पटियाला में अध्यापकों के प्रदर्शन में जल तोपों की मूसलाधार बारिश हुई और साथ ही पुलिस ने अध्यापकों पर लाठियां भी चलाई। जब मामले ने तूल पकड़ा तो मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह ने अध्यापकों को कुछ समय का इंतजार करने की अपील की और साथ ही उन अध्यापकों की मांगों का समाधान निकालने का भरोसा भी दिया। सवाल यह उठता है कि आखिर इस प्रकार के हालात ही क्यों पैदा होते हैं? एक दिन पहले ही तय था कि अध्यापक बड़ा संघर्ष करेंगे और हुआ भी।
इसी तरह अध्यापकों ने जोश व भावुकता में आकर पुलिस के बैरीकेड तोड़ डाले। दो नाकों को तोड़कर अध्यापक मुख्यमंत्री की रिहायश मोती महल की तरफ बढ़े। इस दौरान हुई झड़प में दर्जनों अध्यापक व कुछ पुलिस कर्मचारी भी घायल हुए। पुलिस प्रबंध भी अध्यापकों की तैयारियों को देखकर किए गए थे, फिर इस स्थिति को अगले दिन टकराव तक क्यों लटकाया गया। यदि मुख्यमंत्री एक दिन पहले ही इंतजार करने की अपील कर देते और कर्मचारी संगठनों को मिलने का भरोसा देते तब यह टकराव का माहौल टल सकता था। अध्यापकों का भी हमलावर रवैया गलत है।
लोकतंत्र में इस प्रकार के टकराव को स्वीकार नहीं किया जा सकता लेकिन इस मामले में सरकार की भूमिका व रवैया भी नकारात्मक है। लगभग एक माह पूर्व शिक्षा मंत्री भी अध्यापकों को भरोसा दे चुके थे कि वह अध्यापक नेताओं की मुख्यमंत्री के साथ मीटिंग करवाएंगे। इस भरोसे के बावजूद शिक्षा विभाग ने कोई कार्यवाही नहीं की। सरकार के साथ अध्यापकों की दस बैठकें होने के बावजूद समस्या का समाधान नहीं हो सका। अध्यापकों का मामला जब कानून का मामला बन जाए तो सरकार अपनी नाकामी को छुपा नहीं सकती। यूं भी शिक्षा के लिए ठोस नीतियां बनानी चाहिए, इसमें किसी की मनमर्जी नहीं हो।
शिक्षा मंत्री पटियाला के धरने में पहुंचकर भी अध्यापकों को विश्वास में लेने में कामयाब नहीं हुए जिस कारण मुख्यमंत्री को ही दखल देना पड़ा। शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में टकराव का माहौल शिक्षा के पतन का प्रमाण है। अध्यापकों को पीटकर शिक्षा व्यवस्था में भलाई की उम्मीद नहीं की जा सकती। सरकार शिक्षा क्षेत्र को गंभीरता से ले और अध्यापकों की समस्याओं का हल निकाले।
Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।