जंगल जो आदिवासियों की अस्मिता है। जहां उनकी जिन्दगी की गुजर-बसर होती है। उस जंगल और जमीन से (Tribal is the Asmita forest) लाखों आदिवासियों को बेदखल होना पड़ेगा। वजह, आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए बने ‘जंगल का अधिकार’ कानून का मोदी सरकार अदालत में ठीक ढंग से बचाव नहीं कर सकी, जिसके चलते सर्वोच्च न्यायालय ने यह आदेश दिया कि केन्द्र और राज्य सरकारें, जुलाई तक उन सभी आदिवासियों को बेदखल कर दें, जिनके वनभूमि स्वामित्व के दावे खारिज हो गए हैं। जस्टिस अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ में जिसमें जस्टिस नवीन सिन्हा और जस्टिस इंदिरा भी शामिल थी ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि राज्य सरकारें यह सुनिश्चित करेंगी कि जहां दावे खारिज करने के आदेश पारित कर दिए गए हैं, वहां सुनवाई की अगली तारीख को या उससे पहले निष्कासन शुरू कर दिया जाएगा।
अगर उनका निष्कासन शुरू नहीं होता है, तो अदालत उस मामले को गंभीरता से लेगी। बहरहाल मामले की अगली (Tribal is the Asmita forest) सुनवाई 27 जुलाई को है और इस तारीख तक राज्य सरकारों को अदालत के आदेश से आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल करने का काम शुरू कर देना होगा। अदालत के इस आदेश ने देश के छत्तीसगढ़, ओड़िशा, राजस्थान, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, झारखंड, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, असम, त्रिपुरा समेत 16 राज्यों के 10 लाख से ज्यादा आदिवासियों और जंगल में रहने वाले मूल निवासियों की चिंताएं बढ़ा दी हैं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि वे इस मुश्किल घड़ी में क्या करें ? जिस जंगल पर वे सदियों से रह रहे हैं, उस जंगल की जमीन से अब उन्हें उजाड़ दिया जाएगा। यदि केन्द्र और राज्य सरकारों ने अभी भी कुछ नहीं किया, तो यह पहला मामला होगा, जब देश में जंगलों से इतने बड़े पैमाने पर जनजाति समुदायों को एक साथ बेदखल होना पड़ेगा।
शीर्ष अदालत का यह आदेश, एक एनजीओ ‘वाइल्ड लाइफ फर्स्ट’ और दीगर पर्यावरण संगठनों द्वारा दायर की गई याचिका के संबंध में आया है। जिसमें उन्होंने वन अधिकार अधिनियम की वैधता पर सवाल उठाते हुए, यह मांग की थी कि वे सभी आदिवासी जिनके पारंपरिक वनभूमि पर दावे कानून के तहत खारिज हो गए हैं, उन्हें राज्य सरकारों द्वारा निष्कासित कर दिया जाना चाहिए। ‘जंगल का अधिकार कानून’, संविधान के खिलाफ है और इसकी वजह से जंगलों की कटाई में तेजी आ रही है। बहरहाल जब अदालत में सुनवाई शुरू हुई, तो केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने इस कानून पर सरकार का पक्ष सही तरह से नहीं रखा। कई तथ्यों को अदालत में पेश ही नहीं किया गया।
वन अधिकार कानून को चुनौती देने वाली इस याचिका पर वह मूक दर्शक बनी रही। यहां तक कि मामले की पिछली तीन सुनवाई जो पिछले साल मार्च, मई और दिसंबर में हुईं, उसमें केंद्र सरकार की ओर से अदालत के सामने कोई सशक्त दलील पेश नहीं की गई। आखिरी सुनवाई में तो उसने अपने वकीलों को ही नहीं भेजा। जिसकी वजह से अदालत ने एकतरफा फैसला सुनाते हुए, उसे आदेश दिया कि वह जंगल की जमीनों से अयोग्य दावेदारों को बेदखल कर दे। कांग्रेस नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के पहले कार्यकाल में पारित होने वाले ‘वन अधिकार अधिनियम-2006’ के तहत सरकार को निर्धारित मानदंडों के विरुद्ध आदिवासियों और अन्य वनवासियों को पारंपरिक वनभूमि वापस सौंपना थी। कानून के तहत वे लोग जिनका 13 दिसम्बर, 2005 से पहले वन भूमि पर कब्जा रहा है और वे वहां खेती कर रहे हैं, उन लोगों को जमीन का अधिकार और पट्टा दिया जाए। उन्हें अपने जीवनयापन के लिए व्यक्तिगत या सामूहिक वन भूमि को जोतने और उसमें रहने का अधिकार होगा। वे लघु वनोपज का संग्रहण, उसका उपयोग और उसे बेच सकेंगे। वहां की ग्रामसभा उन्हें यह अधिकार दे सकती है। बिना ग्रामसभा की इजाजत के सरकार किसी को भी इस जमीन से हटा नहीं सकती।
जिन वन भूमि से जनजातीय लोगों को असंवैधानिक तरीके से बिना पुनर्वास के हटा दिया गया हो, उस जमीन पर या उस दूसरी जमीन पर उन्हें अधिकार देना होगा। जाहिर है कि आदिवासियों के लिए यह एक क्रांतिकारी कानून था। कानून का मकसद, आदिवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को दूर करना था। कानून का फायदा आदिवासी समुदाय को हुआ भी। लेकिन कुछ समय बाद ही इस कानून का विरोध होने लगा। वन अधिकारियों के साथ कुछ वन्यजीव समूहों, पर्यावरणविदों और प्रकृति प्रेमियों ने यह कहकर, इस कानून का विरोध किया कि इससे जंगल और वन्यजीवों का जीवन प्रभावित हो रहा है। जंगल उजड़ रहे हैं। जबकि आदिवासी और जनजाति समूह सदियों से जंगल के पहरेदार रहे हैं। जहां-जहां भी आदिवासी हैं, वहां जंगल आज भी संरक्षित हैं। जंगल को यदि किसी ने नुकसान पहुंचाया है, तो वे वो लोग हैं, जिन्हें इसे बचाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। सरकार की वे नीतियां जिम्मेदार हैं, जो विकास के नाम पर जंगल की जमीनों को लगातार निजी पूंजीपतियों को सौंप रही हैं।
‘जंगल का अधिकार कानून’ अमल में आने के बाद देश की तमाम राज्य सरकारों के पास जमीन के अधिकार के लिए तकरीबन 42.19 लाख दावे पहुंचे, जिसमें से सिर्फ 18.89 लाख दावों को ही स्वीकार किया गया। बाकी दावे खारिज कर दिए गए। जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा एकत्र आंकड़ों के मुताबिक 30 नवंबर, 2018 तक देश भर में 23 लाख दावों को खारिज कर दिया गया था। जाहिर है कि अदालत के आदेश की वजह से देश के लगभग 20 लाख 30 हजार आदिवासी और वनवासी परिवार प्रभावित हो सकते हैं। जो कि छोटी संख्या नहीं है। केन्द्र सरकार को इसके बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए।
यदि इतने सारे लोगों को उनकी जमीन और घरों से बिना उचित पुनर्वास के उजाड़ दिया गया, तो वे कहां जाएंगे ? उनकी कौन सुनवाई करेगा ? केन्द्र की मोदी सरकार और तमाम बीजेपीशासित राज्य सरकारों ने आदिवासी समुदाय की हमेशा उपेक्षा की है। आलम यह है कि इतने बड़े जनजातीय समुदाय के सम्यक विकास के लिए उसके पास कोई सुसंगत नीति नहीं है। संप्रग द्वितीय सरकार के दौरान प्रोफेसर वर्गीस खाखा की नेतृत्व में आदिवासियों की सामाजिक, आर्थिक स्थिति जानने के लिए एक उच्च स्तरीय कमेटी बनी थी, जिसने अपनी रिपोर्ट साल 2014 में सरकार को सौंप दी थी। लेकिन इस रिपोर्ट की सिफारिशों पर अमल करना तो दूर, मोदी सरकार ने इस पर ढंग से बात भी नहीं की है।
आदिवासी समुदाय और जनजाति समूहों के बीच काम करने वाले सामाजिक कार्यकतार्ओं का कहना है कि वनाधिकार कानून में दावा निरस्त करने का कोई प्रावधान ही नहीं है। वन अधिकार अधिनियम की धारा 4 (5) के तहत किसी भी आदिवासी को बिना किसी उचित प्रक्रिया के बेदखल नहीं किया जा सकता है। वनाधिकार कानून में ग्रामसभा सर्वोच्च संस्था है। व्यक्तिगत दावे के लिए पहले ग्रामसभा को आवेदन देना होता है। यहां से उसे उपमंडलीय अधिकारी को भेजा जाता है। फिर राजस्व और वन विभागीय अधिकारी तय करते हैं कि किसे अधिकार दिया जाए। कानून कहता है कि आवेदन में कोई कमी या गलती है, तो उसे वापस भेजा जाए और आवेदक को दोबारा आवेदन देने के लिए कहा जाए। आवेदन निरस्त नहीं किया जाए। क्योंकि जब किसी आवेदन को ग्रामसभा ने अपनी स्वीकृति दे दी है, तो उसे निरस्त करने का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। सर्वोच्च न्यायालय ने इसी आधार पर अपना फैसला दिया है कि जिनके दावे निरस्त हो गए हैं, उन्हें बेदखल किया जाए।
जबकि ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जिसमें दावों को गलत तरीके से खारिज कर दिया गया है। आदिवासी और जनजातीय समुदाय के जल, जंगल और जमीन के अधिकार सुनिश्चित रहें, इसके लिए जरूरी है कि मोदी सरकार और तमाम राज्य सरकारें, शीर्ष अदालत के आदेश के खिलाफ अविलम्ब पुनर्विचार याचिका दाखिल करें। ताकि उनके साथ देश में कहीं कोई नाइंसाफी न हो। वे सम्मान के साथ अपना जीवन जी सकें।
लेखक: जाहिद खान
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