देश एवं समाज में रिश्वत देने वालों व्यक्तियों की संख्या बढ़ रही है, ऐसे व्यक्तियों की भी कमी हो रही है जो बेदाग चरित्र हों। विडम्बना तो यह है कि भ्रष्टाचार दूर होने के तमाम दावों के बीच भ्रष्टाचार बढ़ता ही जा रहा है। भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन रहा है। ट्रांसपैरंसी इंटरनैशनल इंडिया द्वारा किए गए सर्वे इंडिया करप्शन सर्वे 2018 के मुताबिक देश में रिश्वत देकर काम कराने वालों की संख्या में 11 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। भ्रष्ट देशों की सूची में भी भारत अव्वल है। इन विडम्बनापूर्ण एवं त्रासद स्थितियों से कम मुक्ति मिलेगी, कब हम ईमानदार बनेंगे? रिश्वतखोरी एवं भ्रष्टाचार से ठीक उसी प्रकार लड़ना होगा जैसे एक नन्हा-सा दीपक गहन अंधेरे से लड़ता है।
छोटी औकात, पर अंधेरे को पास नहीं आने देता। क्षण-क्षण अग्नि-परीक्षा देता है। भ्रष्टाचार ऐसे ही पनपता रहा तो सब कुछ काला पड़ जायेगा, प्रगतिशील कदम उठाने वालों ने और राष्ट्रनिमार्ताओं ने अगर व्यवस्था सुधारने में मुक्त मन से ईमानदार एवं निस्वार्थ प्रयत्न नहीं किया तो कहीं हम अपने स्वार्थी उन्माद में कोई ऐसा धागा नहीं खींच बैठे, जिससे पूरा कपड़ा ही उधड़ जाए।
नरेन्द्र मोदी सरकार जिस भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर चुनाव जीती थी वही भ्रष्टाचार कम होने की बजाय देश में अपनी जड़ें फैलाता जा रहा है। सरकार द्वारा भ्रष्टाचार से लड़ने के तमाम दावे किये गये लेकिन इसमें कमी होने की बजाय लगाता वृद्धि देखने को मिल रही है। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल इंडिया और लोकल सर्कल्स द्वारा किये गए इस सर्वे के अनुसार बीते एक साल में 56 प्रतिशत लोगों ने घूस देकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है। इस सर्वे में देश के कुल 1,60,000 लोगों ने भाग लिया। सर्वे के मुताबिक पिछले साल 45 प्रतिशत लोगों द्वारा घूस देने का मामला सामने आया था।
सर्वे में जमीन की रजिस्ट्री जैसे कामों के लिए सबसे ज्यादा 30 प्रतिशत लोगों ने सरकारी कर्मचारियों को घूस देने की बात कही है। पुलिस महकमा रिश्वतखोरी के मामले में दूसरे नंबर पर है। सर्वे में शामिल 25 प्रतिशत लोगों ने बताया कि पुलिस से जुड़े कामकाज के लिए उनको घूस देनी पड़ी, जबकि 18 प्रतिशत लोगों ने नगर निकायों से जुड़े कार्यों में रिश्वत देने की बात कही। हमारे देश में करप्शन ही वह मुद्दा है, जिसको हर चुनाव में जरूर उठाया जाता है। शायद ही कोई पार्टी हो जो अपने घोषणापत्र में भ्रष्टाचार दूर करने का वादा न करती हो। फिर भी इस समस्या से निजात मिलना तो दूर, इसकी रफ्तार कम होने का भी कोई संकेत आज तक नहीं मिला।
रिश्वतखोरी के मामले में भारत पाकिस्तान, आॅस्ट्रेलिया, जापान, म्यांमार, श्रीलंका और थाईलैंड जैसे देशों से आगे है। भ्रष्टाचार के खिलाफ तमाम आंदोलनों और सरकार की सख्ती के बावजूद रिश्वत के मामलों में भारतीय अपने पड़ोसी देशों को मात दे रहे हैं। अब भी दो तिहाई लोगों को सरकारी सेवाओं के बदले घूस देनी पड़ती है। एक सर्वे में दावा किया गया है कि एशिया प्रशांत क्षेत्र में रिश्वत के मामले में भारत शीर्ष पर है जहां दो तिहाई भारतीयों को सार्वजनिक सेवाएं लेने के लिए किसी न किसी रूप में रिश्वत देनी पड़ती है।
भ्रष्टाचार एवं रिश्वतखोरी से लड़ने के लिए जो नियम-कानून बनते हैं, उनका ढंग से पालन नहीं हो पाता। कारण यह कि पालन कराने की जवाबदेही उन्हीं की होती है, जिनके खिलाफ ये कानून बने होते हैं। भ्रष्टाचार उन्मूलन (संशोधन) विधेयक 2018 सरकार ने इसी साल पास कराया। इसके तहत किसी बड़ी कंपनी या कॉपोर्रेट हाउस की ओर से सरकारी नीति को तोड़ने-मरोड़ने के लिए आॅफिसरों को रिश्वत दी गई तो न केवल वे अधिकारी नपेंगे, बल्कि घूस देने वाली कंपनी या कॉपोर्रेट हाउस के जवाबदेह लोग भी अंदर जाएंगे। कानून तो अच्छा है, पर यह सार्थक तभी होगा जब इसके सख्ती ले लागू होने की मिसालें पेश की जाएं।
विडम्बनापूर्ण है कि बड़े औद्योगिक घराने, कंपनी या कॉपोर्रेट हाउस अपने काम करवाने, गैरकानूनी कामों को अंजाम देने एवं नीतियों में बदलाव के लिये मोटी रकम रिश्वत के तौर पर या राजनीतिक चंदे के रूप में देते हैं। इस बड़े लेबल से अधिक खतरनाक है छोटे लेबल पर चल रहा भ्रष्टाचार। क्योंकि इसका शिकार आम आदमी होता है। जिससे देश का गरीब से गरीब तबका भी जूझ रहा है। ऊपर से नीचे तक सार्वजनिक संसाधनों को गटकने वाला अधिकारी-कर्मचारी, नेता और दलालों का एक मजबूत गठजोड़ बन गया है, जिसे तोड़ने की शुरूआत तभी होगी, जब कोई सरकार अपने ही एक हिस्से को अलग-थलग करने की हिम्मत दिखाए।
अन्ना आंदोलन ने लोकपाल के अलावा स्थानीय भ्रष्टाचार के मुद्दे को भी गंभीरता से उठाया था। नरेन्द्र मोदी ने भी भ्रष्टाचार पर काबू पाने के लिये कठोर कदम उठाये, इन स्थितियों के दबाव में एक-दो राज्य सरकारों ने खुद पहलकदमी करके कर्मचारियों की जवाबदेही तय करने के लिए कुछ नियम बनाए थे। लेकिन दबाव कम होते ही सब कुछ फिर पुराने ढर्रे पर चलने लगा। केंद्र सरकार वाकई भ्रष्टाचार दूर करना चाहती है तो उसे असाधारण इच्छाशक्ति दिखानी होगी। आज सभी क्षेत्रों में ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है जो सत्य की रेखा से कभी दाएं या बाएं नहीं चले। जो अपने कार्य की पूर्णता के लिए छलकपट का सहारा न लें।
देशव्यापी सर्वे में जो नतीजे सामने आए हैं, वे न केवल चैंकाने वाले हैं बल्कि चिन्ताजनक भी है। सर्वे में शामिल लोगों ने विभिन्न सरकारों की ओर से भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए किए जा रहे उपायों के प्रति भी निराशा जताई। 38 फीसदी लोगों ने कहा कि राज्य सरकारों व स्थानीय प्रशासन ने कुछ कदम तो उठाए हैं, लेकिन वे अब तक निष्प्रभावी ही साबित हुए हैं।
वहीं 48 फीसदी लोगों का मानना है कि राज्य सरकारें इस मोर्चे पर बिलकुल उदासीन हैं और कोई कदम नहीं उठा रही हैं। दुनिया भर में ऐसे तमाम अध्ययन हैं, जो साबित करते हैं कि भ्रष्टाचार से विकास पर नकारात्मक असर पड़ता है। निवेश बाधित होता है और व्यापार की संभावनाएं सीमित होती हैं।
सर्वे में कहा गया है कि रिश्वत की मांग करने वाले लोकसेवकों में पुलिस का स्थान सबसे ऊपर रहा। सर्वेक्षण में 85 प्रतिशत ने कहा कि पुलिस में कुछ अथवा सभी भ्रष्ट हैं। धार्मिक नेताओं के मामले में यह प्रतिशत 71 रहा। सर्वेक्षण में केवल 14 प्रतिशत भारतीयों ने कहा कि कोई भी धार्मिक नेता भ्रष्ट नहीं है जबकि 15 प्रतिशत उनके भ्रष्ट तरीकों से वाकिफ नहीं थे।
पुलिस के बाद पांच सर्वाधिक भ्रष्ट श्रेणी में सरकारी अधिकारी 84 प्रतिशत, कारोबारी अधिकारी 79 फीसदी, स्थानीय पार्षद 78 प्रतिशत और सांसद 76 फीसदी रहे जबकि कर अधिकारी छठवें स्थान 74 फीसदी पर हैं। ट्रांसपेरेन्सी इंटरनेशनल के अध्यक्ष जोस उगाज ने कहा, सरकारों को अपनी भ्रष्टाचार निरोधक प्रतिबद्धताओं को हकीकत का रूप देने के लिए और अधिक प्रयास करने चाहिए।
यह समय कहने का नहीं बल्कि करने का है। लाखों की संख्या में लोग लोकसेवकों को रिश्वत देने के लिए बाध्य होते हैं और इस बुराई का सर्वाधिक असर गरीब लोगों पर पड़ता है। सरकारों को सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करने की अपनी प्रतिबद्धताओं के साथ साथ भ्रष्टाचार से निपटने के वादे भी पूरे करने चाहिए।
हमें ऐसा राष्ट्रीय चरित्र निर्मित करना होगा, जिसे कोई ह्वरिश्वतह्ल छू नहीं सके, जिसको कोई ह्वसिफारिशह्ल प्रभावित नहीं कर सके और जिसकी कोई कीमत नहीं लगा सके। ईमानदारी अभिनय करके नहीं बताई जा सकती, उसे जीना पड़ता है कथनी और करनी की समानता के स्तर तक।
ललित गर्ग
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