हवा में रहेगी मेरे ख्याल की खुशबू, ये मुश्ते-खाक फानी (शरीर नश्वर) है, रहे, रहे न रहे। यह शेयर भगत सिंह ने अपनी फांसी के 20 दिन पूर्व यानी 3 मार्च 1931 को अपने छोटे भाई कुलतार सिंह को लिखे एक पत्र में लिखा था। लेकिन, विडंबना है कि देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूमने वाले अमर क्रांतिकारी भगत सिंह को अब तक सरकारी दस्तावेजों में शहीद का दर्जा नहीं मिल पाया। हाल ही में एक आरटीआई आवेदक ने राष्ट्रपति भवन से यह सवाल किया है कि क्या भगत सिंह को शहीद का दर्जा दिया जा सकता है या नहीं और अगर ऐसा नहीं किया जा सकता तो इसके लिए भी सरकार तथ्यों के साथ जानकारी दें। राष्ट्रपति भवन के पास जानकारी नहीं होने के कारण उसने इसे गृह मंत्रालय को भेज दिया और उसने बदले में इसे राष्ट्रीय अभिलेखागार के पास प्रतिक्रिया के लिए भेज दिया। एक बार पुन: यह सवाल खड़ा हो गया है कि आखिर सरकार की नजरों में कौन शहीद है व कौन नहीं और सरकारी रूप से शहीद का दर्जा पाने के लिए क्या कानूनी सीमाएं हैं।
गौरतलब है कि 28 सितंबर 1907 को पंजाब के लायलपुर स्थित बंगा गांव में जन्मे भगत सिंह के मन में बाल्यकाल से ही ब्रिटिश हुकूमत के प्रति घोर घृणा थीं। देश की आजादी के लिए मर मिटने का संकल्प उन्होंने बचपन में ही ले लिया था। खेतों में बंदूक बोने व मौत को अपनी दुल्हन मानने वाले भगत सिंह के मन में देश को आजाद कराने को लेकर हिंसा की भावनाएं कोई जन्मजात पैदा नहीं हुई थीं बल्कि वे तो गांधी के प्रशंसक थे। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि गांधी की अहिंसा, सत्याग्रह व अनशन की नीति से देश जरूर आजाद होगा। लेकिन, चौरी चौरा हत्याकांड के बाद गांधी जी द्वारा आंदोलन वापस लेने से आहत हुए भगत सिंह ने अपनी एक अलग राह बनाकर देश को आजाद कराने की ठानी। इसमें उनका सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त, जतिन दा जैसे कई क्रांतिकारियों ने अंतिम सांस तक साथ दिया। भगत सिंह चाहते तो फांसी के फंदे से बच सकते थे, उनके पास जेल से भागने के सारे विकल्प मौजूद थे। लेकिन, उन्होंने फांसी को चुना इसलिए कि उनके इस समर्पण के बाद लाखों लोग जगेंगे और देश को आजादी के लक्ष्य तक ले जाएंगे। इसलिए 23 मार्च 1931 को महज 23 साल की उम्र में वे लाहौर के सेंट्रल जेल में फांसी पर झूल गए।
लेकिन, इसके बाद भी इस महान देशभक्त को न तो अन्य स्वतंत्रता सेनानियों की तरह सम्मानजनक स्थान मिल पाता है और न ही उनके परिवार को वित्तीय सहायता मिल पाती है बल्कि आज भी किताबों में क्रांतिकारी आतंकी पढ़ाया जाता है। कहने को देश तो आजाद हो गया लेकिन हमारा शासन अब तक औपनिवेशिकता की बेड़ियां तोड़ने में सफल नहीं हो पाया है। यही कारण है कि आजादी के सात दशक बाद भी न तो हिंदी को राष्ट्रभाषा का गौरव मिला है और न ही भगत सिंह जैसे कई क्रांतिकारियों को शहीद का दर्जा मिल पाया हैं। इसी वजह से आज न तो किसी सरकारी कार्यालय में भगत सिंह की तस्वीर नजर आती है और न ही उनकी जयंती को सरकारी स्कूलों में गांधी, नेहरू व शास्त्री जयंती की तरह धूमधाम से मनाया जाता है।
अब सवाल है कि आखिर कौनसी ऐसी बाधा है, जो एक महान देशभक्त को शहीद का दर्जा देने में आड़े आ रही है। यदि वह अनुच्छेद18 है जो कहता है कि राज्य को कोई उपाधि देने की अनुमति नहीं है तो क्या इसे संशोधित नहीं किया जा सकता है। क्या अब वक्त नहीं आ चुका है कि हम औपनिवेशिक सोच से उबरकर अपनी सोच पर चलें। दरअसल, भगत सिंह को शहीद का सरकारी दर्जा देने या नहीं देने से, उनके चाहने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन, यह विषय राष्ट्रीय गौरव से जुड़ा हुआ है इसलिए सरकार की यह प्राथमिकता होनी चाहिए कि वह संसद में संशोधन प्रस्ताव पारित कर उस महान व्यक्तित्व को क्रांतिकारी आतंकी जैसे शब्द-सूचक से मुक्त करें।
देवेन्द्रराज सुथार
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