कलाकार को राजनीति के ढ़ीले पेचों पर वार करने का अधिकार है परंतु यह काम वह सूक्ष्म कला द्वारा करता है न कि किसी पार्टी के रटे-रटाए नारों की तरह। ताजा विवाद अगले साल जनवरी में रिलीज होने वाली फिल्म, ‘द ऐक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ का है यह फिल्म पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर आधारित है जो साफ शब्दों में यह संदेश देती है कि मनमोहन सिंह काबिल प्रधानमंत्री थे परंतु राहुल गांधी व सोनिया गांधी ने उनको आजाद होकर काम नहीं करने दिया। मनमोहन सिंह को केवल तब तक प्रधान मंत्री रखा गया जब तक राहुल गांधी प्रधान मंत्री बनने के काबिल नहीं बन जाते फिल्म की कहानी मनमोहन सिंह को सही व पीड़ित व्यक्ति के तौर पर पेश करती है और गांधी परिवार का स्वार्थ दर्शाती है। फिल्म का ट्रेलर आने से विवाद शुरू हो गया है। कांग्रेस ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया है। बात मनमोहन सिंह या सोनिया व राहुल की नहीं बल्कि कलाकार की प्रतिबद्धता व नीयत की है।
हालात यह हैं कि लोक सभा चुनावों में तीन माह का समय शेष रह गया है। यह चुनाव भी राहुल बनाम नरेन्द्र मोदी हो रहे हैं। भाजपा को अपने गढ़ रहे राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में हार मिली है। ऐसे हालातों में कांग्रेस पर वार करती किसी फिल्म का आना विवाद का कारण बनना स्वाभाविक है। यदि यह फिल्म 2014 या 2015 में रिलीज होती तब शायद कलाकार अपनी निष्पक्षता को बचा लेता चूंकि फिल्म के हीरो का संबंध भाजपा से है और उनकी धर्म पत्नी भाजपा से लोक सभा मैंबर हैं। फिल्म की कहानी में वही सब कुछ है जो कुछ मनमोहन सरकार समय पर भाजपा के सीनियर नेता प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस के बारे में कहते आ रहे थे। यदि कुछ नया है तो वह केवल यह बात कि फिल्म में मनमोहन सिंह को बचाकर निशाना राहुल और सोनिया की तरफ साधा गया है। फिल्म बनाने के लिए कलाकार की आजादी पर सवाल नहीं किया जा सकता परंतु कलाकार की मंशा क्या है इस पर सवाल उठना तय है।
दरअसल कला वास्तविकता और कल्पना का सुमेल होती है जो किसी घटना को हू-ब-हू दिखाने की बजाय इसको नये दृश्य के रूप में पेश करती है जो वास्तविकता न होकर भी वास्तविकता का एहसास करवाती है परंतु फिल्म में पात्रों के नाम जिस तरह असली रखे गए हैं उससे कलाकार की मंशा पर सवाल खड़े होते हैं। फिल्म इतिहास के पलों को पेश करने की बजाय कुछ नेताओं के निजी कार-व्यवहार तक सिमट जाती है। कहा जा रहा है कि यह फिल्म, मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री के कार्यकाल में उनके मीडिया सलाहकार संजय बारु की ओर से लिखी पुस्तक पर आधारित है यह तर्क दिया जा रहा है कि जब किताब पर विवाद नहीं तो फिल्म पर क्यों? नि:संदेह फिल्म कांग्रेस पार्टी व इसके नेताओं पर बन सकती है परंतु अगर कलाकार एकतरफा होकर पार्टी बाजी में पड़ कर, किन्हीं चुनावों को मुख्य रखकर या किसी पार्टी विशेष की कठपुतली बन कर फिल्म बनाता है तब कला को आघात पहुंचता है। कला के नाम पर अगर स्वार्थ साधा जाता है तब कला, कला न रहकर एक विद्वेषपूर्ण प्रचार हो जाती है।
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