अभी तक दुनिया को परमाणु युद्ध का खतरा पाकिस्तान और उत्तर कोरिया की जमीन से झांकता दिखाई देता रहा है। पाकिस्तान से यह आशंका इसलिए ज्यादा थी, क्योंकि वहां की जमीन पर आतंक के खिलाड़ी पनाह लिए हुए हैं, लिहाजा भूल से भी उनके हाथ परमाणु हथियार लग गए तो दुनिया को तबाह करने में उन्हें देर नहीं लगेगी। परंतु अब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के ताजा बयानों के बाद इस डर की दिशा बदलती दिख रही है। ट्रंप ने आईआरएनएफ यानी मध्यम दूरी परमाणु शक्ति संधि से पृथक होने और नए व ज्यादा मारक क्षमता वाले परमाणु शस्त्र बनाने की घोषणा करके दुनिया को चिंतित कर दिया है। वहीं दूसरी तरफ इस ऐलान की प्रतिक्रिया में पुतिन ने कहा है कि अगर अमेरिका ने संधि से पलटने का फैसला लिया तो रूस भी इसका प्रभावी ढंग से उत्तर देगा।
जिस किसी भी यूरोपीय देश ने अमेरिका की परमाणु मिसाइलों को अपने देश में जगह दी तो उसे निशाना बनाया जाएगा। मसलन वैश्विक शक्तियां पुरानी परमाणु संधियों से अलग-थलग होती हैं तो इन्हीं परमाणु शक्तियों को युद्ध का शंखनाद करने में देर नहीं लगेगी ? यह युद्ध यदि हुआ तो वैश्विक परमाणु युद्ध में बदलना तय है। दरअसल ट्रंप जो भी अंतरराष्ट्रीय संधियां हैं, उन्हें शक की निगाह से देख रहे हैं। इन संधियों के मद्देनजर उन्हें अमेरिका के राष्ट्रहित कमजोर पड़ते दिखाई दे रहे हैं। इस सोच के पनपने का कारण रूस व चीन की निरंतर हर क्षेत्र में बढ़ती ताकत और घनिष्ट होती मित्रता भी है।
ट्रंप जलवायु परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में हुए समझौते को भी अमेरिका के औद्योगिक विकास में बड़ी बाधा मान रहे हैं, इसलिए वे उसे भी तोड़ने का बयान देते रहते हैं। हालांकि संधि बनाए रखने की दृष्टि से उन्होंने यह भी कहा है कि यदि रूस और चीन घोषणा कर दें कि दोनों देश संधि पर पुनर्विचार के लिए तैयार हैं, तो अमेरिका अपना फैसला बदल सकता है। अलबत्ता यहां सवाल उठता है कि रूस व चीन अमेरिका की धमकी के आगे क्यों घुटने टेकेंगे ? यदि अमेरिका संधि पर पुनर्विचार का शांतिपूर्ण ढंग से प्रस्ताव रखता तो एक बार इस पर विचार की संभावना रूस व चीन कर सकते थे। अलबत्ता धमकी तो आखिर में टकराव के रास्ते ही खोलती है, इसीलिए रूस ने ईंट का जबाव पत्थर से दे भी दिया है।
हालांकि संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने इस संधि को लेकर उपजे विवाद को दोनो देश को बातचीत से हल करने का सुझाव दिया है। लेकिन वर्तमान परिदृश्य में अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं जिस तरह से अप्रासंगिक होती जा रही है, उससे लगता नहीं कि इन महाशक्तियों पर उसका पर्याप्त दबाव बन पाएगा ? संयुक्त राज्य अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ ने मध्यम दूरी के परमाणु प्रक्षेपास्त्रों, यानी मिसाइलों को समाप्त करने के लिए 8 दिसंबर 1987 के दिन मध्यम दूरी परमाणु शक्ति संधि (इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लीयर फोर्स) पर हस्ताक्षर किए थे। यह समझौता परमाणु-शस्त्रों पर नियंत्रण के लिए छह साल तक चली सकारात्मक वार्ता का परिणाम था।
लेकिन 1989 में वारसा संधि के खात्मे और सोवियत रूस के विघटन की घटनाओं ने कुछ ऐसा मोड़ लिया कि इस आईआरएनएफ संधि का सामरिक महत्व नगण्य हो गया। वारसा संधि के समापन से यूरोप की सेनाओं की भूमिका एकपक्षीय हो गई। समुद्री सतह पर तैनात मिसाइलों के विस्तार का औचित्य खत्म हो गया। वैसे भी इस संधि में समुद्री मिसाइलों को नष्ट करने की शर्त नहीं जुड़ी थी। जबकि आईआरएनएफ का लक्ष्य इन्हीं मिसाइलों की निगरानी करना था। संधि के पालन में सभी परमाणु हथियार और पारंपरिक मिसाइलों के साथ-साथ उनके लांचर, जिनकी मारक क्षमता 500 से 1000 और 1000 से 3500 किमी थी, को हटा दिया गया था। 1991 तक करीब 2692 मिसाइलें नष्ट कर दी गई थीं।
दरअसल इस संधि की समय-सीमा दो साल बाद खत्म हो रही है, इसलिए अमेरिका अब अपने देशहित के चलते इसके नवीनीकरण के पक्ष में नहीं है। इस संधि का ही नतीजा था कि शीतयुद्ध के समय दुनिया तनावमुक्त रही। इससे यह भरोसा बना हुआ था कि दुनिया एकाएक परमाणु विभीशका की भट्टी में नहीं झोंकी जाएगी ? किंतु कालांतर में संधि टूटती है तो दुनिया कभी भी परमाणु हमले की चपेट में आ सकती है। हालांकि 20 अक्टूबर 2018 को टंÑप ने जो बयान दिया है, वह प्रस्ताव अभी अमेरिकी सीनेट से अनुमोदित नहीं हुआ है। इसलिए एकाएक यह कहना भी मुश्किल है कि यह संधि समाप्त हो ही जाएगी। अब दोनों देश इस संधि के उल्लंघन का आरोप एक-दूसरे पर मढ़ रहे हैं।
अमेरिका ने 2008 में एसएससी क्रूज मिसाइल का परीक्षण किया, तो रूस ने यूरोप को लक्षित करने वाली मिसाइलों का परीक्षण और निर्माण कर लिया। इनमें 9 एम-729 और आरएस-26 रूबेज मिसाइलें शामिल हैं। ये अंतरराष्ट्रीय बैलिस्टिक मिसाइलें हैं। इनका परीक्षण व निर्माण आईआरएनएफ संधि का खुला उल्लंघन है। इधर चीन, भारत और पाकिस्तान भी मिसाइल संपन्न देश हो गए हैं। रूस-चीन के मजबूत होते सामरिक संबंध भी अमेरिका को परेशान किए हुए हैं। उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग तो पहले ही अमेरिका पर परमाणु हमले की धमकी दे चुके हैं। किम को चीन की शह हासिल है और पाकिस्तान ने उसे गोपनीय ढंग से परमाणु शस्त्र निर्माण की तकनीक दी थी। उत्तर कोरिया हाइड्रोजन बम का भी सफल परीक्षण करके दुनिया को दहला चुका है। गोया, अमेरिका संधि तोड़ता है तो चीन व रूस की शह पर किम जोंग किसी भी हरकत को अंजाम दे सकते हैं। हालांकि फिलहाल उत्तर और दक्षिण कोरिया में सद्भाव कायम है, जो अमेरिका के हस्तक्षेप से ही सफल हुआ था।
इस समय कुल 9 देश परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं। इनमें पांच अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन और ब्रिटेन ऐसे देश हैं, जिनके पास परमाणु हथियारों के इतने बड़े भंडार है कि वे पूरी दुनिया को कई बार नष्ट कर सकते हैं। विडंबना यह भी है कि यही देश परमाणु अप्रसार संधि के सदस्य हैं। अमेरिका के पास 4760, रूस 4300, फ्रांस 300, चीन 250 और ब्रिटेन के पास 225 परमाणु हथियार हैं। इन देशों के अलावा भारत, पाकिस्तान, इजराइल और उत्तर कोरिया भी परमाणु शक्ति संपन्न देश हैं। भारत के पास 90-110, पाकिस्तान 90-120, इजराइल 80-100 और उत्तर कोरिया के पास 10 परमाणु हथियार बताए जाते हैं। किस देश के पास वास्तव में कितने परमाणु अस्त्र है, इनकी वास्विक गिनती नहीं हुई है, ये महज अनुमान हैं। दक्षिण अफ्रीका, बेलारूस, यूक्रेन और कजाकिस्तान अपने-अपने परमाणु हथियार खत्म कर चुके हैं। ईरान परमाणु हथियार निर्माण कार्यक्रम चला रहा था, किंतु अमेरिका के दबाव और नई संधि के चलते इस शंका को निर्मूल माना जा रहा है। परमाणु हमले का दंश झेल चुके जापान के पास कोई परमाणु हथियार नहीं है, लेकिन उत्तर कोरिया द्वारा हाइड्रोजन बम के परीक्षण के बाद जापान ने परमाणु कार्यक्रम शुरू करने के संकेत दिए हैं।
चीन की विस्तारवादी नीति ने भी जापान को इस दिशा में मुड़ने को विवश किया है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन का कहना था कि कल्पना ज्ञान से अधिक शक्तिशाली होती है। अस्त्रों का उपयोग बचावकारी आधुनिक टेसला शील्ड के समान होता है। परमाणु हथियारों से हमला बोलने की अनुमति का अधिकार किसी भी देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सेना प्रमुख या सामूहिक निर्णय के जरिए लिया जाता है। आम प्रचलन में परमाणु हमले को रेड बटन यानी खूनी खेल खेलने का लाल बटन माना जाता है। जो दबने के बाद सिर्फ और सिर्फ तबाही की क्रूरता रचता है। अमेरिका इस बटन को दबाकर जापान के हिरोशिमा और नागाशाकी शहरों पर 6 और 9 अगस्त 1945 को परमाणु हमला बोलकर नेस्तनाबूद कर चुका है। शायद परमाणु हमले की विभीशका व वीभत्सता को अहसास करते हुए ही अल्बर्ट आइंसटीन ने कहा था कि मैं यह नहीं जानता कि तीसरे विश्वयुद्ध में किस तरह के हथियारों का इस्तेमाल होगा, लेकिन यह तय है कि चौथा विश्व युद्ध लाठी और पत्थरों से लड़ा जाएगा। बहरहाल आईआरएनएफ संधि टूटती है तो दुनिया के जल्द तबाह होने का खतरा बढ़ जाएगा।
प्रमोद भार्गव
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