पांच राज्यों के चुनाव नतीजों ने कांग्रेस को आक्सीजन देने का काम किया है। हिंदी पट्टी के तीन महत्वपूर्ण राज्यों में कांग्रेस का भाजपा को सत्ता से बेदखल करना बड़ी घटना तो है ही वहीं भविष्य की राजनीति के लिए बड़ा संकेत भी है। नक्सल प्रभावित राज्य छत्तीसगढ़ में भाजपा को 15 लंबे सालों की सत्ता के बाद करारी पराजय झेलनी पड़ी है और मध्य प्रदेश, राजस्थान के जनादेश कुछ असमंजस भरे रहे। वैसे राजस्थान में शुरू से रुझान कांग्रेस के पक्ष में थे।
बुनियादी तौर पर इन जनादेशों को कांग्रेसवादी करार देना इसलिए सटीक लगता है, क्योंकि इन चुनावों में अधिकांश वोट कांग्रेस के पक्ष में आए। कांग्रेस जमीन पर बिखरी पार्टी की तरह है, उसका वहां से उत्थान हुआ है, लिहाजा जनादेश कांग्रेस के बिना व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। कांग्रेस का एक लंबा राजनैतिक वनवास समाप्त हो रहा है, क्योंकि वह उस भाजपा के साथ मुकाबले में रही,
जिसके पास सत्तात्मक, आर्थिक, प्रशासनिक तमाम तरह के संसाधन और शक्तियां थीं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस चुनावी मैदान में एक बार फिर मजबूती से उठ खड़ी हुई है। वो अलग बात है कि भाजपा ने कांग्रेस को आसानी से मैदान जीतने नहीं दिया। कांग्रेस को जीत तो हासिल हुई लेकिन वो भाजपा का सूपड़ा साफ करने में सफल नहीं हो पायी।
इसी तरह राजस्थान में भी बहुमत स्थापित नहीं हो पाया था, लिहाजा सरकार बनने का विश्लेषण बाद में करेंगे। खासकर हिन्दी पट्टी के राज्यों के जनादेश से कुछ बिन्दु बिल्कुल निश्चित लग रहे हैं। मसलन-चुनावी हवा भाजपा-विरोधी है। वोट बटोरने का प्रधानमंत्री मोदी का जादू भी क्षीण हो रहा है। प्रधानमंत्री मोदी का कोई विकल्प ही नहीं है,अब यह भ्रम भी टूटने लगा है। हम फिलहाल यह दावा नहीं करते कि इसी जनादेश की तर्ज पर 2019 के लोकसभा चुनाव भी तय होंगे, लेकिन जनता ने प्रधानमंत्री मोदी के आह्वान भी अस्वीकार करने शुरू कर दिए हैं। यही जनादेश का यथार्थ है।
बेशक इन जनादेशों के बाद,कमोबेश उत्तर भारत में,कांग्रेस का नये सिरे से पुनरोत्थान होना तय है, जहां इन राज्यों में ही लोकसभा की 65 सीटें हैं। यदि कांग्रेस का पुनरोत्थान होता है,तो ‘कांग्रेस-मुक्त’ भारत का जुमला भी बेमानी हो जाएगा। वैसे मिजोरम में कांग्रेस की हार के बाद पूर्वोत्तर कांग्रेस-मुक्त हो गया है। स्वतंत्रता के बाद पहली बार ऐसा हो रहा है कि पूर्वोत्तर के एक भी राज्य में कांग्रेस की सत्ता नहीं है। बहरहाल कांग्रेस के उभार के साथ-साथ पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी का राजनैतिक कद भी बढ़ेगा।
ये जनादेश कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए शानदार तोहफा भी हैं,क्योंकि पार्टी प्रमुख के तौर पर उन्होंने आज की तारीख पर ही, एक साल पहले, कार्यभार संभाला था। अब राहुल गांधी की स्वीकार्यता भी स्थापित होती दिखाई देगी। नतीजतन वह 2019 के आम चुनावों से पहले ही वैकल्पिक नेता के तौर पर उभर सकते हैं।
यहां यह तथ्य विचारणीय है कि यदि राजस्थान व मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार गंवाने के बावजूद लाज बचा पाई तो कहीं न कहीं कांग्रेस के विभिन्न धड़ों द्वारा टिकट बंटवारे में सावधानी बरतने में चूक हुई। तेलंगाना में टीआरएस ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया। वहां के. चंद्रशेखर राव का समय से पहले चुनाव कराने का दांव काम कर गया। पार्टी ने पूर्ण बहुमत हासिल करके राज्य में कांग्रेस- टीडीपी गठबंधन को किनारे कर दिया। भाजपा तो इस राज्य में सत्ता की दौड़ में पहले ही हाशिये पर थी।
कांग्रेस की वापसी को लेकर बड़े-बड़े निष्कर्ष देने वाले चुनाव पंडितों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पूर्वोत्तर में मिजोरम में कांग्रेस का आखिरी किला भी ध्वस्त हो गया। कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे ललथनहावला दोनों जगहों से चुनाव हार गये। यहां मिजो नेशनल फ्रंट सत्ता की सबसे बड़ी दावेदार के रूप में उभरा। नि:संदेह इन चुनाव परिणामों ने जहां कांग्रेस समेत विपक्ष को नया उत्साह दिया वहीं भाजपा को भी आत्ममंथन का मौका दिया है।
बेरोजगारी और महंगाई बढ़ रही थी। किसानों में आक्रोश और गुस्सा था। व्यापार में निर्यात और जीडीपी की दर कम हो रही थी। पेट्रोल और डीजल की लगातार मार सहनी पड़ी थी। आदिवासियों और दलितों ने अपने प्रभाव के इलाकों में भाजपा को समर्थन ही नहीं दिया। समस्याएं चारों ओर बिखरी थीं, उसके बावजूद भाजपा ने मुकाबलेदार चुनाव लड़ा।
यह उसकी उपलब्धि भी रही और सत्ता-विरोधी लहर पार्टी और सरकार के स्तर तक नहीं पहुंच पाई। उसके बावजूद भाजपा हारी और जनादेश कांग्रेस पक्षधर रहे। अब इन जनादेशों के बाद कांग्रेस के सहयोग से महागठबंधन बनाने के प्रयास तेज और सार्थक हो सकते हैं,लेकिन तेलंगाना में कथित महागठबंधन बिल्कुल नाकाम रहा। इसमें कोई दो राय नहीं है कि केंद्र की भाजपा सरकार के कई फैसलों से उसका पंरपरागत वोट बैंक नाराज है, खासकर एससी-एसटी एक्ट में सरकार के हस्तक्षेप को लेकर।
इसलिए यदि बढ़ते जनाक्रोश को थामा नहीं गया तो वर्ष 2019 के आम चुनावों में राजनीतिक तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी। सहयोगी दलों के किनारा करने को एक चेतावनी के रूप में लिया जाना चाहिए। वैसे इन चुनावों ने भाजपा की कई खुशफहमियां तोड़ी हैं। मतदाता को बंधुआ समझ बैठने की जो मूर्खता कांग्रेस को ले डूबी उसे दोहराने की कोशिश में भाजपा ने अपने परंपरागत समर्थकों की सहानुभूति और समर्थन दोनों खोए। यदि ऐसा नहीं होता तब कम से कम मप्र और छत्तीसगढ़ में उसका आत्मविश्वास डगमगाया नहीं होता।
तीनों राज्यों में हार से लोकसभा चुनाव के पहले ही मोदी और अमित शाह की जिताऊ क्षमता और कार्यप्रणाली पर घर के भीतर से ही सवाल उठेंगे और जिन लोगों को किनारे बिठा रखा गया है वे मुखरित हो उठेंगे। इसके प्रारंभिक संकेत मप्र में बाबूलाल गौर और रघुनंदन शर्मा जैसे वरिष्ठ नेताओं के ताजा बयानबाजी से मिल ही चुके हैं। इस जनादेश के बाद भाजपा में मोदी विरोधी गुट मुख होगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।
तेलंगााना में टीआरएस को फिर भरपूर जनादेश मिला और कांग्रेसी गठबंधन 20 के आसपास सीटों पर ही सिमट कर रह गया। बहरहाल इन जनादेशों को अभी से ही 2019 के जनादेश का संकेत नहीं मान लेना चाहिए,क्योंकि वे चुनाव प्रधानमंत्री मोदी की शख्सियत और उनकी सरकार के कार्यों के आधार पर ही लड़े जाएंगे। अंतत: लोकतंत्र ही अंतिम शक्ति साबित हुआ। लोकसभा चुनावों से पहले ये अंतिम विधानसभा चुनाव थे और यह तय है कि इन चुनावों के नतीजे पार्टियों और कार्यकतार्ओं के मनोबल पर असर डालेंगे।
यदि इन विधानसभा चुनावों के नतीजे भाजपा के अनुमान के अनुकूल होते, तो नरेंद्र मोदी के लिए 2019 के लोकसभा चुनावों की राह बहुत आसान हो जाती। हालांकि, यह भी सही है कि कई बार लोकसभा के नतीजे विधानसभाओं के चुनावों के नतीजों से भिन्न आते देखे गये हैं। वैसे आकांक्षाओं के अनुरूप विकास व बदलाव न मिलने पर जनता द्वारा बदला हुआ जनादेश देना लोकतंत्र की खूबसूरती ही है। इन चुनाव नतीजों ने कांग्रेस को आम चुनावों से पूर्व राहत की सांस दी है तो वहीं ब्रांड नरेंद्र मोदी के लिए एक साथ कई मुश्किलें खड़ी कर दी हैं।
राजेश माहेश्वरी
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