भारत की राजनीति आज ऐसी दिखायी दे रही है कि मानो रजनीतिक पार्टियां कह रही हों मेरे साथ रहोगे तो ऐश करोगे। राजनीतिक दलों ने मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में चुनावों की तैयारी कर दी है। दूसरी ओर इतिहास अपनी पुनरावृति कर रहा है जिसके अंतर्गत विपक्षी पार्टियां 2019 के चुनावों में सश्क्त भाजपा के विरुद्ध एक महागठबंधन बनाने का प्रयास कर रही हैं। कुल मिलाकर यह किसी भी कीमत पर कुर्सी और सत्ता का खेल है।
कर्नाटक में उपचुनावों में लोक सभा और विधान सभा की पांच सीटों में से चार सीटों पर कांग्रेस-जद (एस) विजयी हुआ। यह बताता है कि यद्यपि राजनीतिक दल विभिन्न सामाजिक समूहों का प्रतिनिधित्व करते हों किंतु यदि वे एकजुट हों तो उनका प्रत्याशी जीत सकता है। इससे भाजपा कुछ परेशान है और निकट भविष्य में उसके मार्ग में बाधाएं आ सकती हैं। विशेष रूप से तब जब जून में 11 राज्यों में लोक सभा और विधान सभाओं की 15 सीटों में से राजग केवल 3 सीटें जीत पाया। यह भाजपा के लिए बुरी खबर थी और विपक्ष को यह संकेत मिला था कि स्थानीय स्तर पर एकजुटता से भाजपा को हराया जा सकता है और इसका उदाहरण उत्तर प्रदेश का कैराना है जहां पर अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोक दल के उम्मीदवार ने बसपा, सपा और कांग्रेस के समर्थन से भाजपा उम्मीदवार को हराया।
भाजपा इस बात से चिंतित है कि ये पार्टियां न केवल एकजुट हो रही हैं अपितु उनमें परस्पर विरोध के बावजूद वे जीत रही हैं और लोक सभा में अल्पमत में रहने के बावजूद वह यह संदेश देने में सफल हो रहा है कि उसके पास संख्या न हो किंतु फिर भी वह सरकार को धूल चटाने में सक्षम है। इसके विपरीत राज्य सभा में विपक्षी दल अपने संख्या बल के आधार पर सदन को चलने नहीं दे रहे हैं। दूसरी ओर तेलंगाना में प्रबल प्रतिद्वंदियों कांग्रेस, तेदेपा और माकपा के बीच गठबंधन से तेलंगाना राष्ट्र समिति की समस्याएं बढी हैं और वहां का राजनीतिक समीकरण बदल गया है। राज्य में आशा की जा रही है कि तेदेपा सत्ता में वापसी करेगी। छत्तीसगढ़ में बसपा अजीत जोगी की पार्टी के साथ गठबंधन कर रही है और वह भाजपा सरकार को कड़ी चुनौती दे रही है।
विपक्ष की इस नई नवेली एकता की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि दक्षिण के क्षेत्रीय क्षत्रप तेदेपा के चन्द्रबाबू नायडू 2019 में भाजपा के विरुद्ध विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए आगे आ रहे हैं और इस मामले में उन्होंने तृणमूल की ममता को पीछे छोड़ दिया है। नायडू एक मुख्य रणनीतिकार के रूप में उभरे हैं और उन्होंने कांग्रेस, जद (एस) और वामपंथी मोर्चे को एकजुट करने का कार्य किया है। यही नहीं अपने प्रबल प्रतिद्वंदी कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर उन्होने मोदी विरोधी खेमे का साथ दिया है और यह स्पष्ट किया है कि यदि उद्देश्य बड़ा हो तो वे दशकों पुरनी प्रतिद्वंद्धिता को छोड़ सकते हैं। नायडू की राकांपा के शरद पवार, तृणमूल की ममता, सपा के मुलायम और आप के केजरीवाल के साथ भी अच्छी पटरी बैठती है। वे और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी एक नई शुरूआत कर रहे हैं।
वे जानते हैं कि कुछ क्षेत्रीय क्षत्रप कायर हैं और वे अंतिम क्षणों में पक्ष बदल देते हैं इसलिए उन्होंने शरद यादव और अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेस को भी अपने साथ मिला लिया है। हालांकि विपक्षी एकता की यह अभी शुरूआत है किंतु उनकी पार्टी के कार्यकर्ता और प्रतिंद्वंद्धी उन्हें शांत और सजगता से कार्य करने वाला मानने लगे हैं। मोदी की तरह नायडू भी विकास के एजेंडा में विश्वास करते हैं, प्रौद्योगिकी प्रेमी हैं और जनता के साथ उनका जुड़ाव है। वे जोखिम लेते हैं और उनके साथ कोई घोटाला नहीं जुडा है।
प्रश्न उठता है कि क्या विपक्ष की एकता केवल एक दिखावा है। क्या नायडू विपक्ष को एकजुट कर पाएंगे? क्या चह एकजुटता केवल विधान सभा चुनावों के दौरान देखने को मिलेगी क्योंकि भाजपा, कांग्रेस, तेदेपा, तेलंगाना राष्ट्र समिति और बसपा के अलावा सपा, तृणमूल, द्रमुक, अन्नाद्रमुक और बीजद का मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ, तेलंगाना और मिजोरम की राजनीति से कोई सरोकार नहीं है।
विपक्ष की विभिन्न पार्टियों के अलग-अलग एजेंड़ा और उद्देश्यों को देखते हुए विपक्षी एकता आसान नहीं है। विपक्ष में विश्वसनीय एकता के लिए इसका नेतृत्व सबसे बड़ी पार्टी या किसी अन्य बड़ी पार्टी के नेता द्वारा किया जाना चाहिए। कांग्रेस के राहुल गांधी को अगंभीर राजनीतिक नेता माना जा रहा है और तृणमूल की ममता का महागठबंधन एक दिवास्:वप्न बन गया है और इस स्थिति में तेदेपा के नायडू जिनकी पार्टी लोक सभा में सातवें नंबर पर है विपक्षी एकता का जिम्मा संभाल रहे हैं।
प्रश्न यह भी उठता है कि क्या भाजपा की अविजेयता समाप्त हो रही है? क्या हिंदुत्व कार्ड का प्रभाव समाप्त होने लगा है? क्या प्रशासन विरोध लहर तथा विपक्ष की एकता भाजपा की चुनावी मशीन पर ब्रेक लगा रहे हैं? इस स्थिति के लिए भाजपा स्वयं जिम्मेदार है। मोदी सरकार अपने वायदे पूरे नहीं कर पायी है। अर्थव्यवस्था का निष्पादन अपेक्षानुरूप नहीं रहा है।
ग्रामीण क्षेत्रों में असंतोष है। शहरी लोग मतदान के प्रति उदासीन हैं। रोजगार सृजन न करने की वजह से युवाओं में आक्रोश है और सांप्रदायिक धु्रवीकरण से शायद चुनावी लाभ न मिले। साथ ही भाजपा के मत प्रतिशत में गिरावट भी आ रही है। किंतु इन सबने भाजपा के लिए नए विकल्प भी खोले हैं। भाजपा के लिए एक वर्ष पूर्व जिस भारी जीत की संभावनाए ंथी अब वो संभावनाएं कुछ कम हो गयी हैं।
उपचुनावों में भाजपा की हार से वह विपक्षी एकता को हल्के में नहीं ले सकती है और उसे एक नई रणनीति बनानी पड़ेगी। इस दौरान भाजपा ने दस लोक सभा सीटों पर हार का सामना किया है और अब लोक सभा में उसका साधारण बहुमत 272 सांसद रह गए हैं तथा अपने बहुमत को सिद्ध करने के लिए वह अपने सहयोगी दलों पर निर्भर है। 2019 के चुनावों में उसकी संख्या और कम हो सकती है किंतु भाजपा में एक कुशल खिलाड़ी है। मोदी का कोई प्रतिस्पर्धी नहीं है और अमित शाह ने भाजपा को एक चुनावी मशीन बना दिया है जो अच्छा परिणाम दे रहे हैं और पार्टी ने त्रिपुरा सहित 21 राज्यों में विजय प्राप्त की। फिलहाल भाजपा का कोई विकल्प नहीं दिखायी देता है।
दूसरी और विपक्षी एकता के बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। कर्नाटक, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश के प्रयोगों ने विपक्ष को 2019 के चुनावों में अलीबाबा की गुफा में प्रवेश के लिए खुल जा सिमसिम का कोड दिया है। बिहार, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक के उपचुनावों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यदि विपक्ष एकजुट होता है तो मोदी के रथ को रोका जा सकता है और मुख्य राज्यों में बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक जैसे महागठबंधन बनाए जा सकते हैं।
विपक्षी पार्टियां जानती हैं कि वे अपनी वे अपनी-पुरानी प्रतिद्वंदिता को इसलिए किनारे रख रहे हैं ताकि भाजपा का मुकाबला किया जा सके। उन्हें कुशल राजनीतिक कदम उठाने होगे और भाजपा की उत्कृष्ट चुनावी मशीनरी का मुकाबला करने के लिए ठोस चुनाव प्रबंधन करना होगा।
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या कांग्रेस अपनी क्षमताओं की पहचान कर पाएगी और इस प्रयोग को आगे बढ़ा पाएगी? क्या वह 2019 के चुनावों में नमो की भाजपा का मुकाबला करने के लिए क्षेत्रीय पार्टियों की पिछलग्गू बनेगी? दूसरी ओर मोदी और शाह की जोड़ी को हाल के चुनावों में जो हार मिली है उससे उन्हें अपनी पार्टी की स्थिति में सुधार लाना होगा और बढ़त बनने के लिए राज्य नेतृत्व को मजबूत करना होगा। भाजपा को तुरंत सुधारात्मक कदम उठाने होगे क्योंकि पार्टी में किसी भी तरह के मतभेदों से उसका राजनीतिक समर्थन गिर सकता है।
यही नहीं मोदी की परीक्षा विधान सभा चुनावों और अगले वर्ष आम चुनावों में होगी। इसलिए पार्टी के पास अभी सुधार का समय है। भाजपा सत्ता में है इसलिए उसके पास लोगों को लुभाने और प्रतिद्वंदियों को अपने साथ मिलाने की क्षमता है। कुल मिलाकर यह भारत के लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है कि इसमें अंतत: विपक्ष अपनी भूमिका निभाने लगा है। वह एक रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभा रहा है। जिसमें जो जीता वही सिकंदर होता है।
पूनम आई कौशिश
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