नक्सल प्रभावित राज्य छत्तीसगढ़ में चुनाव के पहले चरण में विधानसभा की कुल 90 में से 18 सीटों पर हुए चुनाव में जिस प्रकार जनता जनार्दन ने नक्सलियों की धमकियों से बेपरवाह होकर 70 फीसदी मतदान किया, उसके लिए वहां की जनता निसंदेह बधाई की पात्र है। 18 सीटों पर मतदान के बाद अब 20 नवम्बर को शेष 72 सीटों पर मतदान होना है और पहले चरण के मतदान के बाद इन सीटों के लिए घमासान अब और तेज हो गया है।
प्रदेश में कुल 2.55 करोड़ मतदाता हैं और दिलचस्प बात यह है कि महिला मतदाताओं की संख्या भी यहां पुरूषों के लगभग बराबर है तथा करीब डेढ़ दर्जन सीटों पर तो हार-जीत का सारा दारोमदार महिला मतदाताओं पर ही होता है। 90 में से 10 सीटें अनुसूचित जाति, 29 अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं जबकि 51 सामान्य सीटें हैं लेकिन इन सामान्य सीटों में से भी करीब 11 सीटों पर अनुसूचित जातियों का काफी प्रभाव देखा जाता है।
छत्तीसगढ़ में करीब 1.1 करोड़ मतदाता एस-एसटी समुदाय से हैं और इन्हीं सब परिस्थितियों के आधार पर सभी पार्टियां सोशल इंजीनियरिंग का पूरा ध्यान रखते हुए जातीय समीकरण साधने की कवायद कर रही हैं क्योंकि इस राज्य में आरक्षित सीटें सत्ता की अहम केन्द्रबिन्दु रही हैं, जिनकी अनदेखी कर सत्ता की वैतरणी पार कर पाना नामुमकिन है। हकीकत यही है कि आरक्षित सीटों में से सर्वाधिक सीटें जीतने वाला दल ही यहां सदैव किंगमेकर की भूमिका में रहा है।
यही वजह है कि जहां भाजपा को इस राज्य में पिछड़ी जातियों के बीच भी लोकप्रिय माना जाता रहा है, वहीं कांग्रेस ने भी अपनी रणनीति में बड़े बदलाव करते हुए पिछड़ी जातियों से संबंध रखने वाले कई नेताओं को खास अहमियत देकर कुछ अहम पदों पर उनकी नियुक्तियां की हैं। प्रदेशाध्यक्ष भूपेश बघेल कुर्मी समुदाय से हैं जबकि राज्य के प्रभारी महासचिव पी एल पूनिया अनुसूचित जाति से और राज्य प्रभारी चंदन यादव पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखते हैं। पिछली जाति के पूर्व केन्द्रीय मंत्री चरणदास महंत और सांसद ताम्रध्वज साहू को भी पार्टी ने चुनावी मैदान में उतारा है।
2008 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को आरक्षित सीटों में 24 जबकि कांग्रेस को 14 सीटें मिली थीं और 2013 के चुनाव में भाजपा को 20 जबकि कांग्रेस को 19 सीटों पर सफलता मिली थी। कुछ विश्लेषक अब मान भी रहे हैं कि एससी-एसटी वोट बैंक अब धीरे-धीरे भाजपा से छिटक रहा है और कांग्रेस इनके बीच अपना जनाधार मजबूत करती जा रही है।
अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो 25 फीसदी से कम एसटी आबादी वाली सीटों पर भाजपा को लाभ मिलता रहा है किन्तु 50 फीसदी से अधिक एसटी आबादी वाली सीटों पर कांग्रेस का वोट बैंक तेजी से बढ़ा है। 2003 में भाजपा को 41.4 फीसदी एसटी वोट मिले थे जबकि कांग्रेस को महज 34.9 फीसदी, 2008 में भाजपा को 39.2 फीसदी और कांग्रेस को 36.5 फीसदी लेकिन 2013 में भाजपा को 38.6 और कांग्रेस को 41.6 फीसदी वोट प्राप्त हुए थे। इसीलिए कहा जा रहा है कि कभी भाजपा की मजबूती का आधार रही आरक्षित सीटों पर कांग्रेस की बढ़त का अगर यही रूझान बरकरार रहा तो भाजपा के लिए बड़ी मुश्किलें पैदा हो सकती हैं।
2003 से 2013 तक के चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो 2003 में भाजपा को 39.26 फीसदी मतों के साथ 50 सीटें जबकि कांग्रेस को 36.71 फीसदी मतों के साथ 37 सीटें प्राप्त हुई थी। एनसीपी को 7.02 और बसपा को 4.45 फीसदी मत मिले थे। 2008 में भाजपा 40.33 फीसदी मतों के साथ 50 सीटें जीतने में सफल हुई थी जबकि कांग्रेस को 38.63 फीसदी मतों के साथ 38 सीटें मिली थी। बसपा ने 6.11 फीसदी मत प्राप्त किए थे। 2013 के चुनाव में भाजपा को 41.04 फीसदी मतों के साथ 49 सीटों पर सफलता मिली और कांग्रेस को 40.29 फीसदी मतों के साथ 38 सीटों से संतोष करना पड़ा। बसपा 4.27 फीसदी मतों के साथ एक सीट जीतने में सफल हुई थी।
वर्ष 2000 में अस्तित्व में आए इस आदिवासी बहुल राज्य में पहली सरकार अजीत जोगी के नेतृत्व में कांग्रेस की बनी थी किन्तु 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस से सत्ता छीन ली थी और 7 दिसम्बर 2003 से यहां डा. रमन सिंह के नेतृत्व में भाजपा सत्तारूढ़ है लेकिन भाजपा के शासनकाल के इन डेढ़ दशकों में कुछ समस्याएं ऐसी हैं, जो जस की तस हैं और लोगों में उन्हें लेकर खूब नाराजगी है।
सत्ता विरोधी लहर का सामना भी भाजपा को करना पड़ रहा है। भले ही प्रदेश में विकास कार्यों का खूब ढ़िंढ़ोरा पीटा जाता रहा हो किन्तु वास्तविकता यही है कि राज्य के कई इलाके ऐसे हैं, जहां विकास कार्यों की बड़े स्तर पर अनदेखी हुई है, जिसे लेकर जनता का आक्रोश देखने को भी मिल रहा है। कई इलाके नक्सल प्रभावित हैं, जहां बहुत कम विकास हुआ है और ऐसे इलाकों में युवाओं के लिए रोजगार के अवसरों की भारी कमी है। इस राज्य के किसानों की कृषि से आय भारत में सबसे कम है, इसलिए किसानों में भी आक्रोश है।
इतने लंबे समय तक सत्ता में रहने के बाद भी भाजपा नक्सलवाद पर नकेल कसने में सफल नहीं हो सकी बल्कि यह समस्या और बढ़ी है। राज्य के कई हिस्से नक्सली हिंसा से प्रभावित हैं और आंकड़ों पर नजर डालें तो 2005 से अभी तक तीन हजार से अधिक लोग नक्सली हिंसा की भेंट चुके हैं। कांग्रेस की एक पूरी परिपक्व पीढ़ी ही कुछ बरसों पहले नक्सली हिंसा की भेंट चढ़ चुकी है, जिसका खामियाजा उसे अभी तक भुगतना पड़ रहा है।
मुख्य चुनावी मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच है और दोनों ही दलों द्वारा नवम्बर के दूसरे सप्ताह में जारी अपने-अपने घोषणा पत्र में सभी वर्गों को लुभाने के लिए ढ़ेर सारे दावे और वायदे किए गए हैं। एक ओर जहां भाजपा ने गरीबों के लिए पक्के मकान, गरीबों को पांच लाख का बीमा, 60 साल से अधिक आयु के भूमिहीन किसानों व खेतीहर मजदूरों को 1000 रुपये पेंशन, युवाओं को रोजगार सुनिश्चित करने के लिए कौशल उन्नयन भत्ता, दलहन-तिलहन की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद सुनिश्चित करने जैसे वायदे किए हैं,
वहीं कांग्रेस ने सरकार बनने के 10 दिनों के भीतर किसानों का कर्ज माफ करने और दो साल का बोनस दिए जाने, ग्रामीण और शहरी गरीबों के लिए पक्के मकान, प्रत्येक परिवार को एक रुपये प्रति किलो की दर से प्रतिमाह 35 किलो चावल, 60 साल से अधिक उम्र के किसानों के लिए पेंशन योजना, घर-घर रोजगार, हर घर रोजगार के तहत युवाओं को नौकरी, राजीव मित्र योजना के तहत 10 लाख बेरोजगारों को मासिक भत्ता दिए जाने जैसे वायदे अपने घोषणापत्र में किए हैं।
हालांकि भाजपा को यहां डेढ़ दशकों के दौरान किए अपने कामकाज और केन्द्र की कल्याणकारी योजनाओं को लेकर जीत का भरोसा है और प्रधानमंत्री मोदी के धुआंधार प्रचार से भी पार्टी की उम्मीदें बढ़ी हैं लेकिन टिकटों से वंचित रह गए कई दिग्गज नेता पार्टी का खेल बिगाड़ने में भूमिका निभा सकते हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस को सत्ता विरोधी लहर का फायदा मिलने की कुछ उम्मीदें तो हैं ही और संकल्प यात्रा के जरिये राहुल गांधी जिस प्रकार प्रचार को धार दे रहे हैं, वह भी कांग्रेस के लिए फायदे का सौदा साबित हो सकता है लेकिन पार्टी के भीतर व्याप्त गुटबाजी कांग्रेस की उम्मीदों पर पानी फेर सकती है। कांग्रेस के लिए दुविधा यह भी है कि अजीत जोगी के कांग्रेस से अलग होने के बाद राज्य में उसके पास कोई करिश्माई नेता नहीं है।
हालांकि अधिकांश सर्वेक्षणों में कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे की टक्कर बताई जा रही है लेकिन प्रदेश में अजीत जोगी की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, जिन्होंने जातीय समीकरण साधने के लिए अपनी नई पार्टी ‘जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ का बसपा और भाकपा के साथ गठजोड़ कर कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा के लिए भी मुश्किलें बढ़ा दी हैं।
बसपा भले ही यहां कोई दमदार भूमिका में नहीं है किन्तु कुछ सीटों पर समीकरण बिगाड़ने में अहम भूमिका अवश्य निभा सकती है। पिछले चुनाव में उसे 4.27 फीसदी मत मिले थे। राज्य में सतनामी समुदाय की करीब 12 फीसदी आबादी है और अजीत जोगी की प्रदेश में एसटी के अलावा सतनामी समुदाय पर भी मजबूत पकड़ मानी जाती है। बहरहाल, देखना यह है कि एससी-एसटी और पिछड़ा वोटबैंक किस दल का खेवनहार बनकर उसे सत्ता की सीढ़ियों तक पहुंचाने में मददगार साबित होता है।
योगेश कुमार गोयल
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