पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर यह बेहद महत्वपूर्ण है कि आपराधिक पृष्ठभूमि के राजनेताओं पर नकेल कसने के उद्देश्य से निर्वाचन आयोग ने हलफनामे का नया प्रारूप जारी कर दिया है। हालांकि पिछले अनुभवों को देखें तो ऐसा लगता नहीं है कि राजनीतिक दलों को इससे कोई फर्क पड़ता है। क्योंकि अब से पहले न जाने कितने दागियों के दाग-धब्बे धोकर पार्टियों ने उन्हें पवित्र घोषित किया और जनता ने इस पर मुहर लगाकर उन्हें संसद भेज दिया है। कई नियम ऐसे हैं, जो पहले से लागू हैं, लेकिन हर चुनाव में हर राजनीतिक दल उनकी धज्जियां उड़ाता है। अलबत्ता इस बार थोड़ा काम बढ़ गया है। प्रत्याशी को न केवल यह बताना होगा कि उसके खिलाफ कितने मामले अदालत में चल रहे हैं बल्कि वोटिंग के दो दिन पहले यानी चुनाव प्रचार खत्म होने के साथ अखबारों और टीवी चैनलों में कम से कम तीन बार इससे संबंधित विज्ञापन भी प्रसारित कराने होंगे। प्रत्याशी ने ऐसा किया है इसका हलफनामा भी उसकी राजनीतिक पार्टी को देना होगा।
यहां मामला थोड़ा टेढ़ा है, 48 घंटे पहले अपने प्रत्याशी की कुंडली देखकर जनता का मन बदल भी सकता है, इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बार राजनीतिक दल ऐसे नेताओं को उम्मीदवार बनाने से बचेंगे। क्योंकि अभी तक ऐसा कोई मामला फिलहाल प्रकाश में नहीं आया है कि संभावित प्रत्याशियों के खिलाफ चल रहे मामलों को राजनीतिक बताकर खत्म कर दिया गया हो। सिर्फ उत्तरप्रदेश में ऐसी खबरें आई थीं कि योगी आदित्यनाथ ने बीजेपी कार्यकतार्ओं पर लगे कई मुकदमें वापस ले लिए हैं, लेकिन ताजा मामले में राजनीतिक दल बहुत अधिक सतर्क हों, ऐसा लगता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं के बारे में जानकारी उपलब्ध कराने के लिए दो हफ्ते का समय दिया है। वैसे यह आदेश पहले दिया गया था, लेकिन सिर्फ 16 राज्यों ने इसकी जानकारी दी है बाकी चुप्पी साधे हुए हैं। अभी पांच राज्यों में चुनाव हैं, ताजा-ताजा आदेश है इसलिए संभव है कि कुछ पालन हो जाए लेकिन भविष्य को लेकर यह भरोसा कम नहीं हो रहा है कि प्रत्याशी और पार्टियां अपराधिक मामलों को विज्ञापन प्रकाशित कराने के मामले में कोई न कोई रास्ता निकालने का जुगाड़ कर लेंगी।
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