देश को सबसे ज्यादा 80 लोकसभा सीट देने वाले उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने हाथ मिला लिया है। मसलन अब बुआ-भतीजा लोकसभा की धुरी माने जाने वाले इस प्रदेश में अपना दौर चलाएंगे। दोनों दल 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ेगें। कांग्रेस पर कृपा करते हुए अमेठी राहुल गांधी और रायबरेली सीटें सोनिया गांधी के लिए छोड़ दी हैं। यह दया कांग्रेस को गठबंधन में शामिल किए बिना ही बरती गई है। कांग्रेस 2014 के चुनाव में 7.53 फीसदी मत प्राप्त कर महज दो सीटें जीत पाई थी, जिनमें एक राहुल और एक सोनिया की थी। हालांकि मायावती और अखिलेश यादव ने जिस ढंग से कांग्रेस की उपेक्षा की है, उससे लगता यही है कि अब कांग्रेस पूरे देश में अकेली रहकर हिंदी क्षेत्र में चुनाव लड़ने की रणनीति बनाएगी।
इधर हिंदी पट्टी के तीन बड़े राज्यों में सत्ता खोने के बाद भाजपा ने सबक लेते हुए गठबंधन का धर्म उदारता से निभाने का संकेत दिया है। बिहार में जदयू और लोजपा के साथ लोकसभा की सीटों के बंटवारे को लेकर हुआ समझौता इसका गवाह है। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा और तेलगु देशम पार्टी के प्रमुख एवं आंध्र-प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से बाहर हो जाने से भी भाजपा ने सबक लेते हुए रामविलास पासवान को राज्यसभा की सीट बोनस में दे दी है। दरअसल भारतीय जनता पार्टी कुछ समय से गठबंधन के उस धर्म का पालन करती नहीं दिख रही थी, जिसकी पैरवी अटलबिहारी वाजपेयी किया करते थे। वाजपेयी अपने सहयोगियों को बराबर का साझीदार मानने के आदर्श पर चलते थे, नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की कसौटी सहयोगी दलों को भाजपा के विस्तार का औजार मानता रहा है। इस सिद्धांत को थोपने की कोशिश में भाजपा, सहयोगी दलों को इस दृष्टि से आशंकित करती रही है कि कहीं वह उनके वर्चस्व पर ही स्थापित न हो जाए? सहयोगियों के महत्व को नकारने के संकेत भी भाजपा इन साढ़े चार सालों से देती रही है। चंद्रबाबू नायडू इसके उदाहरण हैं।
भाजपा की अपने सबसे पुराने व विश्वसनीय सहयोगी शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से भी अनबन चल रही है। महाराष्ट्र की राजनीति की जमीनी पड़ताल करें तो यहां 2014 वाली हवा नदारद है। अरविंद केजरीवाल और शरद यादव किस करवट बैठते हैं, यह कहना फिलहाल मुश्किल है, क्योंकि ये नेता राहुल का नेतृत्व स्वीकारने से कतरा रहे हैं। दूसरे, कांग्रेस और भाजपा से इतर क्षेत्रीय क्षत्रपों के साथ यह संकट है कि अन्य किसी दल का देशव्यापी न तो जनाधार है और न ही संगठन। ऐसे में आम चुनाव के पूर्व इन्हीं में से किसी एक की छत्र-छाया में शरण लेना राजनीतिक मजबूरी है।
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