लेखक: योगेश कुमार गोयल
भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए विख्यात जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने महात्मा गांधी के बलिदान दिवस के अवसर पर 30 जनवरी से एक बार फिर अपने गांव रालेगण सिद्धी में ही केन्द्र में लोकपाल तथा महाराष्ट्र में लोकायुक्त नियुक्त करने और किसानों के मुद्दे सुलझाने को लेकर भूख हड़ताल की शुरूआत की है। अन्ना का कहना है कि उनका यह अनशन किसी व्यक्ति, पक्ष या पार्टी के विरूद्ध नहीं है बल्कि समाज और देश की भलाई के लिए वह बार-बार आन्दोलन करते आए हैं और यह भी उसी प्रकार का आन्दोलन है। मौजूदा केन्द्र सरकार को निशाने पर लेते हुए उनका कहना है कि लोकपाल कानून बने पांच साल हो गए हैं और मोदी सरकार पांच साल बाद भी बार-बार बहानेबाजी कर रही है। अगर उसके दिल में होता तो क्या पांच साल लगना जरूरी था? अन्ना के इस अनशन से देश को कुछ हासिल होगा, इसकी संभावना बहुत ही कम है। दरअसल करीब दो माह पहले ही अन्ना ने अपने अनशन को लेकर सरकार को चेतावनी दी थी। उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह को पत्र लिखकर कहा था, सरकार बार-बार आश्वासन देकर भी लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं कर रही है और देश की जनता से विश्वासघात हो रहा है।
मोदी सरकार आने के बाद हमने सरकार से लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर कई बार पत्राचार किया किन्तु मोदी जी ने किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया। इसलिए वो विवश होकर 30 जनवरी से अनशन शुरू करेंगे। 16 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लिखे पत्र में भी अन्ना ने एक बार फिर अनशन की चेतावनी देते हुए लिखा कि केन्द्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय, राज्यसभा और लोकसभा जैसी संवैधानिक संस्थाओं के निर्णय का भी पालन नहीं करती और सरकार द्वारा देशवासियों के साथ धोखाधड़ी की जा रही है, इसलिए वो फिर अनशन करेंगे। अन्ना के इन चेतावनी भरे पत्रों पर सरकार की पिछले कुछ समय में कोई विशेष प्रतिक्रिया न दिखाई देने से स्पष्ट है कि अन्ना का अनशन इस बार भी कितना ‘प्रभावीझ् सिद्ध होगा! गत वर्ष 23 मार्च को भी दिल्ली के रामलीला मैदान से कुछ मांगों को लेकर अन्ना ने इसी प्रकार अनशन शुरू करने का फैसला किया था और तब भी यही कहा गया था कि उनसे अनशन से कुछ हासिल नहीं होगा। उस समय अन्ना ने बगैर किसी निष्कर्ष पर पहुंचे 30 मार्च को ही जिस प्रकार अपना अनशन खत्म कर दिया था, उससे न केवल अन्ना की स्वयं की छवि को आघात लगा था बल्कि अनशन से जुड़े किसानों और उनके संगठनों ने भी खुद को ठगा सा महसूस किया था।
अन्ना ने 23 मार्च 2018 को जिस प्रकार सिंह गर्जना करते हुए अनशन की शुरूआत की थी और महज एक सप्ताह बाद कोरे आश्वासनों के आधार पर ही अनशन खत्म कर डाला था, उससे न केवल उनकी छवि को जबरदस्त आघात लगा था बल्कि ऐसे आन्दोलनों को लेकर इस बात का खतरा भी मंडराने लगा है कि अगर युवाओं और किसानों का भरोसा इस तरह के अनशनों या आन्दोलनों से उठने लगा तो यह किसी के भी हित में नहीं होगा। इस तरह से भरोसा टूटने की स्थिति में जनता शायद ही फिर कभी जाति, धर्म और वर्ग का भेद भुलाकर एकजुट होकर किसी आन्दोलन के लिए सड़कों पर उतरे। पिछले साल भी अन्ना का यही कहना था कि उन्होंने मोदी सरकार को 43 बार पत्र लिखकर इन मुद्दों पर चर्चा करने के लिए समय मांगा किन्तु सरकार की ओर से कोई जवाब नहीं आया और इसीलिए सरकार के रवैये से निराश होकर उन्होंने अनशन का निर्णय लिया। उन्होंने यह तर्क भी दिया था कि उम्र के इस पड़ाव में हार्ट अटैक से मरने से बेहतर है कि इन मांगों के लिए अनशन करते हुए जान दी जाए। इस प्रकार की क्रांतिकारी बातें करने के बाद अन्ना ने जिस तरह एक ही सप्ताह बाद अनशन तोड़ दिया था, उससे उनके आन्दोलन से जुड़े लोगों को घोर निराशा हाथ लगी थी और अन्ना के फैसले पर सवाल भी उठे थे कि जब उन्हें इसी प्रकार बिना मांगें मनवाए अनशन तोड़ना ही था तो फिर अनशन के नाम पर इतने ताम-झाम की जरूरत ही क्या था?
दरअसल अन्ना को उम्मीद थी कि मीडिया उन्हें 2011 की ही भांति एक बहुत बड़े जननायक के रूप में तवज्जो देकर तूफान खड़ा करने में उनका मददगार साबित होगा किन्तु मीडिया ने जनता की नब्ज को भांपते हुए अन्ना अनशन को कोई महत्व नहीं दिया और शायद इसीलिए एक सप्ताह के भीतर ही अन्ना को लगने लगा था कि किसी न किसी बहाने अनशन तोड़ना ही समझदारी होगी और भला हो मोदी सरकार का, जो उसने उनकी कुछ मांगें मानने का महज आश्वासन भर देकर ही सही, अन्ना की रही-सही प्रतिष्ठा बचा ली थी अन्यथा यह कहने से गुरेज नहीं होना चाहिए कि जिस प्रकार अन्ना अनशन में लोगों की उपस्थिति धीरे-धीरे घट रही थी, कुछ दिनों के भीतर उनके साथ महज कुछ सौ व्यक्ति ही नजर आते। पिछले साल की ही तर्ज पर अन्ना का इस बार भी यही कहना है कि उनकी भूख हड़ताल तब तक जारी रहेगी, जब तब सरकार लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्ति तथा किसानों के मुद्दे सुलझाने जैसे सत्ता में आने से पहले किए गए अपने वादों को पूरा नहीं कर देती। वैसे अन्ना के बारे में अब कहा जाने लगा है कि उनकी न कोई दूरदृष्टि है और न कोई स्पष्ट विचार बल्कि वो 2011 के अपने आन्दोलन के दौरान देशभर में उमड़े जनसैलाब को देखते हुए शायद अपने आपको गांधी का विकल्प समझने लगे हैं।
भ्रष्टाचार को लेकर त्राहिमाम्-त्राहिमाम् करती रही देश की जनता को आजादी के बाद पहली बार किसी व्यक्ति में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जैसी झलक दिखाई दी थी, जो पूरे देश को अपने साथ जोड़कर एकाएक इस प्रकार जनजनायक बनने में सफल हुआ था किन्तु व्यवस्था परिवर्तन का नारा देने वाले अन्ना के कई सहयोगी स्वयं उसी भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा बनकर आज सत्ता की मलाई चाट रहे हैं। ऐसे में खुले दिल से अन्ना आन्दोलन का समर्थन करने वाले लोगों ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया है। यही कारण है कि अब अन्ना आन्दोलन में न वो जोश नजर आता है, न आक्रोश, न मीडिया की सक्रियता और न युवाओं का आकर्षण। पिछले साल मार्च माह में किए गए अनशन के पूर्व अन्ना ने घोषणा की थी कि किसी भी पार्टी का नेता उनके मंच पर नहीं आ सकता और यदि कोई नेता उनके मंच पर आना ही चाहता है तो उसे शपथ पत्र देना होगा कि वह राजनीति छोड़ रहा है और भविष्य में दोबारा कभी राजनीति में नहीं जाएगा।
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