मसूद अजहर को अंतर्राष्ट्रीय आतंकी घोषित करने के प्रस्ताव को एक बार फिर चीन ने अपनी वीटो शक्ति के उपयोग से रोक दियो ये एक और घटना है जो सोचने पर मजबूर करती है कि क्या संयुक्त राष्ट्र संघह्व वैश्विक शांति स्थापित करने वाला संगठन है या कुछ साम्राज्यवादी शक्तियों का एक कुटनीतिक अस्त्र? चीन को मसूद अजहर से कोई लगाव नहीं है बल्कि चीन भारत का विरोधी है। क्योंकि चीन की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं के मध्य सबसे बड़ी रुकावट भारत ही है। अत: चीन के द्वारा भारत का विरोध स्वाभाविक है।
भारत ने ही चीन और यूएन से कुछ ज्यादा आशाएं बांध रखी हैं। चीन ने मसूद अजहर पर भारत का विरोध किया है परन्तु उइगर मुस्लिमों और तिब्बतियों के मानाधिकारो के हनन में चीन ने सयुंक राष्ट्र संघ के हर समझौते की धज्जियां उड़ाई हैं। पकिस्तान भी चीन की शह पर भारत में आतंक को खुलकर पोषित कर रहा है। परन्तु भारत की सरकारें यूएन के प्रस्तावों की राह देखती रहती हैं। कल जो भी यूएन में हुआ वो कोई पहली बार नहीं हुआ और ना ही भारत अकेला देश है जिसके साथ ऐसा छल हुआ हो यूएन कुछ साम्राज्यवादी देशों के ही हित साधने का साधन मात्र बनकर रह गया है।
अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन व चीन सयुंक्त राष्ट्र संघ के स्थायी सदस्य है और इन्हें ही वीटो क्षमता प्राप्त है। जिसके कारण इन पांच में से कोई भी एक देश किसी भी निर्णय से मात्र असहमति की दशा में बिना किसी कारण के उस प्रस्ताव को रोक सकता है। जिससे साफ हो जाता है की यूएन वैश्विक शांति नहीं अपितु इन पांच महाशक्तियों के हित को साधने की दिशा में ही कार्य कर पाएगा। यूएन में बाकी देशों को सदस्यता तो है परन्तु इस संगठन में पांच स्थायी सदस्य देशों से आगे बढ़कर निर्णयों को प्रभावित करने कोई शक्ति किसी अन्य देश को प्राप्त नहीं है।
जिस कारण से यूएन वैश्विक शांति की दिशा में कभी प्रासंगिक नहीं हो पायो इराक पर अमेरिकी हमले के समय सयुंक्त राष्ट्र प्रतिनिधि सभा में अमेरिकी हमले की जब आलोचना की गयी थी तो अमेरिका ने खुली धमकी दी थी कि सयुंक्त राष्ट्र संघ का हश्र भी लीग आॅफ नेशनंस जैसा ही हो जाएगा कुछ ऐसे ही बयान चीन भी यूएन के सम्बन्ध में दे चुका है। तो साफ है कि इन पांच देशो के सामने ये यूएन पंगु है। वैश्विक आतंकवाद और विभिन्न देशो की साम्राज्यवादी नीति के विरुद्ध वैश्विक शान्ति के हेतु यूएन की स्थापना हुई थी परन्तु अपने इन उद्देश्यों में ही यूएन पूर्ण रूप से असफल सिद्ध हुआ है।
यूएन में स्थायी सदस्यों की संख्या बढ़कर उनमें अन्य देशों को शामिल करने की मांग हमेशा से उठती रही है। परन्तु अमेरिका, चीन, रूस, फ्रÞांस और ब्रिटेन ऐसा नहीं होने देते क्योंकि ये पांच देश यूएन का उपयोग अपनी साम्राज्यवादी नीतियों को सफल और वैश्विक शक्ति का केंद्र बने रहने के लिए करते रहें हैें वर्तमान में ये पाँचों महाशक्तियां यूएन के माध्यम से वैश्विक प्रभुता कायम किये हुए हैें विश्व में भारत, इजराइल, जापान, इटली, जर्मनी, सिंगापुर, आस्ट्रेलिया जैसे कई आर्थिक और सामरिक शक्ति संपन्न राष्ट्र यूएन की कार्य पद्धति से असंतुष्ट हैं और कई बार नए और ज्यादा प्रासंगिक मंच की स्थापना की चर्चाएं भी हुई हैं। यूएन अपनी विश्वसनीयता और गरिमा स्थापित करने में अभी तक तो असफल रहा है।