हिन्दी साहित्य में आलोचना को समृद्ध करने वाले शीर्षस्थ आलोचक नामवर सिंह आज हमारे बीच नहीं रहे। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में बीमारी से जूझते हुए 92 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। आखिरी दम तक वे हिन्दी साहित्य की सेवा करते रहे। नामवर सिंह का हमारे छोटे से शहर शिवपुरी में भी, दो बार आना हुआ था। नामवर सिंह ने प्रगतिशील लेखक संघ के दो बड़े आयोजनों में शहर में शिरकत की थी। साल 1993 में वे पहली बार उस वक्त शिवपुरी में आए, जब संगठन ने एक बड़ा आयोजन ‘दलित कलम’ आयोजित किया। उसके एक दशक बाद साल 2005 में फिर उनका आना हुआ।
मौका था, प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सज्जाद जहीर की जन्मशती आयोजन ‘विरासत: सज्जाद जहीर’ का। दोनों ही आयोजनों में वे विषय पर खुलकर बोले। बीसवी सदी के नवें दशक में हिन्दी साहित्य के अंदर अस्मितावादी विमर्श शुरू हुए। दलित विमर्श और स्त्री विमर्श दोनों इसी दशक की देन हैं। नामवर सिंह शुरूआत में इन विमर्शों से इत्तेफाक नहीं रखते थे। ‘दलित कलम’ के समय भी कमोबेश उनकी इसी तरह की राय थी। लेकिन शहर में दो दिन के चार सत्रों में जो चर्चा चली, जिसमें राजेन्द्र यादव, मैनेजर पांडेय, सदा कन्हाड़े, चंद्रकांत पाटिल, अब्दुल बिस्मिल्लाह और कमला प्रसाद पांडेय ने भागीदारी की।
नामवर सिंह की विद्वता का कोई सानी नहीं था। हिन्दी साहित्य का कोई सा भी विषय हो, वे धारा प्रवाह बोलते थे। उनको सुनने वाले श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे। हिन्दी साहित्य में उनका स्टार जैसा मर्तबा था। उन्हें हिन्दी साहित्य का लिविंग लेजेंड कहा जाता था। मुझे याद है कि कार्यक्रम खत्म हुआ, तो नगर के नौजवान साहित्यकारों ने उन्हें चारों और से घेर लिया। उनके साथ फोटो खिचाए और आॅटोग्राफ लिए।
उन्होंने सभी के साथ मुस्कराते हुए फोटो खिचवाए। नामवर जी के साथ कमोबेश ऐसा ही नजारा मैंने हर जगह देखा। ग्वालियर, भोपाल, इंदौर से लेकर नई दिल्ली तक जहां वे सालों रहे, नौजवान साहित्यकारों के बीच उनका ऐसा ही जलवा और मर्तबा देखा। नामवर जी का साहित्यकारों और पाठकों में किस तरह की लोकप्रियता और दीवानापन था, गर इसे जानना-समझना है, तो थोड़ी देर के लिए सोशल मीडिया को खंगालिए, अखबारों के पन्ने पलटिए, सब कुछ नामवरमय नजर आएगा। नामवर जी को लेकर सबकी अपनी-अपनी यादें, राय, नजरिया और तजुर्बे हैं। इन सब में एक बात समान है, हर एक ने उनसे कुछ सीखा था। कुछ लोग जो जिन्दगी भर नामवर सिंह के विचारों से असहमत रहे और उनकी आलोचना करते रहे, वे भी उन्हें आज किसी न किसी तौर पर याद कर रहे हैं। नामवर जी के साथ मेरी कई व्यक्तिगत यादें हैं
। उन्हें याद करता हूं, तो जज्बाती हो जाता हूं। उनसे पहली मुलाकात इंदौर में प्रगतिशील लेखक संघ के राज्य सम्मेलन में हुई। फिर तो आगे भी यह मुलाकात का सिलसिला जारी रहा। मेरी पहली किताब का विमोचन साल 2009 में भोपाल में उन्हीं के हाथों हुआ। उन दिनों मैं, भोपाल में ही पत्रकारिता कर रहा था। मालूम चला कि ‘मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के वार्षिक कार्यक्रम में वे आ रहे हैं। यह सुना तो उस वक्त के सम्मेलन के अध्यक्ष कमला प्रसाद जी से मैंने किताब के विमोचन के बारे में बात की और कार्यक्रम में अपनी किताब लेकर पहुंच गया।
वादे के मुताबिक किताब का विमोचन नामवर जी के ही हाथों हुआ। उस दिन मैंने जाना कि अजीम शख्सियतें कैसे बनती हैं और वे किस तरह से दूसरों से जुदा होती हैं। मंच पर आसीन साहित्यकारों नामवर सिंह, चन्द्रकांत देवताले, राजेश जोशी, भगवत रावत, विजय कुमार, पूर्णचंद्र रथ को किताबें थमा, मैं नौसिखिया रचनाकार की तरह किनारे खड़ा हो गया। नामवर जी ने यह देखा, तो फौरन सब कुछ भांप गए। मुझे पहले बीच में बुलाया और कहा किताब से आप भी हाथ लगाओ। किताब के विमोचन के बाद जैसे ही मैं, मंच से उतरने लगा, तो वे बोले, ‘‘इस किताब पर आपने मेरे लिए कुछ लिखा तो है नहीं। भई इस पर कुछ लिखिए, तो सही !’’
एक किस्सा और याद आता है। ‘विरासत: सज्जाद जहीर’ आयोजन के समय कहानीकार तरुण भटनागर और मैं जैसे ही फुर्सत मिली, राजेन्द्र यादव जी का इंटरव्यू लेने होटल पहुंच गए। होटल के कमरे में राजेन्द्र जी और नामवर जी दोनों आपस में बात कर रहे थे। मैंने राजेन्द्र जी से जैसे ही इंटरव्यू की मंशा जतलाई, तो नामवर जी यह कहकर उठ खड़े हुए कि ‘‘अब आप जवान लोग आपस में बातचीत करो, मैं बुजुर्ग आपके बीच क्या करुंगा।
और यह कहकर कमरे से बाहर चले गए।’’ आज सोचता हूं, तो लगता है कि कैसा बचपना था, राजेन्द्र जी से तो बात की लेकिन हिन्दी के शलाका पुरुष से औपचारिक बातचीत का सुनहरा मौका गंवा दिया। साल 1959 में उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर उत्तर प्रदेश के चंदौली से लोकसभा चुनाव भी लड़ा। लंबे समय तक प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रहे। नामवर सिंह की प्रतिभा का उनके समकालीन भी लोहा मानते थे। बाबा नागार्जुन ने उन्हें चलता-फिरता विद्यापीठ बतलाया था, तो विश्वनाथ त्रिपाठी उन्हें अज्ञेय के बाद हिंदी का सबसे बड़ा ‘स्टेट्समैन’ मानते थे।
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