हरियाणा की जींद विधानसभा सीट पर पहली बार ‘कमल’ खिला है। किसी जमाने में कांग्रेस की गढ़ माने जाने वाली जींद सीट पर भाजपा की जीत कांग्रेस की ‘नींद’ उड़ाने वाली खबर है। हिन्दी पट्टी के तीन राज्यों में कमल को उखाड़ने के बाद हरियाणा की एकमात्र सीट पर हार कांग्रेस के उत्साह को कम किया है। लोकसभा चुनाव के बाद अक्टूबर में हरियाणा में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में हिन्दी पट्टी की एक सीट पर कांग्रेस को है। कांग्रेस प्रत्याशी सुरजेवाला केवल हारे ही नहीं, बल्कि वो तीसरे स्थान पर भी रहे। किसी जमाने में जींद जिला हरियाणा की राजनीति और सीएम दोनों को तय करता था।
जींद सीट की अहमियत इस बात से भी समझी जा सकती है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी किचेन कैबिनेट के सदस्य रणदीप सिंह सुरजेवाला को चुनावी अखाड़े में उतारा था। जींद में सुरजेवाला को मैदान में उतारकर राहुल गांधी हरियाणा की जाट बेल्ट के रूख और सियासी तापमान को मापना चाह रहे थे। कांगे्रस थिंक टैंक इसे आगामी आम और विधानसभा चुनाव का ‘लिटमेस टेस्ट’ भी मान रहा था। ऐसे में कांग्रेस के दिग्गज नेता और राष्ट्रीय प्रवक्ता का तीसरे स्थान पर रहना, कांग्रेस की नींद उड़ाने से कम नहीं हैं। इस चुनाव में कांग्रेस ने अपनी पूरी ताकत झोंकने का काम किया था। बावजूद इसके नवगठित जननायक जनता पार्टी (जजपा) का दूसरे स्थान पर रहना, यह साबित करता है कि हरियाणा की ‘जाट बेल्ट’ में कांग्रेस को ठोस रणनीति अपनानी होगी।
चौटाला परिवार के सदस्य दिग्विजय चैटाला नयी नवेली जननायक जनता पार्टी के बैनर तले पहली बार चुनाव मैदान में उतरे थे। कांग्रेस ने कैथल से विधायक रणदीप सिंह सुरजेवाला को जींद में प्रत्याशी बनाकर मुकाबला त्रिकोणीय करने की कोशिश की थी। सुरजेवाला राष्ट्रीय प्रवक्ता के तौर अपने राजनीतिक विरोधियों पर जितने ज्यादा तीखे और हमलावर साबित होते हैं, उतने जौहर वो जींद के मैदान में नहीं दिखा पाये। वोट बैंक और जात-पात की राजनीति के लिहाज से भी जींद का समीकरण हरियाणा की राजनीति को समझने की समझ पैदा करता है। जींद में तकरीबन 48 हजार जाट वोटर हैं।
ब्राह्मण, पंजाबी और वैश्य वोटरों की संख्या 14 से 15 हजार के बीच है। 1972 में कांग्रेस के चैधरी दल सिंह विधायक के बाद 2014 में जाट नेता हरिचंद मिड्ढा ही ऐसे जाट नेता थे जो यहां से जीत पाये थे। 1972 के बाद जितने भी विधायक बने, उनमें से अधिकतर वैश्य और पंजाबी समुदाय के थे। इस बार हालात बदले हुये थे। मुकाबला सीधे तौर पर तीन जाट नेताओं के बीच था। ऐसे में भाजपा का यहां से जीतना हरियाणा की सियासी हवा और रूख की ओर गंभीर इशारा करता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी की लहर पर सवार होकर भाजपा ने हरियाणा में जीत का परचम लहराया था। हजकां से गठबंधन करने वाली भाजपा की झोली में सात सीटें आई थी।
तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा पूरा जोर लगाकर बस अपने बेटे दीपेंद्र को ही जिता पाए थे। इन चुनावों में पहली बार बीजेपी को सर्वाधिक करीब 34 फीसदी की वोट शेयरिंग मिली थी। वर्ष 1999 के आम चुनाव में पार्टी ने इनेलो से गठबंधन करके 29.21 फीसदी वोट हासिल करते हुये सभी 10 सीटों पर विजय हासिल की थी। उस समय नरेंद्र मोदी हरियाणा के प्रभारी हुआ करते थे। पिछले चार साल में हरियाणा की राजनीति में कांग्रेस की पकड़ कमजोर हुई है। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा हों या कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर, कु. सैलजा, रणदीप सिंह सुरजेवाला, किरण चैधरी और कुलदीप बिश्नोई, सभी अपने-अपने ढंग से हरियाणा में पार्टी गतिविधियों का झंडा थामने के लिए अंदर ही अंदर एक-दूसरे की काट से लेकर दिल्ली दरबार में अपना पक्ष मजबूत करने का कोई मौका गंवाते नहीं हैं।
सबसे अधिक तनातनी और खींचतान हुड्डा और तंवर के बीच है। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा व कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर के बीच शीतयुद्ध छिड़ा हुआ है। हुड्डा खेमा अशोक तंवर को अध्यक्ष पद से हटवाने के लिए दिन-रात एक किए हुए है। हरियाणा कांग्रेस के अधिकतर विधायक पार्टी हाईकमान पर पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा को पार्टी अध्यक्ष बनाने का लगातार दबाव बना रहे हैं। मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर ने भी प्रदेश में अपनी सक्रियता बढ़ाई हुई है। रणदीप सिंह सुरजेवाला व कुमारी सैलजा कांग्रेस हाईकमान के सबसे अधिक नजदीक माना जाता है। ऐसे में कांग्रेस नेताओं के बीच हरियाणा के संगठन को अपने ढंग से चलाने का अधिकार हासिल करने की होड़ मची नजर आती है। हरियाणा के कांग्रेसी नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला जहां लगातार दिल्ली दरबार की राजनीति कर रहे हैं
वहीं किरण चैधरी आजकल अपना पारंपरिक भिवानी क्षेत्र छोडकर उत्तरी हरियाणा में सक्रिय हैं। इन सबके बीच कुलदीप बिश्नोई व कैप्टन अजय सिंह यादव भी लगातार कांग्रेस हाईकमान के संपर्क में हैैं। हिंदी पट्टी की तीन राज्यों खासकर राजस्थान में कांग्रेस की वापसी के साथ ही हुड्डा और तंवर खेमा एक-दूसरे के विरूद्ध और ज्यादा हमलावर हो गया है। हड्डा समर्थक विधायक लंबे समय से पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की तरह फ्री-हैंड दिए जाने की मांग कर रहे हैं। जींद की हार के पीछे हरियाणा में कांगे्रस लीडरशिप की आपसी खींचतान, वर्चस्व की लड़ाई का भी बड़ा हाथ है।
प्रदेश कांग्रेस में आपसी खींचतान और गुटबाजी चरम पर है। आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा से नाराज बताये जा रहे जाट समुदाय की नाराजगी भी जींद जीत के साथ खत्म होती लग रही है। तीन राज्यों की कांग्रेस की जीत के ऊपर जींद की सीट की हार कहीं मायनों में चिंता वाली बात है। इस हार के बाद कई साइड इफेक्ट भी आने वाले दिनों में देखने को मिलेंगे। इनेलो-बसपा का गठबंधन टूट सकता है और कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष भ्ी बदला जा सकता है। कांग्रेस को हरियाणा में अपना परचम लहराने के लिये नये सिरे से रणनीति बनानी होगी।
-आशीष वशिष्ठ
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