राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार 55 फीसदी महिलाएं एनीमिया की शिकार
- जन्म के 24 घंटे के भीतर 20 प्रतिशत शिशुओं की होती है मौत
- हरियाणा की 55 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया की शिकार
- बेहतर चिकित्सा सुविधाओं के बाद भी हरियाणा की स्थिति शर्मनाक
सच कहूँ/संजय मेहरा
गुरुग्राम। छोटा राज्य होने के चलते हरियाणा में विकास का ढोल तो खूब पीटा जाता है, लेकिन यहां जन्म-मृत्यु दर के आंकड़ों पर जब नजर डाली जाए तो पता चलता है कि हम इस विकास की आंधी में अपनी महिलाओं को मातृत्व सुख देने की बजाय बहुत बड़ा दुख दे रहे हैं। यानी यहां पर मां बनने वाली 20 प्रतिशत महिलाओं की गोद बच्चे के जन्म के मात्र 24 घंटे के भीतर ही सूनी हो जाती है। पोषण की कमी से उनके कलेज के टुकड़़े उनसे छिन जाते हैं।
हरियाणा में नवजात शिशुओं की मृत्यु के एक-तिहाई से भी अधिक मामलों में मां की पोषण की कमी जिम्मेदार है। हरियाणा न्यू बोर्न एक्शन प्लान (एचएनएपी) के अनुसार गर्भवती मां को होने वाली पोषण की कमी राज्य में नवजात बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण है। इसमें वे मामले भी शामिल हैं, जिनमें जन्म से पहले ही बच्चे की मौत हो जाती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4) के आंकड़ों के अनुसार करीब 55 फीसदी महिलाएं एनीमिया की शिकार हैं।
60 प्रतिशत बच्चों की मौत जन्म के पहले दिन ही हो जाती है
करीब 20 प्रतिशत मृत्यु के मामले जन्म के बाद 24 घंटों के भीतर घटित होते हैं। तब जच्चा-बच्चा घर पर होते हैं। उन सभी बच्चों में से जिनकी मौत जीवन के पहले महीने में ही हो जाती है, करीब 80 प्रतिशत जीवन के पहले सप्ताह में ही मर जाते हैं। रिपोर्ट के अनुसार पहले महीने होने वाली मौतों में से करीब 60 प्रतिशत बच्चों की मौत जन्म के पहले दिन ही हो जाती है। ऐसी स्थिति प्राइवेट और सरकारी अस्पतालों में जन्म लेने वाले बच्चों के मामले में भी दिखाई देती है। करीब 20 प्रतिशत नवजातों की मृत्यु जन्म के पहले 24 घंटों के भीतर उनके घर पर होती है।
तय समय से पहले जच्चा-बच्चा को दे देते हैं छुट्टी
यहां पारस अस्पताल में एचओडी-पीडियाट्रिक्स एंड नियोनेटोलॉजी डॉ. मनीष मनन कहते हैं कि हरियाणा में संस्थानिक डिलिवरी दर करीब 90 प्रतिशत है। मगर नवजात मृत्यु दर (आईएमआर) के मामले में अन्य राज्यों की तुलना में राज्य की स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी है। इस कारण से अस्पतालों से जच्चा-बच्चा को आॅब्जर्वेशन की तय समय सीमा से पहले ही छुट्टी दे दी जाती है। जबकि उनकी सेहत पर नजर रखने के लिए उन्हें अस्पताल में रखना जरूरी होता है। क्योंकि इस दौरान नवजात में किसी भी तरह की बीमारी आदि का पता चल जाता है। सभी संस्थानिक डिलिवरी के मामलों में 48 घंटे का आॅब्जर्वेशन पीरियड अनिवार्य किया जाना चाहिए।
एमजीडीजी हासिल करना हो रहा है कठिन
शिशुओं की इस तरह से मौतों के कारण संयुक्त राष्ट्र द्वारा तय मिलेनियम डेवेलपमेंट गोल (एमडीजी) को हासिल करना कठिन हो रहा है। भारत के राज्य स्तरीय बीमारियों के बोझ सम्बंधी रिपोर्ट के अनुसार 14 साल उम्र तक होने वाली मौतों में से 37.3 प्रतिशत मामलों में पोषण की कमी जिम्मेदार होती है। यदि हम राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-4) के आंकड़े देखें तो आज भी यह समस्या राज्य की आधी से ज्यादा महिलाओं में प्रभावी है। जागरूकता के मामले में हमें तुरंत ऐसे कदम उठाने की जरूरत है, जिनके जरिए उन सामाजिक दिक्कतों को दूर किया जा सके।
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