माध्य रात्रि को अभूतपूर्व विद्रोह हुआ जिसमें रात्रि के 1 बजे सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा को हटाकर उनके स्थान पर संयुक्त निदेशक नागेश्वर राव की नियुक्ति की गयी और इसका कारण निदेशक वर्मा और विशेष निदेशक अस्थाना के बीच सार्वजनिक रूप से आरोप-प्रत्यारोपों का दौर था। दोनों एक दूसरे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहे थे और दोनों को छुट्टी पर भेज दिया गया। दोनों न्यायालय की शरण में गए। वर्मा उच्चतम न्यायालय की शरण में गए और अस्थाना ने दिल्ली उच्च न्यायालय में अपने विरुद्ध दायर प्रथम सूचना रिपोर्ट को रद्द करने के लिए याचिका दायर की जो मोइन कुरैशी रिश्वत मामले में वर्मा के निर्देश पर दर्ज की गयी थी।
परिणाम यह हुआ कि उच्चतम न्यायालय ने मुख्य सतर्कता आयुक्त को दस दिन में जांच पूरी करने और राव को कोई नीतिगत निर्णय न लेने का निर्देश दिया। देश की प्रमुख जांच एजेंसी में चल रहे इस प्रकरण से उसका उपहास हुआ और यह अनेक स्तरों पर विफलता को दशार्ता है। वास्तव में वर्मा, अस्थाना और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा मिल बैठकर इस स्थिति से बचा जा सकता था। मुख्य सतर्कता आयोग या प्रधानमंत्री कार्यालय को इस मुद्दे को सुलझाने का प्रयास करना चाहिए था। ऐसा पहली बार नहीं हुआ और न ही यह अंतिम बार है। गत वर्षों में देश की प्रमुख एजेंसी में ऐसे अनेक प्रकरण हुए जिसके चलते इसे सेन्ट्रल ब्यूरो आॅफ करप्शन, कनाइवेंस और कनविनिएंस के उपनाम दिए गए।
मधुर विडंबना देखिए। विपक्ष मोदी-शाह पर सीबीआई की विश्वसनीयता से समझौता करने का आरोप लगा रहा है जबकि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने सीबीआई पर पक्षपात करने और गुजरात के लोगों को निशाना बनाने का आरोप लगाया था। उन्होने कहा था हमें दुश्मन राज्य की तरह क्यों माना जा रहा है? आज स्थिति अलग है। प्रधानमंत्री के रूप में उन पर अपने राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने का आरोप लगाया जा रहा है साथ ही सीबीआई की तथाकथित स्वायत्तता और स्वतंत्रता का उपहास किया जा रहा है। इस प्रकरण से सीबीआई की ईमानदारी और सत्यनिष्ठा पर प्रश्न उठते हैं। क्या सीबीआई पर उससे कहीं अधिक आरोप लगाए जा रहे हैं जितने कि उसके गलत कारनामे हैं।
क्या राजेता मुख्य रूप से दोषी हैं? या चोर-चोर मौसेरे भाई? सच्चाई इन दोनों के बीच की है। दोनों अपने हितों को साधने के लिए मिलकर कार्य करते हैं। वर्मा ने स्पष्टत: कहा कि राजनीतिक वर्ग द्वारा डाला जा रहा दबाव स्पष्ट या लिखित में नहीं होता है। अक्सर यह परोक्ष रूप से होता है और इसका मुकाबला करने के लिए साहस की आवश्यकता होती है। जैसा कि अक्सर होता है हमारे नेतागण अपराध और भ्रष्टाचार को वैध ठहराने का कार्य करते हैं। सत्ता का नशा ऐसा होता है कि सभी राजनीतिक पूंजी बनाना चाहते हें जिसके लिए व्यवस्था को तोड़ा- मरोड़ा जाता है। गत वर्षों में राजनीतिक वर्ग ने सीबीआई को अधिकाधिक शक्तियां दी हैं।
इस मामले में दो प्रकरण प्रमुख हैं। भाजपा के कर्नाटक के दिग्गज नेता येदुरप्पा को राज्य के लोकायुक्त ने खनन कंपनियों का पक्ष लेने और उसके बदले रिश्वत प्राप्त करने का दोषी माना जबकि अब जब केन्द्र में भाजपा सत्तारूढ है सीबीआई की इसी अदालत ने उन्हें बरी कर दिया। इसी तरह उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती और मुलायम सिंह के आय से अधिक संपत्ति के मामले राजनीतिक कार्य साधकता द्वारा निर्देशित होते हैं। इस मामले में कांग्रेस का रिकार्ड भी अच्छा नहीं है। पार्टी ने अपने राजनीतिक हितो ंको साधने के लिए सीबीआई का उपयोग और दुरूपयोग किया है और इसीलिए 2013 में कोयला घोटाले में सीबीआई को पिंजरे में बंद तोता तक कहा गया। बोफोर्स घोटाले में भी एजेंसी की भूमिका जगजाहिर है और किसी को पता नहीं चला कि इस घोटाले में 62 करोड़ रूपए किसकी जेब में गए।
हालांकि स्व0 प्रधानमंत्री राजीव गांधी को इस मुद्दे के कारण अपनी कुर्सी गंवानी पड़Þी। सांसदों और विधायकों के विरुद्ध विभिन्न न्यायालयों में 13 हजार मामले लंबित हैं जिनमें से कुछ मामलों की सीबीआई द्वारा जांच की जा रही है। इसके चलते सीबीआई की प्रतिष्ठा खराब हई है और वह ऐसे मामलों में अपेक्षित साक्ष्य नहीं जुटा पायी है। यही नहीं सीबीआई ने सरकार के साथ चलने की अवसरवादी नीति अपनायी है। असल मुद्दा यह है कि सीबीआई पर किसका नियंत्रण हो। यह हमारे सत्तालोलुप राजनेताओं के लिए एक दुविधाभरा प्रश्न है। वे कभी भी इसका ईमानदारी से उत्तर नहीं देंगे और ऐसी अपेक्षा करना हमारी बेवकूफी है। राजनीतिक हेराफेरी और जांच को आंतरिक रूप से प्रभावित करना सीबीआई के समक्ष दो बड़ी चुनौतियां हैं।
आपको ध्यान होगा कि इंदिरा गांधी देश की पहली प्रधानमंत्री थीं जो प्रभावी सत्ता के सभी साधनों को अपने हाथों में रखना चाहती थीं और उसके बाद सभी प्रधानमंत्रियों ने इस परंपरा का अनुसरण किया हालांकि हमेशा सीबीआई के दुरूपयोग के आरोप लगते रहे हैं और नेता सीबीआई को स्वायत्तता और स्वतंत्रता देने की बातें करते रहे। केन्द्र में सत्ता में आने पर सभी दलों पर सीबीआई की कार्य प्रणाली में हस्तक्षेप और अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के विरुद्ध इसका दुरूपयोग करने के आरोप लगते रहे। सीबीआई के पूर्व निदेशकों और शीर्ष अधिकारियों के अनुसार एजेंसी को स्वायत्तता जैसी कोई चीज प्राप्त नहीं है। यह एक दिखावा है। कोई भी सरकारी निकाय स्वतंत्रता नहीं है। हालांकि हवाला घोटाले में उच्चतम न्यायालय के 1997 के विनीत नारायण निर्णय के बाद केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त अधिनियम और दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिस्थापना अधिनियम में संशोधन किए गए।
यह कार्य तीन कारणों से किया गया। पहला, सीबीआई सीधे प्रधानमंत्री के नियंत्रणाधीन है। दूसरा, दंड प्रक्रिया की संहिता धारा 389 के अनुसार केवल कार्यपालिका को यह निर्णय करने की शक्ति है कि किसी मामले में सीबीआई अपील करे या न करे। तीसरा, अधिकारी अपनी पदोन्नति के लिए अपने राजनीतिक आकाओं पर निर्भर करते हैं और यदि वे उनके अनुसार कार्य करते हैं तो उन्हें पुरस्कृत किया जाता है। एक पूर्व सीबीआई निदेशक को सेवानिवृत्ति के बाद राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का सदस्य बनाया गया। प्रधानमंत्री मोदी अक्सर शासन में पारदर्शिता की बातें करते हैं अत: समय आ गया है कि सीबीआई का कामकाज वास्तव में स्वतंत्र किया जाए और अपने आकाओं की आवाज न बने तथा सत्ता का दुरूपयोग न हो। किंतु एजेंसी को जी हुजूर अधिकारियों से मुक्त करना एक कठिन कार्य है।
पक्षपातपूर्ण जांच शुरू करने का कोई फायदा नहीं क्योंकि उसमें निष्पक्ष जांच की कोई गारंटी नहीं होती। इस संबंध में अंतर्राष्ट्रीय परिपाटियां अपनायी जानी चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि सीबीआई अपना समर्पित काडर विकसित करे और अधिकािरयों के लिए प्रतिनियुक्ति पर निर्भर न रहे। सीबीआई ने हाल के वर्षो में अपने अधिकारी भर्ती करने का प्रयास किया किंतु एजेंसी में सभी वरिष्ठ पदों पर आईपीएस अधिकारी बैठे हुए हैं। सीबीआई को नियंत्रण महालेखा परीक्षक की तरह स्वायत्तता देने पर भी विचार किया जा सकता है जो कि केवल संसद के प्रति उत्तरदायी है। केन्द्रीय आपराधिक और खुफिया एजेंसियों पर कुशल संसदीय निगरानी से जवाबदेही सुनश्चित की जाती है। हालांकि निगरानी में राजनीतिक दुरूपयोग की संभावनाएं बनी रहती हैं। फिलहाल स्थिति सीबीआई की स्वायत्तता के विरुद्ध है। सीबीआई का यह प्रकरण मोदी के भारत की सच्चाई उजागर करता है कि सत्ता ही सब कुछ है।
कुल मिलाकर सीबीआई को अपने आका की आवाज बनना बंद करना होगा और सत्ता का दुरूपयोग भी बंद करना होगा। कुल मिलाकर शासक वर्ग को सीबीआई के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। सीबीआई को एक स्वतंत्र तोता बनाना आदर्शवादी सोच है किंतु सरकार को इसमें स्वच्छता लाने के लिए तुरंत कदम उठाना चाहिए और उसे दो प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए कि क्या सीबीआई कानून के अनुसार निर्देशित होगी या सरकार के अनुसार। अब गेंद मोदी के पाले में है। क्या वे इस दिशा में कदम उठाएंगे?
पूनम आई कौशिश