जबसे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा की कमजोर स्थिति सामने आयी है, एक शीर्ष वर्ग पार्टी के भीतर थोड़ा ठहरकर अपने बीते दिनों के आकलन और आने वाले दिनों के लिये नये धरातल को तैयार करने की वकालत करने लगा है। इन पांच राज्यों के चुनाव के परिणाम एवं लोकसभा चुनाव की दस्तक जहां भाजपा को समीक्षा के लिए तत्पर कर रही है, वही एक नया धरातल तैयार करने का सन्देश भी दे रही है। इस दौरान संघ के वरिष्ठ अधिकारी किशोर तिवारी ने संघ प्रमुख मोहन भागवत को पत्र लिखकर मांग की है कि भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन की जरूरत है। उन्होंने कहा कि पार्टी की बागडोर केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी को सौंपी जानी चाहिए। वरिष्ठ भाजपा नेता संघप्रिय गौतम ने भी मांग की है कि मौजूदा पार्टी नेतृत्व को तीन राज्यों में हार की जिम्मेदारी लेकर पद छोड़ देना चाहिए। लेकिन यह तो भविष्य की रचनात्मक समृद्धि का सूचक नहीं है। वर्तमान को सही शैली में, सही सोच के साथ सब मिलजुलकर जी लें तो विभक्तियां विराम पा जाएंगी। मोहरे फेंकना ही नहीं, खेलना भी सिखाना होगा। एक महासंग्राम की तैयारी पर ऐसा कुछ सोच सकते हैं जिसे परम्परा मानी जा सके। ऐसा कुछ कर सकते हैं जिसे इतिहास बनाया जा सके और ऐसा कुछ जीकर दिखाया जा सकता है जो औरो के लिये उदाहरण बन सके। गडकरी प्रवाह में आदमी भागता अवश्य है मगर सही रास्ता नहीं खोज पाता। भाजपा को सही रास्ता खोजना है, प्रतिकूल हवाओं को अनुकूल करना है तो नये रास्ते बनाने ही होंगे।
संघ के नेताओं की मांग हो या केन्द्रीय मंत्री श्री नितीन गडकरी के स्वर हो या अन्य नेताओं के बयान- भाजपा में लोकसभा चुनाव से पूर्व व्यापक बदलाव की आवश्यकता महसूस की जा रही है। पार्टी में संगठन मंत्री रहे संजय जोशी को सक्रिय करने की कोशिशें भी जोर पकड़ रही है। इन बढ़ती चचार्ओं एवं स्वरों का अर्थ पार्टी में अन्तर्कलह या विद्रोह की स्थिति को कत्तई नहीं दर्शा रहा है, बल्कि आने वाले लोकसभा चुनाव में पार्टी की स्थिति सुदृढ़ बने, इसकी जद्दोजहद ही दिख रही है। उद्देश्यों को सुरक्षा देने वाली उन दीवारों से भाजपा को सुदृढ़ बनाने का प्रयत्न करना होगा जो हर आघात को झेलने की शक्ति दे। इन दिनों नितिन गडकरी चचार्ओं में हैं। वे मोदी सरकार के महज एक मंत्री भर नहीं हैं। वे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रह चुके हैं और उस परिवार से आते हैं, जिसकी जड़ें आरएसएस से जुड़ी रही हैं। एक वक्त वे अपने निजी व्यवसाय की वजह से मीडिया की सुर्खियों में रहे और उन्हें पार्टी अध्यक्ष पद गंवाना तक पड़ा था। इस वक्त वे अपने बयानों की वजह से चर्चा में हैं। उन्हें अपने हर बयान पर सफाई देनी पड़ रही है। लेकिन उनके बयान भाजपा के लिये अतीत को खंगालने का एवं भविष्य के लिए नये संकल्प बुनने की आवश्यकता को उजागर कर रहे हैं। देखना यह है कि उनके बयान क्या संदेश देकर जा रहा है और उस संदेश का क्या सबब है।
गडकरी ने पंडित नेहरू की तारीफ करते हुए कहा कि सिस्टम को सुधारने के लिए दूसरों की बजाए पहले खुद को सुधारना चाहिए। खुद को सुधारने का अर्थ है कि पार्टी एवं सरकार में नया धरातल एवं सोच तैयार हो। गडकरी ने असहिष्णुता को लेकर भी अपने विचार रखे और कहा कि सहनशीलता और विविधता में एकता भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण पहलू है। जवाहर लाल नेहरू कहते थे- इंडिया इज नॉट नेशन, इट इज ए पॉपुलेशन। उनका यह भाषण गडकरी को बहुत पसंद है। उनका मानना है कि अगर कोई सोचता है कि उसे सब पता है तो वह गलत है। विश्वास और अहंकार में फर्क होता है। आपको खुद पर विश्वास रखना चाहिए, लेकिन अहंकार से दूर रहना चाहिए। गडकरी ने यह भी कहा कि राजनीति सामाजिक आर्थिक बदलाव का कारक है। उन्होंने कहा कि चुनाव जीतना महत्वपूर्ण है, लेकिन अगर सामाजिक आर्थिक बदलाव नहीं होता है, देश और समाज की प्रगति नहीं होती है तो आपके सत्ता में आने और सत्ता से जाने का कोई मतलब नहीं रह जाता है।
उन्होंने कहा कि लोगों को साथ लेकर चलना चाहिए। आप बहुत अच्छे और बहुत प्रभावशाली हो सकते हैं, लेकिन अगर आपके साथ लोगों का समर्थन नहीं है तो आपके अच्छे या प्रभावशाली होने का कोई मतलब नहीं है। दिशाहीनता और मूल्यहीनता बढ़ती रही है, प्रशासन चरमरा रहा था। भ्रष्टाचार के जबड़े खुले थें, साम्प्रदायिकता की जीभ लपलपा रही थी और दलाली करती हुई कुर्सियां भ्रष्ट व्यवस्था की आरतियां गा रही थीं। उजाले की एक किरण के लिए आदमी की आंख तरस रही थी और हर तरफ से केवल आश्वासन बरस रहे थे। सच्चाई, ईमानदारी, भरोसा और भाईचारा जैसे शब्द शब्दकोषों में जाकर दुबक गये थे। व्यावहारिक जीवन में उनका कोई अस्तित्व नहीं रह गया था। इस विसंगतिपूर्ण दौर में भाजपा पर लोगों ने विश्वास किया, इस विश्वास का खंडित होना आज भाजपा को गंभीर मंथन के लिये विवश कर रहा है। आखिर ऐसे क्या कारण बने? उन कारणों को खोजकर उन्हें दूर करना होगा। भाजपा को अपनी हैसियत को नहीं भूलना है। उसे भूलने का अर्थ होगा अपने कतृत्व के कद को छोटा करना, स्वयं की क्षमताओं से बेपरवाह रहकर औरों के हाथों का खिलौना बनना।
-ललित गर्ग-
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