विधानसभा चुनाव परिणामों से यह स्पष्ट है कि बीजेपी की लोकप्रियता में कमी आई है। बीजेपी में सिर्फ क्षेत्रीय नेतृत्व का ही नहीं, अपितु केंद्रीय नेतृत्व के करिश्मा में भी कमी दिख रही है। 2013 विधानसभा चुनावों तथा 2014 की लोकसभा चुनावों को मापदंड बनाया जाए तो बीजेपी के गिरते लोकप्रियता को आसानी से समझा जा सकता है। इन कारणों में नोटबंदी की विफलता को प्रथमत: रखा जाना चाहिए। नोटबंदी अपने किसी भी वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाई,न तो कालाधन की वापसी हुई और न ही अर्थव्यवस्था में नकदी तंत्र समाप्त हुआ। उल्टे आरबीआई के आँकड़ों के अनुसार पिछले दो वर्षों में अर्थव्यवस्था में नकद व्यवस्था तंत्र पुन: मजबूत हुआ। लेकिन इससे भारतीय अर्थव्यवस्था पर व्यापक नकारात्मक प्रभाव पड़ा। अर्थव्यवस्था जब नोटबंदी से संघर्ष कर रही थी,तभी लगभग बिना किसी तैयारी के जीएसटी के क्रियान्वयन ने लघु उद्योगों की कमर तोड़ दी। इससे भारी मात्रा में मजदूर बेरोजगार होकर वापस अपने घर पहुँचे। सरकार ने सामाजिक क्षेत्र की कई योजनाओं में बजट कटौती की, जिसके चपेटे में मनरेगा भी आया। बेरोजगार होकर गाँव आए मजदूरों को मनरेगा भी रोजगार देने में आत्मसात नहीं कर पाया। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में भी बैचेनी फैली तथा बीजेपी के प्रति नाराजगी में वृद्धि हुई। छत्तीसगढ़ में रमण सिंह ने मनरेगा के 100 दिन के रोजगार गारंटी के स्थान पर 150 दिन कर दिया था,परंतु केंद्र सरकार द्वारा बजट कटौती के कारण वे इसे क्रियान्वित नहीं कर पाएँ। इसके अतिरिक्त किसानों में भी आक्रोश चरम स्तर पर था। किसानों के आक्रोश को मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणामों में देखा जा सकता है। केंद्र सरकार ने घोषणा कर दी कि लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाएगा ,लेकिन सबसे दुखद बात यह है कि सरकार अधिकांश फसलों को खरीद ही नहीं पाती तथा किसानों को कौड़ियों के भाव फसल बेचने को मजबूर होना पड़ता है। कांग्रेस ने सरकार बनने के 10 दिन के भीतर किसानों की ऋण माफी का आश्वासन दिया,जिससे किसान कांग्रेस की ओर आकर्षित हुए।
इसके अतिरिक्त बीजेपी को त्रिस्तरीय एंटी-इंक्मबेंसी का भी सामना करना पड़ा। लोगों की प्रथमत: नाराजगी अपने विधायकों से रही,जो लंबे समय से जनता से कट चुके थे। द्वितीय नाराजगी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पिछले 15 वर्षों के राज्य सरकार के शासन से भी थी। राजस्थान में तो वसुंधरा के केवल 5 वर्षों के शासन से भी जनता की नाराजगी काफी हो गई थी। तीसरी नाराजगी लोगों की केंद्र सरकार से भी रही। नोटबंदी, मंहगाई, किसानों की समस्या इत्यादि में केंद्र की नीतियां से जनता सहमत नहीं रही। राजस्थान में वसुंधरा राजे पिछले 20 वर्षों से लगातार सत्ता परिवर्तन के रूझान को तोड़ने में असफल रही। उन्होंने भामाशाह हेल्थ इंन्श्योरेंस द्वारा जनता की नाराजगी दूर करने का असफल प्रयास किया। इसके अतिरिक्त वसुंधरा के व्यवहार संबंधी इमेज ने भी बीजेपी को नुकसान पहुँचाया। उनके महारानी छवि के कारण वे जनता से सही तरीके से संबद्ध नहीं हो पाई। राजस्थान में बीजेपी के परंपरागत मतदाता रहे,राजपूत समुदाय के लोग भी उनसे नाराज हैं। इतना ही नहीं, सौंदर्यीकरण के कारण अनेक जगहों पर अवैध अतिक्रमणों को हटाया गया,जिसमें काफी मंदिर भी हटाए गए, जिससे हिंदुओं में नाराजगी आई। रोजगार के मुद्दे पर भी सरकार असफल रही।
इन चुनावों में बीजेपी का सबसे खराब प्रदर्शन छत्तीसगढ़ में रहा। रमन सिंह का यूँ सूफड़ा साफ होने की उम्मीद भी किसी को नहीं थी। रमन सिंह भले ही राज्य में चावल वाले बाबा के नाम से प्रसिद्ध थे, परंतु किसान उनसे नाराज थे। कांग्रेस ने कर्जमुक्त मास्टरस्ट्रोक द्वारा इसका भरपूर लाभ उठाया। रमन सिंह की हार का प्रमुख कारण नक्सलियों पर नाकामी रही। नक्सलवादी क्षेत्रों में लगातार हमले होते गए और इस बार वहाँ मतदान भी बंपर हुआ। स्पष्ट है कि ये बंपर वोटिंग रमन सिंह सरकार के खिलाफ ही थी। छत्तीसगढ़ में कुल 31.8 % मतदाता आदिवासी समुदाय से हैं और 11.6% दलित मतदाता है। स्पष्ट है कि सत्ता की चाभी उनके पास ही है। दलित-आदिवासी बहुल क्षेत्रों में बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। बीजेपी केवल शहरी क्षेत्रों में ही अच्छा प्रदर्शन कर पाई। 15 वर्षों के सत्ता विरोधी आक्रोश के बावजूद मध्यप्रदेश में कांग्रेस और बीजेपी के बीच काँटे की टक्कर दिखी। पूरी मतगणना के दौरान कभी बीजेपी तो कभी कांग्रेस आगे हो रही थी। यह संपूर्ण मुकाबला 20-20 रोमांचक क्रिकेट मैच की तरह रहा। 2013 में शिवराज सिंह चौहान ने ऐतिहासिक 165 सीटें प्राप्त की थी,परंतु इस बार बीजेपी उस ऐतिहासिक आँकड़े से काफी नीचे आई है। लेकिन यह अवश्य कहा जा सकता है कि उन्होंने भारी नाराजगी के बीच मध्य प्रदेश के मुकाबले को काफी कठोर बनाया। अब प्रश्न उठता है कि शिवराज के समकालीन रमन सिंह को भारी पराजय का सामना करना पड़ा तथा केवल 5 वर्षों में वसुंधरा के प्रति राजस्थान में जबरदस्त नाराजगी आई,लेकिन 15 वर्षों के एंटी इंक्मबेंसी के बावजूद शिवराज की स्थिति मजबूत कैसे बनी रही? इसका सर्वप्रमुख कारण है ,उनका किसान पृष्ठभूमि से आना। इसके अतिरिक्त ओबीसी समुदाय से होना तथा जनता से सहज जुड़ने की निपुणता ने भी शिवराज की स्थिति को मजबूत बनाया।
इन सबके अतिरिक्त तेलंगाना में टीआरएस ने भी अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की।119 सदस्यीय विधानसभा में टीआरएस को रूझानों में 86 सीटें मिलती दिख रही हैं। स्पष्ट है कि टीआरएस प्रमुख के. चंद्रशेखर राव का विधानसभा समय पूर्व भंग करने का निर्णय बिल्कुल सही रहा। पूर्वोत्तर राज्यों में मिजोरम में ही अब केवल कांग्रेस की सरकार बची थी। मिजोरम में एमएनएफ ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया है। इस तरह से पूर्वोत्तर अब कांग्रेस मुक्त हो गया है,लेकिन इन चुनावों के बाद अब पुन: देश में विपक्ष के रुप में कांग्रेस को सम्मानित स्थान मिल सकेगा।
इन चुनाव परिणामों से विपक्ष सहित कांग्रेस में राहुल गाँधी के स्वीकार्यता में वृद्धि होगी। लगातार असफलताओं से जूझ रही कांग्रेस को इन चुनाव परिणामों से काफी ऊर्जा मिलेगी तथा कार्यकतार्ओं में भी जोश आएगा। इससे कांग्रेस अब सकारात्मक रूप से 2019 के चुनावों के लिए तैयार हो सकेगी। वहीं बीजेपी को भी इन चुनाव परिणामों को एक वेक अप कॉल के रुप में लेना चाहिए। अति आत्मविश्वास ,टिकट वितरण की गड़बड़ियों से बीजेपी को अवश्य सबक लेना चाहिए। इन परिणामों से अब बीजेपी को सावधान होकर 2019 के चुनावों में जाने का मौका मिलेगा। इसके अतिरिक्त शिवसेना के बयान से स्पष्ट है कि बीजेपी को अब एनडीए सहयोगियों से मिलने वाली चुनौतियों से भी निपटने के लिए तैयार रहना होगा। अंतत: यह कहा जा सकता है कि इन चुनाव परिणामों ने भारतीय लोकतंत्र को स्वस्थ और मजबूत बनाया है।
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