भारतीय उपमहाद्वीप भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष की चपेट में है और दोनों देशों की ओर से युद्ध घोष हो रहा है। भारत को पाकिस्तान से निपटने के लिए हर संभव कदम उठाने चाहिए ताकि वह अपने भूभाग से भारत पर आतंकवादी हमले रोके। हमारे यहां सार्वजनिक चचार्ओं में तथा शायद विदेश नीति की भी यही सोच है कि पाकिस्तान को मिटाया जा सकता है किंतु यह आसान नहीं है। इस लेख में मैं पाकिस्तान के विभिन्न घटकों के साथ निपटने के लिए एक से अधिक कारकों की पहचान करने का प्रयास कर रहा हूं।
पाकिस्तान में पांच महत्वपूर्ण कारक हैं पहला, सेना, असैनिक सरकार, नागरिक समाज, कश्मीर और इस्लाम। इन पांचों कारकों को एक मानना विसंगति होगा। हालांकि इनमें से हर कोई एक दूसरे के समान मजबूत नही है तो एक पड़ोसी देश के रूप में पाकिस्तान को समझने और एक कट्टर दुश्मन के रूप में उससे निपटने के लिए इन पांचों कारकों को समझना आवश्यक होगा। इन पांचकों कारकों में सबसे शक्तिशाली सेना है जो आतंकवाद को प्रश्रय देती है और यहां तक कि उसी के सहारे जीती है।
अफगानिस्तान में पूर्व खुफिया प्रमुख रहमुल्ला नाबिल ने कहा है पाकिस्तानी सेना 47 से 48 आतंकवादी समूहों को प्रश्रय देती है और इनका उपयोग पड़ोसी देशों में करती है। वह आतंकवाद का उपयोग एक औजार और युक्ति के रूप में करती है। पाकिस्तान में सेना की तूती बोलती है। वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सरकार को नियंत्रित करती है। पाकिस्तान के 75 वर्षों के इतिहास में 33 वर्षों तक सेना का शासन रहा है। अत: प्रश्न उठता है कि उसकी सेना इतनी शक्तिशाली कैसे बनी? इसके लिए अनेक बातें जिम्मेदार हैं।
विभाजन के समय पाकिस्तान को औपनिवेशक भारत का 17 प्रतिशत राजस्व मिला और उसकी सेना संगठित सेना थी और औपनिवेशिक सेना का 33 प्रतिशत उसे मिला जिससे नई सरकार को सहायता मिली और अपने परोक्षियों के माध्यम से और नेहरू की उदासीनता के कारण कश्मीर का विभाजन करवाया और इससे राजनीति में सेना के वर्चस्व का एक बहाना मिल गया।
पाकिस्तान का दूसरा विभाजन 1971 में हुआ और बंगलादेश का निर्माण हुआ। भारत ने पाक सेना को हराया और उस समय से पाक सेना भारत से खार खाई हुई है और वह हमेशा उससे बदला लेना चाहती है और उस पर हजारों घाव करना चाहती है। पाक सेना को सोवियत संघ द्वारा 1979 में अफगानिस्तान पर हमले से भी बल मिला। सोवियत संघ की विस्तारवादी नीति से चिंतित अमरीका ने पाकिस्तान को अरबों डालर और अत्याधुनिक सैन्य साजो-सामान दिया और पाकिस्तान ने तालिबान खड़ा किया जो भारत के विरुद्ध युद्ध में उसका सहयोगी बना।
1989 में अफगानिस्तान से सोवियत संघ के हटने के बाद अमरीका ने पाकिस्तान को तालिबान से मुकाबला करने के नाम पर सहायता जारी रखी और यह अमरीका की सबसे बड़ी भूल थी जिससे वह अभी तक नहीं उबर पाया। अमरीका यह नहीं समझ पाया कि जिस सेना ने तालिबान को खड़ा किया वही सेना अमरीका के साथ सौदेबाजी के लिए तालिबान का उपयोग कर रही है। अमरीका जानता था कि जो पैसा और सैन्य साजो सामान वह पाकिस्तान को दे रहा है वह उसका उपयोग भारत के विरुद्ध कर सकता है किंतु उसने उसकी परवाह नहीं की और अभी कुछ दिन पहले ही अमरीका ने जो एफ 16 विमान आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए पाकिस्तान को दिए थे उसका उपयोग भारत के विरुद्ध हुआ। पाकिस्तानी सेना और उसके वरिष्ठ अधिकारियों का आतंकवादी हिंसा में हित है।
इससे उन्हें पैसा मिलता है और प्रत्येक कार्य के लिए समर्थन मिलता है। सेना के वरिष्ठ अधिकारियों के विदेशों में मोटे बैंक खाते हैं, उनके बच्चे और परिवार विकसित देशों में रहते हैं और यदि वे इस सबको रोक दें तो उनका गुजारा कैसे होगा। पाकिस्तान सेना को आतंकवाद के प्रायोजन के लिए पैसा मिलना बंद होना चाहिए। अमरीका ने इसकी शुरूआत कर दी है। अन्य देशों को भी ऐसा करना चाहिए। मानवता के हित में अन्य देशों को भी कहा जाना चाहिए कि वे पाकिस्तान को पैसा न दें क्योंकि जो लोग तलवार के दम पर बढ़ते हैं उनका नाश भी तलवार से ही होता है।
पाकिस्तान में दूसरा कारक असैनिक सरकार है जिसकी शक्ति और प्रभाव सेना के साथ उसके समीकरणों पर निर्भर करता है। असैनिक सरकार ने कई बार सेना पर अंकुश लगाने का प्रयास किया किंतु सेना ने इसे नाकाम किया। नवाज शरीफ ने जब सेनाध्यक्ष जनरल परवेश्ज मुर्शरफ को हटाने का प्रयास किया तो परवेज मुशर्रफ ने उनका तख्ता पलट किया और अपनी सरकार बनायी। पाकिस्तान में असैनिक सरकार वार्ता और कूटनीति के माध्यम से भारत के साथ संबंध बनाना चाहती है किंतु सेना अपने निहित स्वार्थों के कारण ऐसा होने नहीं देती। इसलिए इस क्षेत्र में भारत और अन्य देशों को पाकिस्तान की असैनिक सरकार को मजबूत करने का प्रयास करना चाहिए।
किंतु क्या अमरीका, रूस और चीन जैसी बड़ी शक्तियां ऐसा चाहती हैं? शायद नहीं। क्योंकि उनकी अर्थव्यवथा आंशिक रूप से हथियारों की बिक्री पर निर्भर है। वे चाहते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में कुछ तनाव के केन्द्र बने रहें। इसलिए यह भारत के हित में है कि अभी के युद्ध के माहौल में नहीं किंतु दीर्घकाल में उसे यह रणनीति अपनानी चाहिए। पाकिस्तान में तीसरा महत्वपूर्ण कारक नागरिक समाज है किंतु वहां की सेना के आगे उसकी नहीं चलती है। किंतु मेरा व्यक्तिगत अनुभव बताता है कि पाकिस्तान के लोग भारत को पसंद करते हैं। वे भारत के साथ मैत्री और शांति चाहते हैं। वे भारत के साथ व्यापार बढाना चाहते हैं।
यूरोप में व्यापार के कारण एकता स्थापित हुई और यूरोपीय संघ का उदय हुआ। क्या इस उपमहाद्वीप में भी दोनों देशों के बीच खून खराबा बंद हो सकता है और वे भी एक संघ का निर्माण कर सकते हैं? कश्मीर और इस्लाम पाकिस्तान में चौथे और पांचवें महत्वपूर्ण कारक हैं। वे आपस में जुड़े हुए हैं। मुस्लिम बहुल कश्मीर राज्य के हिन्दू राजा ने कश्मीर का भारत के साथ विलय कराया और पाकिस्तान इसे अवैध मानता है। उस समय अन्य रजवाड़े भी भारत में शामिल हुए। इसलिए धार्मिक बहुलता के आधार पर पाकिस्तान का कश्मीर पर कोई दावा नहीं है। भारत में पाकिस्तान से भी अधिक मुसलमान रहते हैं। यहां इसाई बहुल राज्य भी हैं।
कश्मीर के तीन भाग हैं – जम्मू, कश्मीर और लद्दाख। जम्मू हिन्दू बहुल है तो लद्दाख बौध बहुल क्षेत्र है इसलिए पाकिस्तान को अपने कब्जे वाले कश्मीर को खाली कर देना चाहिए और फिर कश्मीर में शांति और सुरक्षा की बात करनी चाहिए। पाकिस्तान एक मुस्लिम बहुल राज्य है किंतु वहां 70 लाख से अधिक लोग हिन्दू, इसाई, सिख और अन्य धर्मों के हैं। अन्य इस्लामिक देशों के साथ भी भारत के अच्छे संबंध है। इसलिए भारत-पाक संबंधों में इस्लाम को लाना गलत है। यह पाकिस्तान की कूटनीति में एक बड़ा कारक है क्योंकि वह धर्म के नाम पर सऊदी अरब जैसे अन्य मुस्लिम देशों का समर्थन मांगता है किंतु अब इस्लामिक देश भी आतंकवाद की कटु सच्चाई से अवगत होने लगे हैं। कुल मिलाकर भारत-पाक और विशेषकर कश्मीर समस्या का समाधान सैनिक समाधान नहीं है।
पाकिस्तान यह समझता है वहां की असैनिक सरकार इसे स्वीकार करती है और पाकिस्तान के वर्तमान प्रधानमंत्री इमरान खान इस बात को खुले रूप से कहते हैं किंतु वे जमीनी स्तर पर कुछ नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनकी सेना ऐसा करने नहीं देती है। भारत भी जानता है कि युद्ध या सैन्य संघर्ष इसका समाधान नहीं है किंतु यदि पाकिस्तानी सेना सुधरती नहीं है तो उसे प्रतिकार करना होगा। इसलिए क्या राजनीतिक दृष्टि से यह उचित नहीं होगा कि पाकिस्तान में उन विभिन्न कारकों को बढावा दिया जाए जो वास्तव में वार्ता करना चाहते हैं और शांति स्थापना के पक्षधर हैं?