुरक्षा परिषद में होना चाहिए। अमरीका में भारतीय राजदूत विजय लक्ष्मी पंडित ने नेहरू को लिखा कि भारत को सुरक्षा परिषद की सदस्यता की पेशकश की जा रही है इसलिए स्पष्ट है कि भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता की पेशकश की गयी थी। फिर 1955 में सोवियत संघ के प्रधानमंत्री बुलगानिन ने संयुक्त राष्ट्र की 10वंी वर्षगांठ पर भारत को सुरक्षा परिषद की सदस्यता की पेशकश की थी और नेहरू ने सोवियत संघ की पेशकश को ठुकरा दिया था और इस बात पर बल दिया था कि चीन को संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश में प्राथमिकता दी जानी चाहिए। नेहरू और बुलगानिन के बीच बैठक के कार्यवाही वृतांत मीडिया में परिचालित किए जा रहे हैं जिससे स्पष्ट है कि भातर को यह पेशकश की गयी थी ओर नेहरू ने इसको अस्वीकार किया।
1945 में जब सुरक्षा परिषद् का गठन हुआ तो उस समय भारत पूर्ण स्वतंत्र नहीं था इसलिए जब भारत स्वतंत्र हुआ तो 1950 में उसे यह पेशकश की गयी। इसलिए नेहरू द्वारा इस भूल को स्वीकार किया जाना चाहिए। दूसरा यदि नेहरू को 1950 और 1955 में की गयी ऐसी पेशकश की जानकारी नहीं थी तो फिर उन्होंने इसके बारे में ऐसे बयान कैसे दिए और विजय लक्ष्मी पंडित को पत्र कैसे लिखा तथा अपने नोट्स में इसका उल्लेख कैसे किया? उन्होंने विजय लंक्ष्मी पंडित को लिखा हम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में चीन के बदले सदस्यता की अमरीका की पेशकश के पक्ष में नहीं हैं। हम संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद् में चीन के प्रवेश पर बल देंगे। अपनी सोवियत यात्रा के नोट के बारे में उन्होने लिखा हम सुरक्षा परिषद् में चीन के बदले सदस्यता लेने के अमरीका के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि इसका मतलब है कि हम चीन के विरुद्ध जाएंगे और चीन का सुरक्षा परिषद् में न होना उस महान देश के साथ अन्याय होगा। नेहरू ने बुलगानिन से कहा कि मेरा मानना है कि हमें चीन को संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए और यही बात उन्होंने विजय लक्ष्मी पंडित को लिखे पत्र मे कही कि भारत फिलहाल सुरक्षा परिषद् में प्रवेश के लिए चिंतित नहीं है।
सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता के चलते हम कश्मीर और अन्य मुददों पर वीटो कर सकते थे। कुल मिलाकर नेहरू का चीन के प्रति अत्यंत स्नेह था। 25 अक्तूबर 1951 और 8 फरवरी 1925 को डा बीआर अंबडेकर ने नेहरू की चीन नीति की आलोचना की थी। नेहरू के समर्थक इसे चुनावी प्रतिद्वंदिता बताते हैं किंतु भारत ने विदेश नीति कभी भी मुख्य चुनावी मुददा नहीं रहा है और केवल उच्च शिक्षित अंबेडकर जैसे लोग ही चीन के बारे में नेहरू की गलत नीति के बारे में कह सकते थे। नेहरू के इतिहास ओर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के बारे में ज्ञान के कारण वे चीन को समायोजित करना चाहते थे।
वे अमरीका के वर्चस्व से चिंतित थे। वे नहीं चाहते थे कि विभाजन के बाद भारत में अमरीका के रूप में एक नया साम्राज्यवादी स्वामी हो। इसलिए वे अमरीका द्वारा भारत को रक्षा नेटवर्क में खींचने से चिंतित थे और जिसका कारण शायद साम्यवाद के विस्तार पर रोक लगाना था। वे उत्तरी कोरिया द्वारा दक्षिण्या कोरिया पर आक्रमण के परिणामों के बारे में चिंतित थे क्योंकि यह बडी शक्तियों की प्रतिद्वंदिता का कारण बन गया था। दक्षिण कोरिया को अमरीका के नेतृत्व में सहयोगी देश समर्थन दे रहे थे तो उत्तरी कोरिया को सोवियत संघ और चीन समर्थन दे रहे थे और उनका मानना था कि कोरिया विवाद यदि नियंत्रण से बाहर हुआ तो और विश्व युद्ध छिड़ जाएगा और फिर से परमाणु बम का प्रयोग होगा।
अंतर्राष्टÑीय राजनीति के बारे में नेहरू की धारणाओं के कारण उन्होंने भारत को इस ऐतिहासिक अवसर से वंचित किया। शीत युद्ध के दौर में नेहरू ने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनायी किंतु उनका झुकाव सोवियत संघ की ओर रहा। भारत चीन को मान्यता देने पर बल दे रहा था जो एक साम्यवादी और निरंकुश राज्य था तथा लोकतांत्रिक देश अमरीका के विरुद्ध था। इस संबंध में अमरीकी राष्ट्रपति टूूमैन ने खेद व्यक्त किया था कि भारत लोकतांत्रिक देशों से दूर रहा है। इसलिए स्पष्ट है अमरीका ने भारत को मित्रता की पेशकश की थी किंतु नेहरू ने ढुलमुल रवैया अपनाया और इस पेशकश को अस्वीकार किया। भारत द्वारा अमरीका की पेशकश को अस्वीकार करने के बाद अमरीका ने पाकिस्तान के साथ सैनिक समझौता किया। भारत के प्रति इस कदम से इस धारणा को चुनौती मिली कि अमरीका पाकिस्तान और भारत से समान दूरी बनाए रखेगा। यदि भारत सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बन जाता तो पाकिस्तान अमरीका से दूर हो जाता और कश्मीर के मुद्दे पर भारत का पक्ष मजबूत होता। तिब्बत सहित नेहरू की चीन नीति के कारण भारत को काफी नुकसान उठाना पडा। यदि कोई ऐसा कहता है कि भारत ने सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता को चीन को नहीं दिया या नेहरू ने ऐसा कर उचित किया तो उसे इतिहास और भारत के प्रति चीन के दृष्टिकोण की जानकारी नहीं है। इसलिए समय आ गया है कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति और विशेषकर भारत की विदेश नीति में नेहरू द्वारा की गयी भूलों को सुधारा जाए।
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