दुनिया में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृति की गंभीरता को इसी से समझा जा सकता है कि इंग्लैण्ड में खुदकशी रोकने के लिए अलग से मंत्रालय बनाया गया है। इंग्लैण्ड की प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने बढ़ती आत्महत्याओं को रोकने के लिए अलग से मंत्रालय बनाकर आत्महत्या मामलों की नई मंत्री बनाया है। यह शायद पहला मौका है जब किसी देश में आत्महत्या रोकने को लेकर अलग मंत्रालय बनाया गया है। इंग्लैण्ड की यह पहल इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है कि आत्महत्या की प्रवृति खासतौर से युवाओं में तेजी से बढ़ रही है। मजे की बात यह है कि हमारे देश में तो राजनीतिक दलों व प्रतिक्रियावादियों द्वारा आत्महत्याओं को राजनीतिक रोटियां सेंकने के हथियार के रुप में काम में लिया जाता है।
आत्महत्याओं के कारणों के प्रति गंभीर होने के स्थान पर राजनीतिक दलोें, प्रतिक्रियावादियों द्वारा इसे नए आंदोलन के रुप में उपयोग किया जाने लगा है। हांलाकि यह अपने आपमें गंभीर है। प्रश्न यह उठता है कि कोई किसी भी कारण से आत्महत्या करता है तो उसका दोष केवल व्यवस्था पर मढ़ देना उचित नहीं माना जा सकता। इंग्लैण्ड ने आत्महत्या की बढ़ती प्रवृति को गंभीरता से लिया है। यही कारण है कि यह मंत्रालय इंग्लैण्ड में आत्महत्या रोकथाम संबंधी नए राष्टÑीय प्रयास करेगा।
अवसाद में आए नागरिकों से संवाद कायम कर अवसाद के कारणों का समाधान करेगा। आत्महत्या रोकने के राष्टर््ीय प्रयासों की अगुवाई कर आत्महत्याओं में कमी लाएगा। दरअसल एक मोटे अनुमान के अनुसार इंग्लैण्ड में प्रतिवर्ष 4500 लोग मौत को गले लगाते हैं। इनमें भी अधिकांश संख्या युवाओं की होती है। 19 हजार लोग आत्महत्या के प्रयास करते सामने आए हैं साल 2015-16 में इंग्लैण्ड में। दर असल आत्महत्या का प्रमुख कारण डिप्रेशन का बढ़ता प्रभाव है। अनुमान के अनुसार पिछले 25 सालों में इंग्लैण्ड में 70 फीसदी की दर से डिप्रेशन में बढ़ोतरी हो रही है। यह अपने आप में गंभीर है।
हांलाकि वर्तमान परिस्थितियों, सामाजिक ताने बाने, रहन-सहन, खान-पान, आवश्यकताओं में बढ़ोतरी और अंधी प्रतिस्पर्धा के चलते एकाकीपन और कुंठा में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। यही कारण है कि जान दे देना और जान ले लेना आज बच्चों का खेल होता जा रहा है। यह विश्वव्यापी समस्या है। देखा जाए तो इंग्लैण्ड में सांसद कॉक्स के अनवरत अभियान का यह परिणाम है। लेबर पार्टी के सांसद जो कॉक्स ने समूचे इंग्लैण्ड में अकेलेपन और डिप्रेशन के खिलाफ मुहिम चलाई और इस हिम का परिणाम ही रहा है कि इंग्लैण्ड में अलग से मंत्रालय अस्तित्व में आया है।
युवाओं में तेजी से बढ़ती डिप्रेशन की बीमारी को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन का अध्ययन न केवल चेताने वाला है अपितु गंभीर चिंता का विषय भी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार 2020 आते आते डिप्रेशन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी बीमारी हो जाएगी। अकेले इंग्लैण्ड में 90 लाख लोग अकेलेपन व डिप्रेशन के शिकार हैं। ऐसा नहीं है कि डिप्रेशन या आत्महत्या इंग्लैण्ड की ही समस्या है अपितु यह विश्वव्यापी समस्या है और यही कारण है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन लगातार चेताता आ रहा है।
डिप्रेशन के कारण कुंठा, अवसाद, चिड़चिड़ापन और आत्म हत्याओं का ग्राफ दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। संयुक्त परिवार का विघटन, नौकरी में लक्ष्य प्राप्ति के लिए अत्यधिक दबाव, अनावश्यक प्रतिस्पर्धा, दूसरे के सुख से दुबले होना आदि ऐसी प्रवृतियां विकसित होती जा रही हंै जिससे व्यक्ति कुंठाग्रस्त होकर डिप्रेशन का शिकार होता जा रहा है।
अकेलेपन और डिप्रेशन की समस्या से युवाओं के साथ साथ बुजुर्ग भी झेलते जा रहे हैं। बदलती पारिवारिक स्थितियां बुजुर्गों को एकाकीपन की और धकेल रही हैं और यह एकाकीपन डिप्रेशन का रुप लेता जा रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार कार्य क्षेत्र पर अत्यधिक दबाव और टारगेट आधारित वेतन भत्तों के चलते कारपोरेट क्षेत्र में काम करने वाले 42 फसीदी युवा डिप्रेशन की चपेट में आते जा रहे हैं।
आज की युवा पीढ़ी खेलने-कूदने के दिनों में जिस तरह से डिप्रेशन का शिकार हो रही है वह किसी भी देश की भावी पीढ़ी के लिए उचित नहीं माना जा सकता है। सबसे मजे की बात यह है कि ग्लेमर या मौज मस्ती की मानी जानी वाली नौकरियों में ही सर्वाधिक डिप्रेशन का शिकार होना पड़ रहा है। आज सबसे ज्यादा डिप्रेशन का शिकार मीडिया खासतौर से इलेर्क्टेनिक मीडिया से जुड़े युवा, दूरसंचार, आईटी, केपीओ, बीपीओं और मार्केटिंग से जुड़े क्षेत्र के युवा हो रहे हैं।
यह सब तो तब है जब आज की युवा पीढ़ी स्वास्थ्य और खान-पान के प्रति अधिक सजग होने लगी है। जिम जाना या भोजन में कोलेस्टर््ेल, प्रोटिन, काबोर्हाईड्रेट या अन्य पोषक तत्वों की अधिक जानकारी रखने के बावजूद फास्टफूड का बढ़ता मोह स्वास्थ्य को बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है।
गैलप की भी सर्वे रिपोर्ट ने विकास की ओर तेजी से बढ़ते भारत के नियंताओं को सोचने को मजबूर कर दिया है। गैलप की सर्वे रिपोर्ट के अनुसार देशवासियों खासतौर से ग्रामीणों में निराशा की भावना अधिक बढ़ रही है। बदलते सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने के कारण निराशा बढ़ना स्वभाविक भी लगती है। एक समय था तब हमारा आदर्श साधा जीवन-उच्च विचार होता था। जीवन की सीमित आवश्यकताओं के कारण जीवन जीने का अलग ही अंदाज होता था। दैनिक आवश्यकताएं सीमित होती थी।
दिखावे को सराहा नहीं बल्कि व्यंग के रुप में देखा जाता था। व्यक्ति की पहचान उसकी सादगी और विचारों से होती थी। आज स्थिति उलट है। अमीर व गरीब के बीच की खाई बढ़ने के साथ ही अमीर व अमीर के बीच ही दिखावे की अंतहीन प्रतिस्पर्धा होने लगी है। तेरी कमीज मेरी कमीज से अधिक उजली कैसे ? इसी में मरे जा रहे हैं हम आज।
गैलप की रिपोर्ट में खुलासे के अनुसार पिछले वर्षोे में ही सोच में काफी बदलाव आ गया है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने विज्ञापनों के माध्यम से जो सब्जबाग दिखाया है उसके कारण लोगों में जीवन जीने को लेकर असंतोष अधिक बढ़ा है। ग्रामीण क्षेत्र में सुविधाओं का विस्तार हुआ है। नए रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन, बढ़ती महंगाई की तुलना में सीमित आय व जीवन स्तर में बदलाव के कारण निराशा अधिक बढ़ रही है। गॉंवों में पारंपरिक उद्योगों की जगह नए उद्योगों ने ले ली है।
कारपोरेट कार्मिकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती प्रतिस्पर्धा के कारण तनाव में रहना है। एकल परिवार, कार्यक्षेत्र परिवार से दूर होने के कारण अकेले रहने, लिव इन रिलेशनशिप, बाजार में प्रतिस्पर्धा और ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत की संस्कृति के कारण तनाव बढ़ रहा है। आज घर की परिभाषा ही बदल गई है। अब तो परिवार के भी मानक बदल गए हैं।
रिश्ते नाते पीछे चले गए हैं, डिप्रेशन रिलीज नहीं होने के कारण मस्तिष्क के किसी कोने में तनाव के अंश सुशुप्त अवस्था में रह जाते हैं और इससे कुंठा, अनिंद्रा, झुंझलाहट, ब्लडप्रेशर और ना जाने कितनी ही बीमारियों को पाल लेते हैं। टीवी चैनलों में आ रहें आज के सीरियलों में एक के बाद एक साजिशों का दौर तनाव का नया कारण बनता जा रहा है। एक समय था जब घर को पूरा समय नहीं देने पर बड़े बुजुर्ग कहा करते थे कि घर को सराय समझ रखा है क्या वहीं आज नौकरी पेशा लोगों के लिए घर सराय से अधिक नहीं रह जाता है।
इंग्लैण्ड ने समय रहते वक्त की नजाकत और समस्या की गंभीरता को समझा है। अकेलेपन और डिप्रेशन की समस्या विश्वव्यापी समस्या है और जिस तरह से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी बीमारी बनने जा रही है इसके लिए सरकारों के साथ ही सामाजिक चिंतकों व मनोविज्ञानियों को गंभीर चिंतन मनन करना होगा ताकि समय रहते इस समस्या का हल खोजा जा सके। आत्महत्याओं को राजनीतिक रोटियां सेंकने का माध्यम बनाना किसी भी तरह से आज की युवा पीढ़ी के हित में नहीं होगा। समाज विज्ञानियों को भी खुदकशी की बढ़ती समस्या के कारणों को चिन्हित करने के साथ ही सरकारों को सामाजिक ताने-बाने को टूटने से बचाना होगा।
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
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