पांच राज्यों के विधानसभा परिणाम प्राप्त हो गए हैं। इन परिणामों ने भारतीय जनता पार्टी को नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर किया है। भाजपा ने मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपनी सरकार के पतन को देखा। हालांकि मध्यप्रदेश में भाजपा अपनी करारी हार से बच गई। मध्यप्रदेश में कांगे्रस की सरकार अवश्य की बन रही है, लेकिन उसको जनता ने पूर्ण बहुमत के दावे से दूर रखा है। अंतिम समय तक कांगे्रस के माथे पर पसीना बहता रहा। तीन बड़े राज्यों में कांगे्रस की सरकार बनने से कांगे्रस के कद में बढ़ोत्तरी भी हुई है।
अभी तक विपक्षी एकता की जो कवायद चल रही थी, उसमें कांग्रेस अब वजनदार भी हो गई है। पहले जिस प्रकार से कांगे्रस को कमजोर मानकर विपक्षी राजनीतिक दल कांगे्रस से सीधे मुंह बात तक नहीं कर रहे हैं, उनके सामने अब कांगे्रस महत्वपूर्ण बनेगी, यह तय है। हालांकि तीन बड़े राज्य मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांगे्रस के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं था, इसलिए यह चुनाव परिणाम कांगे्रस के लिए बहुत ही लाभकारी साबित हुए हैं। कांगे्रस की यह विजय लोकसभा चुनाव के लिए एक प्रकार से संजीवनी का काम करेगी। निश्चित रुप से इन चुनावों ने कांगे्रस के प्रयासों में पंख लगाने का काम किया है, वहीं भाजपा के लिए जोर का झटका भी है।
भाजपा को अब स्वाभाविक रुप से चिंतन और मंथन करना चाहिए कि उनसे चूक कहां हुई। कहीं यह चुनाव परिणाम 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए खतरे की घंटी तो नहीं हैं। क्योंकि जिस प्रकार से विपक्ष द्वारा भाजपा को घेरने को कवायद की जा रही है, उस अभियान को अब वजनदार दिशा मिली है। हालांकि जिन तीन प्रदेशों में कांगे्रस ने सत्ता प्राप्त की है, उसमें एक बात बिलकुल नई है कि कांगे्रस की इस जीत में केवल कांगे्रस का ही योगदान है।
इसलिए आगामी समय में कांगे्रस निश्चित रुप से इस बात पर जोर देने का प्रयास कर सकती है कि विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व अब कांगे्रस को ही करना चाहिए। देखना यह होगा कि अगर ऐसी स्थिति निर्मित होती है, तब क्या अन्य विपक्षी पार्टियां क्या कांगे्रस के ऐसे बदले हुए स्वरुप को स्वीकार कर सकेंगी। हालांकि इस बात की संभावना नहीं के बराबर ही लगती है।
वैसे एक खास बात यह भी है कि इन विधानसभा चुनावों में भाजपा और कांगे्रस के बीच प्राप्त मतों के प्रतिशत में बड़ा अंतर नहीं रहा। इसके अलावा मध्यप्रदेश की बात करें तो यह प्रतिशत नोटा से भी कम रहा। विरोधी रुख के चलते जिस प्रकार से नोटा को वोट मिले, वह भाजपा विरोधी वोट ही था, इसलिए यह कहा जाए कि कांगे्रस को मध्यप्रदेश में अपेक्षित सफलता नहीं मिली है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं कही जाएगी। इसी प्रकार की कहानी राजस्थान की है। राजस्थान में कांगे्रस की सरकार जरुर बन गई, लेकिन भाजपा की करारी हार नहीं हुई। हां छत्तीसगढ़ की बात कुछ निराली है, जहां भाजपा अपेक्षा के अनुरुप प्रदर्शन नहीं कर सकी।
खैर… जो भी हो, भाजपा को यह ध्यान तो रखना ही होगा कि भारत की जनता क्या चाहती है। जन भावनाओं के आधार पर राजनीति करने का दावा करने वाली भाजपा को यह भी सोचना चाहिए कि क्या वास्तव में जन भावनाओं की राजनीति दिखती है। जहां तक केन्द्र सरकार की बात है तो यही कहा जा सकता है कि उसने भ्रष्टाचार को रोकने के लिए काफी कठोर कदम उठाए हैं, लेकिन प्रादेशिक सरकारों ने केन्द्र की इस योजना पर कितना अमल किया है, यह भी देखने वाली बात ही होगी। प्रादेशिक सरकारों में जो नेता महत्वपूर्ण पदों पर विराजमान थे, उन्होंने जनता के हित के कितने काम किए। उनका जनता से सरोकार कितना रहा, यह भी भाजपा के चिंतन का मुद्दा होना चाहिए।
दूसरी सबसे बड़ी बात यह भी है कि विधानसभा चुनावों से पूर्व जिस प्रकार से समाज को विभाजित करने का षड्यंत्र किया गया, वह आज सफल होता दिखाई दिया। पहले अजा और अजजा कानून को समाप्त करने का भ्रम फैलाकर देश में आग लगाने का प्रयास किया गया, उसके बाद सवर्णों को सरकार के विरोध में भड़काने का काम किया गया। इन दोनों आंदोलनों के पीछे जो राजनीतिक ताकतें खेल, खेल रहीं थीं उनके मंसूबे विधानसभा के परिणामों में दिखाई दिए। यह बात सही है कि समाज को विभाजित करने के खेल में राजनीतिक सत्ता भले ही परिवर्तित हो जाएं, लेकिन देश कमजोरी के रास्ते पर कदम बढ़ाता है।
सुरेश हिन्दूस्थानी
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