अगर आप यह सोच रहें होंगे कि राहट मोहम्मद अल कुनन का प्रसंग पहला है तो आप भूल कर रहे हैं, अरब देशों की मुस्लिम महिलाओं के बीच आजादी की छटपटाहट से आप अनभिज्ञ भी हैं। राहट मोहम्मद अल कनुन से पूर्व भी अरब के देशों से महिलाओं ने अपनी आजादी के लिए अनेकानेक वीरता दिखायी है, यूरोप की ओर छलांग लगायी हैं, कुछ महिलाएं यूरोप की खुली हवा में छलांग लगाने में सफल रही हैं, अधिकतर महिलाएं असफल होने या फिर पकडे जाने पर अपने परिवार और मजहबी सत्ता द्वारा स्थापित कानूनों के शिकार भी हुुई हैं, अपनी जिंदगी गंवायी भी हैं, पर यह संघर्ष और वीरता जारी है। हां, यह कहा जा सकता है राहट मोहम्मद अल कनून के प्रसंग ने दुनिया को झकझोर कर रख दिया, दुनिया को अंचभित कर दिया कि इस आधुनिक युग और सूचना क्रांति के विस्फोट के दौर में भी अरब देशों की मुस्लिम महिलाएं पाषाण युग में ही जीने के लिए बाध्य हैं और मजहबी कानूनों तथा परिवार के मजहबी बंधनों का बुलडोजर उन पर कभी रूकता नहीं।
मात्र 18 साल की राहट मोहम्मद अल कानून नास्तिक हो गयी और अपने परिवार से बचने के लिए दौड लगा दी थी, राहट मोहम्मद की वीरता आखिर सफल हुई, दुनिया भर से मिले समर्थन के कारण उसे कानाडा में शरण मिल गया, अब वह खूली हवा में सांस ले रही है, अपनी मर्जी की जिंदगी जीने के लिए राह बना रही है। राहट मोहम्मद अल कनून के पूर्व भी 24 साल की अलवा अपनी 19 साल की बहन के साथ सउदी अरब से जर्मनी भाग गयी थी, अलवा अब अपनी बहन के साथ जर्मनी छोड़ कर कनाडा में रह रही है। अलवा कहती है कि भले उसे कनाडा में संघर्ष करना पड रहा है पर सउदी अरब में तो कोई जिंदगी ही नही थी, कम से कम हमें यहां तो आजादी मिली है, अपनी किस्मत मैं यहां खुद लिख सकती हूं। सकारात्मक पहलू यह है कि खास कर यूरोपीय समुदाय महिलाओं की आजादी के क्षेत्र में प्रेरणा के पात्र हैं, उनके यहां महिलाओं की पूरी आजादी सुनिश्चित है। खास कर अरब देशों की मुस्लिम महिलाओं को शरण देने और उनके अधिकारों की रक्षा करने के लिए यूरोपीय समाज और यूरोपीय देश अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं।
आजादी किसको नहीं चाहिए? आजादी किसे पंसद नहीं है? पिजडे में बंद कौन रहना चाहता है? आजादी सभी को चाहिए, आजादी सभी को पसंद है, पिजडे में बंद कोई नहीं रहना चाहता है। मानव हो या फिर जानवार, या पंक्षी, हर कोई खुले आकाश में विचरण करना चाहता हैं, अपनी इच्छानुसार जिंदगी जीना चाहता हैं, बंधन कतई पंसद नहीं है। फिर अरब के मुस्लिम देशों की महिलाओं को बंधन मुक्त आकाश चाहिए, अरब के मुस्लिम देशों की महिलाओं को पूरी तरह से परिवार और मजहबी सत्ता के कानूनों से आजादी चाहिए। पर दुर्भाग्य यह है कि दुनिया कहां से कहां पहुच गयी, दुनिया धरती से चांद तक पहुंच गयी, दुनिया के अधिकतर क्षेत्रों में सूचना क्रांति के दौर ने मजहब की रूढियों पर प्रहार किया है, मजहबी रूढ़ियों पर नयी अवधारणा गढी है, महिलाओं की आजादी के नये आयाम बनाये गये हैं पर आज भी अरब के मुस्लिम देशों में कुछ भी नहीं बदला हुआ है, सूचना क्रांति के दौर ने भी वैसी सफलता हासिल नहीं की है, जैसी सफलता की उम्मीद की जा रही है।
पाषाण युग की मजहबी रूढ़ियां अभी भी पथरी मार कर बैठी हुई हैं, मजहबी सत्ता की अवरोधक, हिंसक, खतरनाक और तेजाबी संहिताएं वैसी की वैसी ही पडी हुई हैं। मजहबी सत्ता और मजहबी समाज एक साथ जुगलबंदी करती हैं। मजहबी सत्ता और मजहबी समाज दोनों अपने वर्चस्व को छोडने के लिए तैयार नहीं हैं। समस्या की जड यह है कि जीवन की सभी क्रियाओं को मजहबी बंधनों में बांध दिया गया है। खास कर महिलाओं की हर आजादी को मजहबी बंधनों से जकड दिया गया है। आधुनिक युग में इस मजहबी प्रक्रियाओं का दुष्परिणाम भी घातक होता है, यह कहें कि आत्मघाती भी होता है, सभ्याताओं के बीच आपसी समझ और सहचरी को रोकता है तो कोई अतिशियोक्ति की बात नहीं होगी। अरब देश आज पिछडे हुए हैं, इनकी गिनती असफल देश और बंद समाज के रूप में हो रही है।
उपभोग की मजहबी संस्कृति इसके पीछे सबसे बडा कारण है। राहट मोहम्मद अल कनून भी यही कहती है और अलवा भी यही कहती है। इन दोनों का कहना है कि उन्हें मजहब के जाल में बांध दिया गया था, उन्हें सिर्फ बच्चा पैदा करने की मशीन समझ लिया गया है, उन्हें सिर्फ पुरूषों का गुलाम के रूप में देखा जाता है। यह सही भी है कि अरब की महिलाएं मजहब के जाल बांध दी जाती हैं, फिर इस जाल से निकलना मुश्किल है। सबकी किस्मत राहट मोहम्मद अल कनून या फिर सलवा की तरह नहीं होती है, सब के सब उतनी हिम्मत नहीं कर सकती हैं, उन दोनों लडकियों की किस्मत अच्छी थी कि उनके परिवार ने उन्हें शिक्षा ग्रहण करने की स्वीकृति दी थी। अरब की लडकियां परिवार की इच्छा के बगैर शिक्षा भी ग्रहण नहीं कर सकती हैं, परिवार की इच्छा के बिना किसी से मिल भी नहीं सकती हैं, पासपोर्ट तक बनवाने में परिवार की सहमति होती है, विदेश जाने के लिए भी परिवार की सहमति चाहिए।
अरब के देशों को लैंगिक समानता और महिलाओ की आजादी पर सोचना ही होगा, बदलती दुनिया को स्वीकार करना ही होगा, विभिन्य सभ्यताओं के साथ सहचर रहना ही होगा। अगर नही ंतो फिर मुश्किल होगी, परेशानी होगी, खुद नुकसान में रहेंगे। यह तो पाषाण युग है नहीं। मजहब को जानने-समझने के नये-नये तरीके आ गये हैं, नये-नये अवसर हैं। विज्ञान के विस्फोट ने मजहबी रूढ़ियों और अंधविश्वासों को तोड़ा है, उनकी उपस्थिति को तार-तार किया है। अरब की महिलाएं खासकर यूरोप की महिलाओ की आजादी को देख रही हैं, समझ रही हैं, अवलोकन कर रही है, फिर यूरोप की महिलाओं की तरह उन्हें भाी आजादी चाहिए। महिलाओं को अगर आजादी मिलेगी तो फिर उसका लाभ भी उन्हें होगा, जनसंख्या विस्फोट कम होगा, उन्नति के नये मार्ग मिलेंगे। महिलाएं शिक्षित होंगी और स्वतंत्र होगी तो फिर महिलाएं परिवार की व्यवस्था को मजबूत बना सकती हैं।
आज अरब देश कहां पर खडे हैं। अरब देशों के पास अपार प्राकृतिक संसाधन हैं, उनके पास धन की कोई कमी नहीं है फिर ये यूरोप से पिछडे क्यों हैं,इनकी अर्थव्यवस्था मजबूत क्यों नहीं हैं, इनके पास कुशल मजदूर से लेकर कुशल इंजीनियर, कुशल डॉक्टर और कुशल प्रबंधनकर्ता तक नहीं हैं। इन्हें दुनिया से कुशल मजदूर, कुशल इंजीनियर, कुशल डॉक्टर और कुशल प्रबंधन कर्ता लेना पडता है। ये अपने प्राकृतिक संसाधनों के दोहण में भी आत्मनिर्भर नहीं है, अमेरिका और यूरोप के उपर निर्भर हैं। अरब के मुस्लिम देशों को अब महिलाओं के प्रति ही नहीं बल्कि सभी प्रकार के मजहबी बंधनो से मुक्त होना ही चाहिए।
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