पुलवामा आतंकवादी हमला और उसके बाद सेना द्वारा की गयी आतंकवाद रोधी कार्यवाही गरमागरम बहस के मुद्दे बने हुए हैं। अति राष्ट्रवादी मीडिया विशेषकर टेलीविजन मीड़िया इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है और आप टीवी स्टूडियों में आमंत्रित श्रौताओं के मुंह से वंदे मातरम के नारे सुन सकते हैं। जनता में भी गलियों, पार्कों, और अन्य स्थानों पर भी विशेषकर पुलवामा हमले के बाद भारत-पाक संबंधों पर चचार्एं हो रही हैं। टीवी चैनलों पर सेना और वायु सेना के सेवानिवृत अधिकारी अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं।
एक टीवी चैनल पर मुझे एक चर्चा के दौरान अलग-अलग रैंक के लगभग 15 पूर्व सैनिक अधिकारी देखने को मिले जो श्रोताओं को आधुनिक युद्ध कला की पेचीदगियां समझा रहे थे। यह देखकर अच्छा लगा कि हमारे पूर्व सैनिक अधिकारी जनता से संवाद कर रहे हैं और जनता को भी पूर्व वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों से बातचीत करने का अवसर मिला। किंतु दलगत राजनीति में यह चर्चा और भी विभाजनकारी बन गई है। आरंभ में राजनीतिक दलों में इस बारे में राजनीतिक आम सहमति थी किंत शीघ्र ही वह आम सहमति समाप्त होने लगी और आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हुआ।
शायद इसकी हम अपेक्षा नहीं कर रहे थे और राजनेताओं को ऐसा व्यवहार शोभा नहीं देता है किंतु शायद वे आगामी चुनावों को ध्यान में रखकर ऐसा कर रहे हैं। लोकतंत्र में दलगत राजनीति में विशेषकर चुनाव के समय पर सरकार के कार्यों के बारे में प्रश्न उठाए जाएंगे। मेरा कहने का तात्पर्य यह है कि विपक्ष को प्रश्न पूछने का हक है किंतु क्या उन्हें सही प्रश्न नहीं पूछने चाहिए। विपक्ष द्वारा पूछे गए प्रश्नों को सत्तारूढ दल द्वारा तोड़-मरोड़कर पेश किया गया और उन्हें राष्ट्र विरोधी दिखाने का प्रयास किया गया। उदाहरण के लिए उरी हमले के 11 दिन बाद भारतीय सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक की और विपक्ष ने इसके प्रमाण मांगें क्योंकि उसका मानना था कि मोदी सरकार यह चुनावी लाभ के लिए कर रही है।
प्रश्न उठता है कि क्या सेना की कार्यवाही पर प्रश्न उठाना सही है जो सेना के कदमों के बारे में आधिकारिक रूप से सूचना दे रही थी। यह सच है कि लोकतंत्र में सेना देश की असैनिक सरकार से आदेश लेती है किंतु भारतीय सेना पूर्णत: गैर-राजनीतिक, पेशेवर, अनुशासित और समर्पित है और वे सत्तारूढ़ पार्टी का भी पक्ष नहीं लेगी। भारत के सैनिक इतिहास में संवेदनशील सुरक्षा स्थिति के बारे में ऐसा कोई प्रमाण नहीं है और अब दूसरी सर्जिकल स्ट्राइक के बारे में विपक्ष मारे गए आतंकवादियों के बारे में सबूत मांग रहा है और इसका कारण शायद अमित शाह का यह दावा है कि इस हमले में 250 आतंकी मारे गए।
किंत यह साबित करना अमित शाह का कार्य है और इस बारे में देश की जनता को स्पष्टीकरण उन्होंने ही देना है न कि विपक्ष ने। एक टीवी चैनल पर मैं एक पूर्व कर्नल से बात कर रहा था जिसने मुझसे पूछा कि क्या मारे गए आतंकवादियों की संख्या महत्वपूर्ण है? क्या यह पर्याप्त नहीं है कि भारतीय वायु सेना पाकिस्तान के भूभाग में बहुत दूर तक गयी और वहां अपने लक्ष्य को भेदकर आयी? मुझे उस सैन्य अधिकारी की पीड़ा का अहसास हो रहा था कि मानो उसके शौर्य और पराक्रम की उपेक्षा की जा रही हो।
मैंने उस कर्नल से कहा कि मारे गए आतंकवादियों की संख्या महत्वपूर्ण नहीं है। भारतीय वायु सेना ने जो कदम उठाया वह प्रशंसनीय है। एक नागरिक के रूप में मुझे बताया गया कि लक्ष्य का संकेत सरकार देती है और सेना का कार्य उस लक्ष्य को भेदना होता है और इसीलिए भारतीय वायु सेना ने भी कहा है कि मारे गए आतंकवादियों की संख्या गिनना उसका काम नहीं है। वह सरकार का काम है। इसलिए विपक्ष इस कार्यवाही के परिणाम के बारे में सरकार से प्रश्न पूछने के मामले में सही है क्योंकि सत्ता पक्ष के दावों का सत्यापन नहीं किया जा सकता है।
किंतु एक स्वतंत्र राजनीतिक विश्लेषक के लिए यह गलत प्रश्न है क्योंकि ऐसे प्रश्नों से जाने-अनजाने सेना की संचालनात्मक क्षमता पर प्रश्न उठाए जाते हैं और इन प्रश्नों को जनता भी स्वीकार नहीं करती है और न ही सेना पसंद करती है।
हम कह सकते हैं कि विपक्ष को सेना की कार्यवाही के बारे में दूर-दूर तक प्रश्न नहीं उठाने चाहिए। विपक्ष राजनीतिक, रणनीति, कूटनयिक कुशलता आदि के बारे में प्रश्न उठा सकता है। विपक्ष पूछ सकता था कि कश्मीर में एक घर में 400 किलो आरडीएक्स कैसे पहुंचा और एक 20 वर्ष के बच्चे ने उसको कैसे उड़ाया? कश्मीर में खुफिया जानकारी और निगरानी का क्या हुआ? क्या खुफिया तंत्र की विफलता के लिए किसी को दंड़ित किया गया? इस बारे में कोई जांच क्यों नहीं की गयी? दोषी व्यक्ति की पहचान कर उसे दंड़ित क्यों नहीं किया गया? क्या सीमा पर मौतें जारी रहेंगी? पुलवामा और सर्जिकल स्ट्राइक के पहले और बाद हर दिन हमारे सैनिक मारे जा रहे हैं। यह खून खराबा कब रूकेगा और इसे रोकने के लिए सरकार की रणनीति क्या है?
क्या ब्रिक्स देशों ने इसकी निंदा की? क्या सार्क ने कोई रूख अपनाया? हमारे किसी भी पड़ोसी देश ने इसकी निंदा क्यों नहीं की जबकि मोदी सरकार ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में उन सबको आमंत्रित किया था। आज वे कहां हैं? ईरान के साथ हमारे क्या समीकरण हैं? पाकिस्तान के मामले में दोनो देशों का रूख एक जैसा हैं किंतु ईरान के साथ घनिष्ठ संबंध बनाने के क्रम में हम अमरीका को कैसे विश्वास में लेंगे क्योंकि वे दोनों आपस में प्रबल प्रतिद्वंदी हैं।
डॉ. डीके गिरी
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