बेरोजगारी देश के लिए बड़ी समस्या है। बेरोजगारी के आंकड़े छिपाने से इस समस्या का समाधान नहीं हो सकता। सरकार को रोजगार की व्यवस्था करनी चाहिए। आंकड़े छिपाने से कुछ नहीं होने वाला। देश में रोजगार के लिहाज से नए साल की शुरूआत ठीक नहीं रही है।
जनवरी की शुरूआत में खबर आई थी कि बीते साल लगभग 1.10 करोड़ नौकरियां खत्म हुई हैं और अब महीने के आखिर में नेशनल सैंपल सर्वे आफिस (एनएसएसओ) के एक सर्वेक्षण के हवाले से यह बात सामने आई है कि वर्ष 2017-18 के दौरान भारत में बेरोजगारी दर बीते 45 वर्षों में सबसे ज्यादा रही। बीते दिनों सरकार ने गरीब सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण का एलान किया था। उस समय भी सवाल उठा था कि जब नौकरियां ही नहीं हैं, तो आरक्षण देने की क्या तुक है।
इस वक्त देश में रोजगार की हालत पिछले 45 साल में सबसे खराब है। नेशनल सेंपल सर्वे आॅफिस के पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे के मुताबिक, साल 2017-18 में बेरोजगारी दर 6.1% थी। ये वही रिपोर्ट है, जिसे जारी न करने को लेकर केंद्र सरकार विवादों में है। सबसे अधिक परेशान करने वाली बात ये है कि नोटबंदी के बाद ही हालात बदतर हुए हैं, जिसकी सबसे ज्यादा मार महिलाओं पर पड़ी है। वजह ये कि अगर कुछ पुरुष रोजगार की तलाश में जा रहे हैं, तो महिलाएं घर पर रह रही हैं। वो अपने आप को जॉब मार्केट से हटा रही हैं। रिपोर्ट कहती है कि देश के शहरी इलाकों में बेरोजगारी दर 7.8 फीसदी, जबकि ग्रामीण इलाकों में 5.3 फीसदी है। गांव में ये संकट थोड़ा कम लगता है। इसकी वजह है कि लोग खेती से हटकर शहरों की तरफ आकर, कस्बों की तरफ आकर जॉब ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं।
एक और गंभीर बात ये है कि सरकार या तो डेटा छिपाती है या कोशिश करती है कि अगर कोई डेटा बाहर आता है, तो उसे किसी बहस से काट दो। लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि सीएमआईई के जो आंकड़े पिछले दिनों आए हैं, वो भी इसी रोजगार संकट की तरफ इशारा कर रहे हैं। ये जो सर्वे है, इसका काम जून 2018 में पूरा गया था। रिपोर्ट सितंबर-अक्टूबर में रिलीज कर सकते थे। लेकिन रिलीज नहीं होने दिया गया, तो दो एक्सपर्ट ने इस्तीफा दे दिया। सरकार इस बात का कोई जवाब नहीं देगी। उस पर कोई दबाव नहीं है। सरकार इसे फालतू भी करार दे सकती है। लेकिन ये बात नहीं भूलना चाहिए कि जो बेरोजगार है, उसको किसी नए आंकड़े की जरूरत नहीं है, वो खुद ही चलता-फिरता आंकड़ा है। आखिर में ये कहना है कि नोटबंदी बिलकुल अज्ञान का, अहंकार का कदम था।
इसका खामियाजा सरकार को भुगतना पड़ेगा या नहीं, इसका पता नहीं, लेकिन देश को भुगतना पड़ा है। नेशनल सैंपल सर्वे आॅफिस की रिपोर्ट जिसे सरकार ने दबा के रखा था, में बेरोजगारी की दर शहरी क्षेत्र में महिलाओं में 27.2 प्रतिशत और पुरुषों में 18.7 प्रतिशत रही। यही आंकड़ा ग्रामीण क्षेत्र में महिलाओं के लिए 13.6 प्रतिशत और पुरुषों के लिए 17.4 प्रतिशत रहा।
रिपोर्ट कहती है कि अर्थव्यवस्था में अधिक संख्या में लोग रोजगार से दूर हो रहे हैं। मोदी सरकार के नोटबंदी के नवंबर 2016 के फैसले के बाद के साल में बेरोजगारी की दर तेजी से बढ़ी। नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था पर मानो ब्रेक लगा दी थी और छोटे और मझोले उद्योगों में कई नौकरियां चली गईं थीं। 2011-12 में भारत की बेरोजगारी की दर 2.2 प्रतिशत रही। ये नौकरियों के बारे में आखिरी उपलब्ध आंकड़े हैं। उसके बाद इस सर्वे को बंद कर दिया गया था। अब नया पिरियोडिक फोर्स लेबर सर्वे जुलाई 2017 और जून 2018 के बीच किया गया था और सालाना सर्वे रिपोर्ट एनएसएसओ ने तैयार की। ये वही रिपोर्ट है जिसे सरकार ने सार्वजनिक नहीं किया।
एनएसएसओ की रिपोर्ट विवाद के केंद्र में तब आ गई जब राष्ट्रीय सांख्यिकी कमीशन के दो स्वतंत्र सदस्यों ने ये कहते हुए इस्तीफा दे दिया था कि सरकार ने एनएसएसओ की रिपोर्ट को दबा के रखा है जबकि उन लोगों ने उसे दिसंबर में ही हरी झंडी दिखा दी थी। ये तय है कि आगामी लोक सभा चुनाव में विपक्ष बेरोजगारी को बड़ा मुद्दा बनायेगा। ये डाटा उसकी मदद भी करेगा। इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने के बाद कांग्रेस के नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने ट्वीट करके कहा कि मोदी ने 2 करोड़ नौकरियों का जो वादा किया था वो एक भद्दा मजाक था। सीपीएम नेता सीताराम येचुरी ने भी मोदी सरकार की बखिया उधेड़ी। मोदी ने कहा था कि उन्होंने कई नौकरियों का सृजन किया, हालांकि इसके आंकडे़ उनके पास नहीं थे। पर डाटा था लेकिन वो सच से डर रहे थे।
भारत ने इतना कभी नहीं सहा जितना मोदी के शासन में, जिन्होंने 10 करोड़ नौकरियों के सृजन का वादा किया था। नीति आयोग के अध्यक्ष राजीव कुमार ने एनएसएसओ के पिरियोडिक लेबर फोर्स के सर्वेक्षण पर मीडिया को संबोधित करते हुए कहा कि डाटा को नये तरीके से तैयार किया जा रहा था, इसलिए केंद्र ने ये रिपोर्ट जारी नहीं की।
विशेषज्ञों का कहना है कि खेती अब पहले की तरह मुनाफे का सौदा नहीं रही। इसी वजह से ग्रामीण इलाके के युवा रोजगार की तलाश में अब खेती से विमुख होकर रोजगार की तलाश में शहरों की ओर जाने लगे हैं। शहरी इलाकों में सबसे ज्यादा रोजगार सृजन करने वाले निर्माण क्षेत्र में आई मंदी के चलते नौकरियां कम हुई हैं। अब सरकार चाहे बेरोजगारी के आंकड़ों को दबाने का जितना भी प्रयास करे, रोजगार परिदृश्य की बदहाली किसी से छिपी नहीं है। सेंटर आॅफ मॉनीटरिंग इंडियन इकोनामी (सीएमआईई) ने अपनी हाल की एक रिपोर्ट में कहा था कि देश में बीते साल 1.10 करोड़ नौकरियां कम हुई हैं।
हर साल एक करोड़ रोजगार पैदा करने का वादा कर सत्ता में आने वाली एनडीए सरकार के लिए यह स्थित अच्छी नहीं कही जा सकती। वह भी तब जब अगले दो-तीन महीने में लोकसभा चुनाव होने हैं। रोजगार के अभाव में शिक्षित बेरोजगारों में हताशा लगातार बढ़ रही है। नौकरी के लिए आवेदन करने वालों के आंकड़े इस हताशा की पुष्टि करते हैं। मिसाल के तौर पर बीते साल मार्च में रेलवे में 90 हजार नौकरियों के लिए ढाई करोड़ बेरोजगारों ने आवेदन किया था। इसी तरह गुजरात में 12 हजार नौकरियों के लिए 9.70 करोड़ ने आवेदन भेजा था। सबसे दयनीय हालत तो उत्तर प्रदेश में देखने को मिली. बीते साल अगस्त में वहां चपरासी के 62 पदों के लिए भारी तादाद में आवेदन करने वालों में 3,700 आवेदक पीएचडी डिग्रीधारी थे। इस प्रकार समझा जा सकता है कि बेरोजगारी की दशा क्या है। बहरहाल, देखना यह है कि अब सरकार करती क्या है?
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