मद्रास हाईकोर्ट द्वारा मुफ्तखोरी को लेकर की गई टिप्पणी निश्चित रुप से चेताने वाली होने के साथ ही समाज में फैल रही विसंगती की और भी इशारा कर रही है। कर्म ही पूजा मानने वाले देश में वोटों की राजनीति के चलते चुनावी वादों के रुप में मुफ्त में खाद्य सामग्री से लेकर दूसरी वस्तुएं बांटने का जो दौर चला है उसकी और सीधा सीधा और साफ साफ इशारा कर दिया है। सही भी है मुफ्तखोरी की आदत के चलते ही वास्तव में लोग आलसी होने लगे हैं। आज फसल काटने के समय मजदूर नहीं मिलता। खेती या अन्य कार्य के लिए मजदूर नहीं मिलने का एक प्रमुख कारण विशेषज्ञों ने साफतौर से मनरेगा के चलते गांवों में आए बदलाव को मानने लगे हैं। मनरेगा जैसी योजनाएं एक मायने में ठीक हो सकती है पर इसमें ठोस आधारभूत सुविधाआें वाले काम हो तो उनका कोई मायना है नहीं तो मिट््टी को इधर से उधर करने से देश को कोई लाभ नहीं होने वाला है। खैर यह अलग विषय है।
एक समय था जब दक्षिण के राज्यों के राजनीतिक दल सत्ता सुख के खातिर खास तौर से द्रमुक और अन्नाद्रमुक द्वारा चावल आदि बांटने की लोकलुभावन घोषणाएं आम थी। अब यह बीमारी उत्तरी राज्योें और देखा जाए तो पूरे देश में कमोबेस हो गई है। अच्छी बात यह है कि राशनकार्ड धारकों को मफ्त चावल दिए जाने पर दक्षिण से ही मद्रास न्यायालय की अच्छी व गंभीर टिप्पणी आई है। आखिर मुफ्त वस्तुएं या सुविधाएं उपलब्ध कराने का वादा लोकतंत्र की मूल भावना के प्रतिकूल नहीं है तो क्या है? मजे की बात यह है कि तथाकथित वुद्धिजीवी, प्रतिक्रियावादी या बात बात पर प्रतिक्रियाएं देकर मीडिया में छाने का प्रयास करने वाले या टीवी चैनलों पर चुनावों को लेकर गाल बजाने वाले इस तरह की घोषणाओं पर सीधे सीधे प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करते।
चुनावी वैतरणी पार करने के लिए लोकलुभावन चुनावी घोषणाएं करना आम होता जा रहा है। कभी लेपटॉप बांटने तो कभी मुफ्त बिजली, मुफ््त शिक्षा, मुफ्त स्कूटी या पानी या अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने की घोषणाएं आम है। चावल या अनाज बांटने की घोषणाएं तो आम रही है। ठीक है कि राजनीतिक दलों की सत्ता सिंहासन तक पहुंचना एक मजबूरी है। यह भी सही है कि राजनीति में कोई भी आता है तो वह केवल और केवल भजन या समाज सेवा के लिए तो आता नहीं है। यह भी सही है कि चुनाव जीतने के लिए लोकलुभावन घोषणाएं आम होती जा रही है। एक समय था जब चुनाव से ठीक पहले आना वाला केन्द्र या राज्य का बजट लोकलुभावन होता था। उस बजट में लोकलुुभावन घोषणाएं होती थी, रियायतें होती थी, कर छूट होता था पर ऐसा बहुत कम देखने को मिलता था खासतौर से दक्षिण के राज्यों को छोड़कर अन्य राज्यों व केन्द्र में मुफ्तखोरी की घोषणाएं तो कम से कम नहीं होती थी। यहां हमें रियायतों और मुफ्तखोरी में अंतर करना होगा। मुफ्तखोरी और मुफ्त शिक्षा- स्वास्थ्य सेवाओं में अंतर करना होगा। यदि सबको चिकित्सा सुविधा नि:शुल्क उपलब्ध कराई जाती है या मुफ््त शिक्षा की बात की जाती है तो इसे मुफ्तखोरी नहीं कहा जा सकता बल्कि यह तो संवेदनशील लोकहितकारी सरकारों का दायित्व हो जाता है। पर सभी या वर्ग विशेष को मुफ््त भोजन, मुफ््त खाद्यान्न, बिना काम के भत्तों आदि का वितरण सत्ता की सीढ़ी तो बन सकता है पर देखना यह होगा कि आखिर इसका समाज और सामाजिक व्यवस्था पर असर क्या पड़ रहा है। ठीक है जरुरतमंद लोगों या अन्य को आप एक सीमा तक सहायता दे सकते हैं। मद्रास हाईकोर्ट ने सही ही कहा है कि मुफ्तखोरी से लोग आलसी होते जा रहे हैं।
आखिर राजनीतिक दलों द्वारा सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने के लिए किए जाने वाले मुफ्तखोरी के वादे किसके बल बल पर किए जाते हैं। साफ है कड़ी मेहनत कर सरकारी खजाने में करों के माध्यम से पैसा देने वाले मेहनतकश आमआदमी का पैसा है। इस आम आदमी के करों से प्राप्त राशि के उपयोग को मुफ्तखोरी में किया जाता है तो देश की उत्पादकता में भागीदार बनने वाले हाथों को आलसी बनाना नहीं है तो क्या? सरकार लोगों के जीवन स्तर को उंचा करने और समावेशी के लिए सुविधाओं और सेवाओं का विस्तार कर भी बहुत कुछ अर्जित कर सकती है। सबकों समान रुप से शिक्षा का अवसर, उच्च व तकनीकी शिक्षा की पहुंच साधनहीन पर योग्य युवाओं तक पहुंचाने की व्यवस्था, सबको चिकित्सा सुविधा, पानी बिजली की सुविधा, सस्ता और बेहतर आवागमन, गरीबों को सस्ता अनाज आदि ऐसी सुविधाओं को पहुंचाया जाता है तो सभी लोग समान रुप से विकास में भागीदार बनेंगे। नही ंतो देश की जनशक्ति मुफ्तखोरी के लालच में विकास में भागीदार कैसे बन पाएगी। ऐसी लोकलुभावन मुफ्तखोरी की योजनाएं सत्ता तक पहुंचने का माध्यम तो बन सकती है पर इसके जो परिणाम सामने आ रहे हैं वह समाज में गंभीर विसंगती पैदा करने वाले हैं। राजनीतिक दलों के साथ ही प्रतिक्रियावादियों और गैर सरकारी संगठनों को भी इस दिशा में प्रखरता के साथ आगे आना होगा।
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