नोटबंदी लागू करने के दो साल बाद भी वे परिणाम नहीं दिख सके जिनके दावे सरकार ने जोर-शोर से किए थे। सैद्धांतिक तौर पर नोटबन्दी एक आर्थिक-राजनैतिक निर्णय होता है जिसे लागू करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है किंतु जब इस निर्णय का संतुलन बिगड़कर केवल राजनेताओं के हाथों में आ जाए तो अर्थ का अनर्थ हो जाता है। अब यह बात समझ आती है कि नोटबन्दी आर्थिक की अपेक्षा अधिक राजनीतिक निर्णय था जिस संदर्भ में केंद्रीय रिजर्व बैंक के अधिकारियों या आर्थिक विशेषज्ञों की कोई ज्यादा बैठकें नहीं हुई बल्कि जल्दबाजी में यह निर्णय लिया गया। नोटबन्दी का निर्णय एक राजनैतिक दबाव व राजनैतिक इच्छा के तहत लिया गया। भले ही यह निर्णय बेहद गुप्त तरीके से लेने होते हैं लेकिन किसी एक नेता की इच्छा या जिद्द की बजाए इस संबंधी आर्थिक विशेषज्ञों की सलाह ही मुख्य होती है। केंद्रीय रिजर्व बैंक के अधिकारियों ने नोटबन्दी से कुछ घंटे पहले हुई मीटिंग में सरकार के इस दावे को नकार दिया था कि नोटबन्दी से कालेधन पर रोक लगेगी।
अधिकारी यदि नोटबन्दी के विरुद्ध नहीं थे, तो वह इसे सभी समस्याओं का समाधान भी नहीं मानते थे, नतीजे भी सामने हैं। बैंक आधिकारियों के अनुसार नोटबन्दी वाले नोटों में से 99.3 प्रतिशत नोट बैंकों में जमा हो गए हैं। दरअसल नोटबन्दी एक आर्थिक इंकलाब की तरह होता है जिसने देश को नया जन्म देना होता है लेकिन देश में नोटबन्दी से बने हालातों के कारण सिवाय आम लोगों को कतारों में लगने की परेशानियों से कुछ नहीं मिला। कश्मीर में आतंकवाद नहीं घटा बल्कि आतंकवादी हमले बढ़ते ही जा रहे हैं। कश्मीर में आए दिन पुलिस व सुरक्षा कर्मियों पर हमले हो रहे हैं। पत्थरबाजों की भीड़ भी पहले के मुकाबले बढ़ रही है। विकास व रोजगार के अवसर नहीं बढ़े। यह मानने में कोई इंकार नहीं होना चाहिए कि विकास के लिए नोटबंदी ही एकमात्र समाधान नहीं है। अमेरिका व यूरोपीय देश बिना नोटबन्दी से तरक्की कर रहे हैं
आज भी हमें कृषि के लिए इजराइल जैसे देशों की तरफ देखना पड़ रहा है। हथियारों में हम समर्थ बन रहे हैं लेकिन आर्थिक तौर पर लगातार नीचे जा रहे हैं। भुखमरी में हमारे की अपेक्षा नेपाल व बांग्लादेश जैसे देशों में भी हालात हमारे से अच्छे हैं। नोटबन्दी के बावजूद दुकानदार, किसान, छोटा उद्योगपति व व्यापारी परेशान है जब तक देश के आर्थिक विशेषज्ञों को अनदेखाकर आर्थिक निर्णय राजनैतिक नेताओं द्वारा लिए जाएंगे तब तक उम्मीद के अनुसार परिणाम नहीं आएंगे। सरकार को नोटबन्दी पर चुप्पी की बजाय इसकी समीक्षा इमानदारी से करनी चाहिए।
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